विरासत छोड़ गए महाराज
कुछ हस्तियां ऐसी होती हैं, जिनके लिए ‘थीं’ की कल्पना नहीं की जा सकती
सोनल मान सिंह, प्रसिद्ध नृत्यांगना और सदस्य, राज्यसभा।
कुछ हस्तियां ऐसी होती हैं, जिनके लिए 'थीं' की कल्पना नहीं की जा सकती। जैसे, एमएस सुब्बुलक्ष्मी, बिस्मिल्ला खां। पंडित बिरजू महाराज भी इसी कद की शख्सियत रहे। ऐसी हस्ती का गुजर जाना भारतवर्ष के कला-इतिहास के लिए बहुत बड़ी क्षति है। यह सच है कि सबको एक न एक दिन जाना ही होता है, लेकिन जो समृद्ध विरासत महाराज जी छोड़कर गए हैं, वह अनुपम है। अद्भुत कला सृष्टि है उनकी। पंडित रविशंकर की तरह बिरजू महाराज के भी हजारों की संख्या में शिष्य-शिष्याएं दुनिया भर में छाए हुए हैं। उनकी प्रेरणा, सिखाने का उनका तरीका, उनका गुरुत्व आदि याद कर यही लगता है कि कला जगत में एक बड़ा बटवृक्ष गिर गया।
पंडित बिरजू महाराज का कला व्यक्तित्व अतुलनीय था। उनकी छटा, उनकी अदाएं, उनके तरीके- अपने लखनऊ घराने को पूरा समेटे हुए थे वह। वह तबला भी बजाते थे, ढोलक भी और पखावज भी। सुस्वर में गाना भी गाते थे। और, नृत्य के कहने ही क्या! बैठकर भी वह बखूबी भंगिमाएं देते थे। जैसे ही वह कत्थक के लिए खड़े होते, यह दिख जाता कि कोई बहुत गुणी कलाकार प्रस्तुति देने जा रहे हैं। उनको हाथ उठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वह चित्र भी बेहतरीन बनाते थे। उनकी सोच का स्तर अद्भुत था। उन्होंने शिष्य-शिष्या नहीं, अपना परिवार बनाया। वह ऐसे गुरु नहीं थे कि शिष्य को सिखा दिया और वह चलते बना। शिष्य-शिष्याओं से वह आत्मीय रिश्ता रखते थे और शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहते थे।
बिरजू महाराज के पास लखनऊ के कालका-बिंदादीन घराने का पूरा खजाना था। उन्होंने कत्थक में कई नृत्यावलियों की रचना की। गोवर्द्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव जैसी नृत्यावलियां लोग मंत्रमुग्ध होकर देखा करते। ठुमरी, पद, गीत, दोहा आदि सबमें उनको महारत हासिल थी। उनके पिता का काफी पहले देहांत हो गया था। उनकी माता जी ने ही उन्हें पाला, संभाला था। गुरुओं और माता-पिता का उन पर इतना आशीर्वाद था कि उन्होंने खूब नाम कमाया। कत्थक को उन्होंने एक गरिमा दिलाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इसे लेकर गए।
मेरा महाराज जी से मित्रवत परिचय 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में हुआ था। तब मेरे जन्मदिन पर मित्रों ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। उसमें बिरजू महाराज भी आए थे। उन्होंने बैठकर गीत गाए और अभिनय भी किया। उनके यही शब्द थे, 'यह मेरी तरफ से सोनल को बधाई है'। इसके बाद निरंतर मेरी मित्रता बनी रही। बहुत ही स्नेह भाव रहा उनका। बेशक पिछले कुछ वर्षों से वह बीमार चल रहे थे, पर उनकी मंडली पूरा ध्यान रख रही थी। इस स्नेह को उन्होंने खुद अरजा था। ऐसे लोगों के गुजर जाने की कतई पूर्ति नहीं हो सकती।
