महाराष्ट्र का सियासी संकट: क्या भाजपा के बिछाए जाल से निकल पाएगी शिवसेना?
इस विवाद में उनकी भी कोई भूमिका होनी चाहिए या नहीं।
कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता नहीं है, बल्कि अक्सर तुकबंदी करता है। शिवसेना-कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के गठबंधन यानी महाविकास आघाड़ी (एमवीए) की शुरुआत ही एनसीपी में नाकाम बगावात से हुई थी। ढाई साल बाद इस गठबंधन के संभावित अंत को शिवसेना में बगावत के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। वर्ष 2019 में राकांपा ने शिवसेना के साथ मिलकर भाजपा को मात देकर सत्ता पर कब्जा किया था। उसका बदला भाजपा ने वर्ष 2022 में एकनाथ शिंदे को बहला-फुसलाकर और राजनीतिक बाघ को फंसाकर शिकार किया है।
क्या शिवसेना भाजपा के बिछाए जाल से निकल पाएगी? ऐसा लगता तो नहीं है। हालांकि भाजपा के लिए आगे की राह चुनौतीपूर्ण है। विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा दलबदल पर कानून की व्याख्या और उसके बाद के मामले अनिश्चितता का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। हिंदुत्व के वोट के लिए शुरू हुई यह लड़ाई गुवाहाटी से मुंबई की विधानसभा तक पहुंचने से पहले अब अपेक्षा के अनुरूप ही अदालत में पहुंच गई है और सड़कों पर भी दिख सकती है। महाविकास आघाड़ी (एमवीए) का यह हश्र राजनीतिक दलों के लिए कुछ सबक पेश करता है और ध्यान देने योग्य कुछ सवाल उठाता है। कुछ समय पहले बंगाल चुनाव के बाद भाजपा के खिलाफ एक आम मोर्चा बनाने की बातें हो रही थीं और उसके केंद्र में ममता बनर्जी और शरद पवार थे।
महाराष्ट्र सरकार का पतन एक महागठबंधन की इच्छा और उसके निर्माण के लिए जोखिम प्रबंधन के संबंध में सबक पेश करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा एमवीए गठबंधन के पतन का लाभ उठाएगी-इसके विरोधाभासों और कथित भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण, जो कि अवसरवादी गठबंधनों के खिलाफ विश्लेषण का विषय होगा। राजनीतिक उद्यमिता और अवसरवाद के लिए एमवीए विश्लेषण का विषय है। तीनों दलों का एक साथ आना अटल बिहारी वाजपेयी की इस उक्ति को चरितार्थ करता था-कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। इनमें से हर पार्टी एक दूसरे की कटु आलोचक रही है। मूल रूप से कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए कांग्रेस द्वारा समर्थित शिवसेना ने मुंबई से कांग्रेस को खदेड़ना शुरू किया और 1980 के दशक में हिंदुत्व के मुद्दे पर सवार होकर बड़ी ताकत के रूप में उभरी।
इसका उदय 1988 में कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (एस) के विलय से हुआ, जिससे विपक्ष का स्थान खाली रह गया। कांग्रेस (एस), या पवार कांग्रेस, एनसीपी का पहला अवतार था, जिसका जन्म 1999 में कांग्रेस के 'विदेशी नेतृत्व' के खिलाफ हुआ था। आगे का रास्ता आंदोलन और कानूनी लड़ाई वाला है। भाजपा प्लान ए और बी, दोनों से लैस है। प्लान ए इस उम्मीद पर टिका हुआ है कि वह अपनी पसंद के विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव करने, ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को सदन में विश्वास मत में हराने और देवेंद्र फडणवीस को एक बार फिर डबल इंजन सरकार चलाने के लिए नियुक्त करेगी और देवेंद्र फड़णवीस के बारे में सभी अटकलों को खत्म कर देगी। हालांकि, कुछ समय बाद, पार्टी यह लड़ाई सड़कों पर नहीं लड़ना चाहेगी, क्योंकि इस मामले में शिवसेना की जो पहचान है, उसे देखते हुए वह मुंबई में कानून-व्यवस्था बिगाड़ सकती है। उसके बाद भाजपा का प्लान बी शुरू होगा और वह राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर गुजरात के साथ विधानसभा का चुनाव कराएगी।
