कट ऑफ लिस्ट की हद
दिल्ली विश्वविद्यालय की पहली कट ऑफ लिस्ट जारी कर दी गई है। उम्मीदों के मुताबिक दस कोसर्सं के लिए कट ऑफ लिस्ट सौ प्रतिशत रही है।
आदित्य नारायण चोपड़ा: दिल्ली विश्वविद्यालय की पहली कट ऑफ लिस्ट जारी कर दी गई है। उम्मीदों के मुताबिक दस कोसर्सं के लिए कट ऑफ लिस्ट सौ प्रतिशत रही है। इस बार कट ऑफ लिस्ट पिछले वर्ष की तुलना में अधिक इसलिए रहेगी क्योंकि इस बार सीबीएसई बोर्ड की 12वीं परीक्षा के परिणाम कोरोना महामारी के चलते अलग पैटर्न अपना कर घोषित किए गए। 70 हजार से ज्यादा छात्रों ने 95 फीसदी से अधिक अंक हासिल किए हैं। ऐसे छात्रों की संख्या भी पिछले वर्ष की तुलना में ज्यादा है। िपछली बार भी कट ऑफ काफी ऊंची रही थी। इस बार दूसरी कट ऑफ लिस्ट भी ऊंची रहेगी। वहीं जिस तरह सीबीएसई में 90 से 95 प्रतिशत वाले छात्र घटे हैं। इससे अनुमान है कि तीसरी कट ऑफ लिस्ट 95 प्रतिशत को छू जाएगी। तीसरी लिस्ट के बाद ही कट ऑफ गिरने की उम्मीद की जा सकती है। इस बार कट ऑफ लिस्ट भी केवल पांच ही आएंगी।दिल्ली विश्वविद्यालय के 63 कालेजों में 70 हजार सीट हैं, जिनके लिए 4,38,696 उम्मीदवारों ने पंजीकरण कराया है। साफ है कि काफी संख्या में छात्रों को दिल्ली के कालेजों में एडमिशन नहीं मिलेगा और इसमें दिल्ली में रहने वाले छात्र भी होंगे। कालेज में दाखिला लेने के लिए संग्राम छिड़ गया है। सम्भव है कि कट ऑफ लिस्ट के कारण बहुत से छात्रों को मनपसंद के कालेज में अपने फेवरेट सब्जैक्ट में दाखिला न मिले। अब सवाल 85 से 95 प्रतिशत अंक वाले छात्रों के लिए सम्भावनाएं हो सकती हैं लेकिन जिन छात्रों के अंक 85 फीसदी से कम हैं उनका क्या होगा? जहां 95 फीसदी अंक प्राप्त करने वाले कतार में खड़े हो तो फिर कम अंक लेकर पास हुए छात्रों के लिए उम्मीद की कोई किरण कैसे दिखाई देगी। हर कोई चिंतित है। अब इसे एजुकेशन सिस्टम की खामी कहें या बढ़ती प्रतिस्पर्धा का परिणाम। हर राज्य में डोमीसाइल छात्रों के लिए कोटा होता है लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में पूरे देशभर से छात्र आते हैं इसलिए दबाव बहुत बढ़ जाता है। मान भी लिया जाए कि बच्चे काफी मेधावी और मेहनती हैं। अच्छे नम्बर भी लाएंगे लेकिन सवाल उठता है कि क्यों अंकों की यह खुली लूट रटनु शिक्षा को प्रदर्शित कर रही है? कालेज में प्रतिभाओं के इस झुंड ने कोई खोज की? कोई ऐसा आविष्कार किया जिसने देश दुनिया को बदला हो? या फिर कालेेजों की एयर कंडीशंड कैंटीन और कक्षाओं में तीन साल बिताकर और अंग्रेजी सुधार कर विदेश या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में चले गए। देश की सिविल सेवा में गए तो वहां भी कोई कीर्तिमान नहीं बनाया। वहां भी चंद लोगों को छोड़ कर भ्रष्टाचार के रिकार्ड बनाने में लग जाते हैं। संपादकीय :पूरे देश का 'रामबाण' है हैल्थ आईडीचन्नी की चुनौतियां और पंजाबगांधी की विरासत और हमममता का भवानीपुरहैल्थ सैक्टर का विस्तारपंजाब प्रयोगशाला नहीं!जब भारतीय छात्र अन्तर्राष्ट्रीय परीक्षा में बैठते हैं तो देश का नम्बर 76 देशों में फिसड्डी पर आता है। आज 80 फीसदी अंक पाने वाले बच्चाें के पिता भी परेशान हैं और 95 फीसदी अंक पाने वाले बच्चाें के पिता एेसे उदास दिखाई देते हैं जैसे घर लुट गया हो। पिता कहता है थोड़ी और मेहनत कर लेता तो 99 फीसदी ले आता। परीक्षा में नम्बर कम आने की आशंका मात्र से छात्र-छात्राएं आत्महत्या करने लगे हैं।दुनिया को बदल लेने वाले वैज्ञानिक, लेखकों का बचपन और स्कूली दिन कोई ज्यादा अच्छे नहीं रहे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी काे भी मैट्रिक की परीक्षा में 40 फीसदी अंक मिले थे लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अहिंसक आंदोलन चलाकर ब्रिटिश हकूमत को भारत छोड़ कर जाने को विवश कर िदया था। 20वीं सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन को स्कूल में शिक्षक और माता-पिता भी उन्हें बुद्धु समझते थे लेकिन विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद भौतिकी के प्रोफैसर हुए और नोबल पुरस्कार भी जीता। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में योगदान देने वाले प्रोफैसर यशपाल भी अमेरिका में प्रवेश परीक्षा में िवफल रहे थे लेकिन अमेरिकी विश्वविद्यालय ने उन्हें एक माह बाद फिर से मौका िदया। इसमें कोई संदेह नहीं कि समय के साथ-साथ शिक्षा का परिदृश्य बदल गया है। शिक्षा पद्धति में भी काफी परिवर्तन आया है लेकिन एक तरफ दिल्ली में दाखिला नहीं मिलता। जो समृद्ध परिवारों से हैं वे उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र या कर्नाटक कहीं भी दाखिला ले लेते हैं लेकिन जो परिवार आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं, वह अपने बच्चों को प्राइवेट कालेजों में पढ़ाने में सक्षम नहीं हैं। जगत गुरु कहलाने वाले देश के युवा पढ़ने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक समस्याएं हर समाज में होती हैं लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में अमीर और गरीब की खाई बहुत चौड़ी हो चुकी है।भारतीय नौकरशाही की सर्वोच्च परीक्षा 40 फीसदी अंक से काम चला सकती है लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेज नहीं। देश के स्कूल-कालेज झूठ बनाने के कारखाने बन चुके हैं। शिक्षण संस्थान तनाव का कारण बन रहे हैं। दाखिलों के लिए भयानक प्रतिस्पर्धा ने स्थितियों को पेचीदा बना दिया है। इस पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। सौ फीसदी कट ऑफ लिस्ट हद पार चुकी है।