वह 18-20 साल के रहे होंगे, जब उन्होंने दिल्ली में संगीत भारती में शिक्षा देना शुरू किया। उसके बाद उन्होंने भारतीय कला केंद्र में सिखाना शुरू किया। बाद में जब कत्थक केंद्र बना, तो उसमें चले गए। उन दिनों उनके विषय में एक बात काफी प्रचलित थी। तब कहा जाता था कि बिरजू महाराज का घर कहां है, यह भले ही लोगों को पता न हो, लेकिन वह कहां (कत्थक केंद्र में) मिलेंगे, यह सबको मालूम होता था। कत्थक केंद्र में ही महाराज जी घंटों रियाज कराया करते थे। वहां अन्य शिक्षक भी थे, जो अपने-अपने तरीके से बेजोड़ थे। लेकिन महाराज जी का एक अलग कद था। एक तरीका था, सोच थी, सौंदर्यबोध था। कत्थक केंद्र में भी उन्होंने जितने शिष्य तैयार किए, सभी आगे चलकर एक से बढ़कर एक साबित हुए।
मैं भी मुंबई में कॉलेज के उन दिनों को कहां भूल सकी हूं, जब मैंने बिरजू महाराज की दो नृत्य नाटिकाएं देखी थीं। इनमें एक थी, मालती माधव और दूसरी, गीत गोविंदम्। दोनों में महाराज जी नायक थे और कुमुदनी लाखिया नायिका। वे नाटिकाएं आज भी मेरे दिमाग में अंकित हैं। महाराज जी तब युवा थे, लेकिन उनकी कला सृष्टि गहरे अर्थों को समेटे हुए थी।
बाद में, जब मैं दिल्ली आई, तो उनसे मुलाकात का सिलसिला शुरू हो गया। जन्मदिन के आयोजन के साथ जो हमारी मित्रता बनी, वह बाद के वर्षों में मजबूत होती गई। हमने कई शाम अपने-अपने कार्यक्रम एक ही मंच पर दिए। चूंकि मैं अलग विधा की कलाकार हूं और महाराज जी अलग, इसलिए हमने कभी एक साथ प्रस्तुतियां नहीं दीं। वह जुगलबंदी का दौर था भी नहीं। हां, एक ही आयोजन में हमारे अलग-अलग कार्यक्रमों की कई यादें मेरे पास हैं। उनकी एक बड़ी खासियत यह थी कि वह दूसरे कलाकारों के कार्यक्रम को भी चाव से देखा करते थे। इस तरह का बड़प्पन कई कलाकारों में नहीं पाया जाता है। ऐसे कलाकारों में आप भी कुंठाएं आसानी से महसूस कर सकते हैं। वे अपना कार्यक्रम देते हैं और चलते बनते हैं। मगर पंडित बिरजू महाराज शॉल ओढ़कर वहीं बैठ जाते। मेरे कई कार्यक्रम उन्होंने इसी तरह से देखे और बाद में उस पर चर्चा भी की। मेरा मानना है कि दूसरे कलाकारों के साथ भी वह ऐसा ही करते होंगे। वह बिल्कुल खुले मन के थे और खूब स्नेह बांटा करते थे।
उनकी एक और अदा मैं शायद ही भूल पाऊंगी। दरअसल, वह पान मसाला खाने के शौकीन थे। यह सादा पान मसाला होता था, जिसमें तंबाकू वगैरह नहीं होता था। जब हम साथ बैठते, तो मैं तुरंत अपनी हथेली उनके आगे फैला देती, और वह हंसते हुए कहते, हां, मुझे टैक्स तो देना ही होगा। जाहिर है, इस तरह की बहुत छोटी-छोटी बातें भी उनसे जुड़ी हुई हैं, लेकिन ये अपने आप में बहुत बड़ी हैं, क्योंकि ये बताती हैं कि किस तरीके से मित्रता का एक ताना-बाना बनता रहता है। पंडित बिरजू महाराज इस ताने-बाने के धनी थे।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)