कहा जाता है कि प्यार और युद्ध में सब जायज है और भाजपा चाणक्य नीति में माहिर है। हां, राजनीतिक विरोधियों को घेरने के लिए एजेंसियों के इस्तेमाल को लेकर विपक्ष आवाज उठा रहा है। लेकिन तथ्य यह है कि एजेंसियों का इस्तेमाल यूपीए शासन के दौरान भी ठीक-ठाक ढंग से हुआ था। सपा और बसपा, दोनों के नेता इसकी पुष्टि करेंगे। भ्रष्टाचार चाहे जिस भी स्तर पर हो, चाहे वह कथित हो, वास्तविक हो, सिर्फ आरोप हो या साबित हो, विक्रम की तरह बैताल का शिकार करता है। सवाल यह है कि शिवसेना कैसे ऊंघती हुई पकड़ी गई। एक सोच यह है कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि गृह विभाग शिवसेना के पास नहीं था। लेकिन इस तर्क में दम नहीं है।
तथ्य यह है कि शिवसेना और गठबंधन की पार्टियां यहां तक कि सहयोगी मंत्रियों के ऊपर पड़ते छापे को लेकर भी परेशान नहीं थीं। विद्रोहियों ने इससे सबक लिया। उन्होंने अपने बगावत का कारण ढूंढ लिया और उसे सामने रखा। वे जिस तर्क का सहारा ले रहे हैं, वह यह है कि एमवीए हिंदुत्व के मुद्दे को कमजोर कर रहा है। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर गठबंधन के समय ही आपत्ति होनी
चाहिए थी। दूसरा पहलू यह बताया गया कि शिवसेना के भीतर गैर सांविधानिक संस्था के जरिये मंत्रियों की ताकत को अपहृत किया जाता है। ध्यान देने वाली बात है कि मूल रूप से स्वीकृत फैसलों और प्रथाओं को बगावत की शिकायतों में तब्दील कर दिया गया है। देर से की गई प्रतिक्रिया से पता चलता है कि वे चुनाव से दूरी और विरोध के लिए प्रोत्साहन से प्रेरित हैं।
भारत के क्षेत्रीय दल बड़े पैमाने पर परिवार संचालित उद्यम हैं, जो आम तौर पर किसी व्यक्ति की छवि के इर्द-गिर्द निर्मित होते हैं। भारतीय राजनीति की प्रमुख गलती यह है कि राज्यों में शासन करने वाली किसी भी क्षेत्रीय पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। आमतौर पर रणनीतिक निर्णय शीर्ष स्तर पर लिए जाते हैं और निचले कार्यकत्ताओं को विद्रोह के बीज बोने के लिए उपजाऊ जमीन उपलब्ध कराते हैं। मुंबई में सत्ता के इस संघर्ष का राष्ट्रीय स्तर पर असर पड़ने वाला है और यह लोकतंत्र के लिए गंभीर सवाल खड़े करता है। इसकी जड़ में दल-बदल विरोधी कानून की भावना है। यह कहना
दल-बदल विरोधी कानून की भावना को दरकिनार करने के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मॉडल हैं-महाराष्ट्र मॉडल, गोवा मॉडल, मणिपुर मॉडल, अरुणाचल प्रदेश मॉडल। इस कानून की भावना की व्याख्या अलग-अलग राज्यों एवं अदालतों में अलग-अलग ढंग से हुई है। अब जब विद्रोह के बिगुल की ध्वनि मुंबई से दिल्ली तक सुनी जा रही है, यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि जिन मतदाताओं ने जनप्रतिनिधियों को चुना है, इस विवाद में उनकी भी कोई भूमिका होनी चाहिए या नहीं।
सोर्स: अमर उजाला