अपने यहां आज भी औरतें जैसा पति हो, उसके साथ अंत तक निवाह लेने में विश्वास रखती हैं। तीन तलाक तो आज गैर-कानूनी घोषित हुआ, हिंदू कोड बिल तो न जाने कब का पास हो चुका है, लेकिन औरतें हैं कि आज भी अपने कंधों पर शादी के मुर्दा संस्थान को ढोए जा रही हैं। पति के हर दोष के मुकाबले कुछ सिफत ढूंढ कर उसकी भूली-भटकी पुचकार को ही वरदान मान कर जिए जाती हैं। पति शराबी-कबाबी है तो कह देती हैं 'चलो जुआ तो नहीं खेलता'। जुआ भी खेलने लगे तो कह देती हैं 'चलो दूसरी औरत पर तो निगाह नहीं डालता।' दूसरी औरत पर निगाह डाले तो यार लोग उसे उसकी मर्दानगी का सुबूत मानने लगते हैं और भाभी जी की गीली आंखों के लिए अपना कंधा आगे करते हुए फरमा देते हैं, 'भाभी जी, हाथी चाहे गली-गली घूमे, लेकिन आखिर आएगा तो आपकी हवेली के द्वार। सति नारियों के बल को भला कोई नकार सका है।' औरतों के लिए बनाए गए दोगले पैमाने सदियों से काम कर रहे हैं, तभी तो औरतें आज भी ऐसे मर्दो से तलाक लेने पर घबराती हैं।
बल्कि नारी की घरेलू या कामकाज़ी स्थल पर प्रताड़ना के विरुद्ध जब कानून बनने लगे तो सर्वेक्षकों ने यह चित्र-विचित्र सर्वेक्षण प्रस्तुत कर दिए कि सब औरतें पतियों से पिटाई को नापसंद नहीं करती, कुछ तो पसंद भी करती हैं कि इसके बाद पति दूसरे दिन अपने अपराध के लिए पिटी औरत के पांव में गिर कर क्षमा मांग लेते हैं। मनाने के लिए बढि़या से बढि़या तोहफे लेकर चले आते हैं। इसलिए इन पिटती हुई औरतों का चीत्कार कभी नाटकीय भी हो जाता है। आने वाले अच्छे दिन की उम्मीद में। साफ बता दिया जाए कि हम इन प्रतिक्रियावादी निष्कर्मो से सहमत नहीं। यह उस पुरुष वर्चस्ववादी समाज की देन है कि जिसमें पुरुषों का सात बीसी सौ माना जाता है और औरत को उसकी पूरी योग्यता के बावजूद एक बच्चा पैदा करने वाली मशीन। लेकिन सवाल इन पुरुष और औरत संबंधों में इस सदियों पुराने दृष्टिकोण का नहीं। औरतों ने 'दूसरों' का नेतृत्व संभाल कर आज चंद्रयान-2 को चांद पर उतार दिया और हमारे भद्र मसीहा उनके साथ होने वाले हर दुष्कर्म में उनकी रज़ामंदी तलाशते रहे। औरतें मौन हो जलती मोमबत्तियों के साथ एक जुलूस में विरोध-प्रदर्शन के लिए निकल आएं तो फरमा देते हैं 'हुजूर किटी पार्टी की लद्दड़ औरतें हैं। आज खाली बैठी थीं, मोमबत्तियां जला कर सड़क पर विरोध करने के लिए निकल आईं।' यानी हर हालत में खरबूजे को कटना है। चाहे वह छुरी पर गिरे या छुरी उस पर।
अब बताइए यहां खरबूजा कौन सा है और छुरी कौन सी? किसी भ्रम में न रहिए कि औरतों को कभी छप्पन छुरी कहा जाता था, इसलिए वही छुरियां हैं और मर्द बेचारे खरबूजे। देखिए जनाब इस देश के मर्दो को खरबूज़ा तो मत समझिए। फिर देश में बारिश के नाम पर बाढ़ आ गई है, इसलिए खरबूज़े किस्म के आदमियों की तो फसलें, जमा जत्था, रोटी राशन सब कुछ बह गया। वह तो आजकल घर की ऊपरी मंजि़ल और दरख्तों की टहनियों पर कैद हो इस राहत का इंतज़ार कर रहे हैं, जो छप्पन छुरी किस्म के सत्ता के दलालों ने हथिया लीं। देखिए कंचन कामिनी का संग साथ शुरू से चला आया है। बाढ़ के दिनों में नेताओं का हवाई सर्वेक्षण हो गया। वह 'स्थिति नियंत्रण में है' का चिर-परिचित जुमला दोहरा कर राजधानी लौट गए। अब अनुदान राशि आती होगी। यह समय कामनियों की तलाश का नहीं, कंचन बटोरने का है। खरबूजों की तलाश छोड़ो और अपनी छप्पन छुरियों को भद्रता के नकाब ओढ़ा कर समाज सेवा के मैदान में लाओ। देखो, अभी स्वच्छ भारत का नारा मंद नहीं हुआ। तुम अपनी भद्रता का नकाब ओढ़ मीडिया का संग साथ ले झाडू़ उठा चौराहे साफ करने निकले थे न, अखबारों के मुख्य पृष्ठों को रंग मिल गया था, चाहे देश के चौराहे कूड़े के डम्प बन गए।
सुरेश सेठ
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