By: divyahimachal
हालांकि फैसला अपने आप में प्रेरणा, प्रोत्साहन के साथ-साथ प्रादेशिक महत्त्वाकांक्षा को संबोधित करता है, फिर भी सरकारी कार्यसंस्कृति को दीया दिखाने के लिए एक बड़े महायज्ञ की जरूरत है। बेशक सुक्खू सरकार एक ऐसी कार्यशाला में बैठी है जहां कुछ नया कर दिखाने के संकल्प परिलक्षित हो रहे हैं, लेकिन सुशासन के मजमून बहुत ही पेचीदा हैं। बहरहाल सुक्खू सरकार के फैसलों में इजाफा अब यह बता रहा है कि हर विभाग का परफार्मेंस इंडेक्स बनेगा, यानी सरकार के कामकाज का सूचकांक बताएगा कि कहां मेहनत में सुराख या कर्म में कोताही है। राज्यस्तरीय दिशा बैठक में मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने ऐलानिया तौर पर अपनी कर्मठता का इजहार किया है, लेकिन असली चमत्कार तो कार्यान्वयन का है जिसे आम जनता ग्रास रूट पर महसूस करना चाहती है। उसके लिए सरकार के शिमला स्थित ओहदे कितने भी मजबूत हो जाएं, लेकिन गांव का पटवारी, जलशक्ति विभाग का फिटर, बिजली विभाग का लाइनमैन, डिस्पेंसरी का फार्मासिस्ट, पशु औषधालय का इंचार्ज या स्कूल का मास्टर आज भी उसकी अपेक्षाओं के आदर्श नहीं बने हैं, तो कहीं समस्या कार्यान्वयन की है। इससे पहले मुख्यमंत्री ने अस्पतालों में इमर्जेंसी सेवाओं को चौबीस घंटे सक्रिय बनाने की कार्ययोजना पेशकर अपनी इच्छाशक्ति व्यक्त की है, लेकिन जमीनी हकीकत में हिमाचल की मशीनरी और काम का ढर्रा इतना विद्रूप है कि हर बार सरकारी अस्पताल की काली दीवारों के भीतर यमदूत बने कई लोग घूम रहे होते हैं।
हर बार रोग की पहचान और निदान अगर असफल होता है, तो कहीं कोई शिखंडी सरकारी व्यवस्था को फेल कर रहा होता है। यह कहने में हर्ज नहीं कि हर बार हिमाचली चिकित्सा संस्थानों की पर्चियां पीजीआई, एम्स या बाहरी राज्यों के अस्पतालों में फेल होती हैं, तो इस वजह को जानना जरूरी है। पिछले कई दशकों से हम सरकारों के निरंतर प्रयास में मेडिकल कालेजों की नित नई खेप उतरते देख चुके हैं, लेकिन रिकार्ड यह कहता है कि हर मुख्यमंत्री को कभी न कभी खुद को स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रदेश से बाहर जाना ही पड़ा है। पिछले कुछ समय से हिमाचल में निजी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति रुझान क्यों बढ़ रहा है, यह जाने बिना विभागीय सूचकांक केवल लीपापोती ही करेगा। हर विभाग के पास अपनी-अपनी नालायकी छुपाने के हजारों बहाने हैं, इसलिए सत्तारूढ़ दल की खुशफहमी को बर्बाद करने के लिए कर्मचारी राजनीति हर पांच साल बाद एक नया अवतार लेती है। हर विभाग की परफार्मेंस का रिकार्ड देखें तो शायद ही कोई गलती निकाल पाएं। दरअसल योजना प्रारूप में ऐसी खुशफहमियां बढ़ा दी जाती हैं कि राज्यस्तरीय प्राथमिकताएं चूर-चूर हो जाती हैं, राजनीतिक संकल्प टूट जाते हैं या जनता से सरकार की दूरियां बढ़ा दी जाती हैं। सरकार को यह तय करना है कि उसे सुशासन या सरकार की बेहतर सेवाएं चुननी हैं या इमारतों के जंगल मेें तख्तियां बटोरनी हैं।
उदाहरण के लिए ट्रांसपोर्ट के मायने तब सिद्ध होंगे जब अनावश्यक डिपो स्थापित करने के बजाय गांव तक पहुंचने वाली एचआरटीसी की बस के कलपुर्जे सक्षम होंगे। योजनाओं का धरातल पुष्ट करने की चाह व लक्ष्य तो कमोबेश हर सरकार में पहले भी रहा है, लेकिन विभागीय कार्यान्वयन के जख्म देखे नहीं जाते। जाहिर तौर पर हर कर्मचारी व अधिकारी के कामकाज की जवाबदेही सिर्फ कागजों में रह गई। ऐसे में सरकार के चलने और काम करने के अंदाज को बदलने के लिए प्रशासनिक सुधार, ट्रांसफर पॉलिसी बनाने, आर्थिक सुधार व निजी क्षेत्र के साथ कदमताल करने की जरूरत के साथ-साथ आत्म संयम की भी जरूरत है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां नए चिंतन, नवाचार व नई प्राथमिकताओं की परिपाटी बनानी होगी, जबकि सरकारी कार्यसंस्कृति को दुरुस्त करने से पहले सत्तारूढ़ राजनीति के अर्थ बदलने पड़ेंगे। सरकार के नुमाइंदे अगर कर्मचारी संगठनों के समारोहों में न जाएं, स्कूल-कालेजों के वार्षिक समारोहों में न जाएं या शिलान्यास के पुराने पत्थरों को नई चमक देते हुए नए शिलान्यास से उद्घाटन समारोहोंं की खेप में खुद को न उलझाएं, तो अंतर समझ आएगा।