विकास की राजनीति को विरासत का सहारा

यूपी की राजनीति में विकास अकेला नहीं चल पा रहा है

Update: 2021-12-21 05:40 GMT
यूपी की राजनीति में विकास अकेला नहीं चल पा रहा है. इसे धक्का देने के लिए एक नया शब्द लाया गया है विरासत. विरासत अरबी का शब्द है. शायद इसका इस्तेमाल इसलिए हो रहा है ताकि व से विरासत और व से विकास की तुकबंदी हो सके. गौर करने की बात है कि अब विकास रोजगार की बात नहीं करता है. विकास महंगाई से परेशान जनता की बात नहीं करता है. विकास अस्पतालों में डॉक्टरों के ख़ाली पदों की बात नहीं करता है. विकास कस्बों के खस्ताहाल कालेजों और सरकारी स्कूलों की बात नहीं करता है. विकास पेंशन की भी बात नहीं करता है. विकास की बात हो सके इसके लिए भाषणों में विरासत का तड़का दिया जा रहा है ताकि श्रोताओं में ताली बजाने और नारे लगाने का जोश भरा जा सके. क्या विरासत इसलिए ज़ुबान पर है ताकि धर्म का सीधे-सीधे नाम लेने पर चुनावी आचार संहिताओं को ढोना न पड़े. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरासत और विकास की बात करने लगे हैं.
विरासत से ध्यान आया कि भारत में विरासत की इमारतों और स्मारकों के रख-रखाव का काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ASI का है. 2020-21 के बजट में ASI के लिए 1246 करोड़ का बजट प्रस्तावित था लेकिन इसमें संशोधित कर 30 प्रतिशत की कमी कर दी गई. 1246 करोड़ से 860 करोड़ हो गया. क्या आप जानते हैं कि विरासत को संभालने वाले संस्कृति मंत्रालय का बजट कितना है? GDP का 0.0087 प्रतिशत है.
संसद की स्थायी समिति की ही रिपोर्ट है कि जीडीपी के अनुपात में संस्कृति मंत्रालय का खर्च घटता ही जा रहा है. 2020-21 के लिए भारत सरकार का ख़र्च GDP का मात्र 0.0087 प्रतिशत है. इतने कम पैसे में विरासत का विकास कैसे हो सकता है? बिल्कुल हो सकता है, भाषण में कुछ भी हो सकता है. संस्कृति मंत्रालय ने संसद की स्थायी समिति को दिए एक जवाब में कहा है कि 2021-22 के लिए मंत्रालय ने अलग अलग कार्यक्रमों के लिए 3843 करोड़ का प्रस्ताव किया है लेकिन वित्त मंत्रालय ने केवल 2687 करोड़ ही प्रस्तावित किया है.1, 1155 करोड़ कम दिया गया है. 26 जुलाई 2021 को संस्कृति विभाग पर संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट पेश हुई है जिसमें बताया गया है कि इमारतों के रख रखाव के लिए स्टाफ की ज़रूरत होती है लेकिन ASI की दिलचस्पी इन खाली पदों को भरने की नहीं लगती है.
बताया गया है कि ASI में 29 प्रतिशत पद ख़ाली हैं.स्थायी समिति ने पाया है कि दस साल से ASI का अंडर वॉटर विंग बंद पड़ा है. 1947 से आज तक बहुत कम इमारतों को केंद्र की सूची में डाला गया है. 10 प्रतिशत से भी कम. आज ही लोकसभा में सरकार ने बताया है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में मस्टी टास्किंग स्टाफ के 2, 474 पद ख़ाली हैं.
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को बचाकर रखने का काम जिस विभाग का है, उसके पास फंड नहीं है. ऐसी स्थिति में देश के बाकी स्मारकों की क्या हालत हो रही होगी हमें इसका अंदाज़ा नहीं है. मगर यूपी की राजनीति में विरासत का ज़िक्र ASI को बेहतर करने के लिए नहीं बल्कि कुछ विरासतों के ज़रिए धर्म की राजनीति की सेटिंग चमकाने के लिए हो रहा है. भाषणों में इस वक्त सतर्कता बरती जा रही है मगर पोस्टरों में फर्क साफ दिखने लगा है आने वाले दिनों में राजनीति को कहां पहुंचाया जाएगा.
एक पोस्टर में तब और अब का फर्क समझाया गया है. बड़ी-बड़ी तस्वीरों के सहारे बीजेपी अपनी दावेदारी कर रही है. पोस्टर पर कमल का निशान भी है. राम मंदिर का मुद्दा भाषणों और पोस्टरों के सहारे यूपी भर में पसरने लगा है. बीजेपी बहुत तेज़ी से इस दुविधा से बाहर आने लगी है कि विकास अकेला नहीं चल सकता है. उसे मंदिर की ज़रूरत है. काशी और राम मंदिर को विरासत के सहारे विकास के खांचे में फिट किया जा रहा है. मंदिर को विकास में लाकर विकास से रोज़गार को बाहर किया जा रहा है.
मुख्यमंत्री योगी का एक भाषण आठ नवंबर का है जो उन्होंने रामपुर में दिया था. तय करना मुश्किल है कि विरासत की बात योगी ने शुरू की या मोदी ने. लेकिन यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री किन स्थलों और स्मारकों को विरासत की परिभाषा में शामिल करते हैं? विरासत की उनकी परिभाषा में प्राचीन ही क्यों आता है?
काशी में दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए. पढ़े जाने से दिखता है कि किसका ज़िक्र हो रहा है, कैसे ज़िक्र हो रहा है और किसका ज़िक्र नहीं हो रहा है. संस्कृत, हिन्दी और भोजपुरी के मिश्रण वाले इस भाषण में प्रधानमंत्री जिन विरासतों का ज़िक्र करते हैं उनकी विविधता एकरंगी है. एक धर्मी है. प्राचीन है.अरबी के शब्द विरासत की उनकी अवधारणा में ताजमहल, फतेहपुर सीकरी और बड़ा इमामबाड़ा को काशी वाले भाषण में जगह नहीं मिली है क्योंकि उस भाषण में विरासत का मतलब एक कालखंड से है. और उस कालखंड का संबंध उस जेम्स मिल से मेल खाता है जिसने 1817 में The history of british india लिखी और भारत के इतिहास को तीन कालखंडों में बांट दिया था, हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश. उसी विभाजन को आज तक ढोया जा रहा है. जिसे पेशेवर इतिहासकारों ने जाने कब का कंधे से उतार फेंका था.
जेम्स मिल हिन्दू और मुसलमान को असभ्य और अंधविश्वासी मानता था, उसकी खींची लाइन आज तक भारत की राजनीति में झलकती रहती है.भारत के इतिहास को इस नज़रिए से देखना ब्रिटिश इतिहासिकारों की गुलामी के अलावा और क्या हो सकता है. विरासत के नाम से विरासत के ही एक बड़े हिस्से को बाहर किया जा रहा है. विरासत की पहचान एक धर्म की बनाई जा रही है.विपक्ष अपने मुद्दों को रोज़गार और महंगाई के आसपास सीमित रखना चाह रहा है लेकिन धर्म का मुद्दा उसके सामने खड़ा हो जा रहा है.
समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने प्रदेश की भाजपा सरकार पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि चुनाव आते ही भाजपा धर्म का चश्मा लगा लेती है, लेकिन यूपी में जनता अब बदलाव चाहती है.
जिस तरह से प्रधानमंत्री के काशी कार्यक्रम को 55 कैमरों से दर्शनीय बनाया गया उसमें कुछ लोगों का दर्शन नहीं होने को लेकर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने सवाल कर दिया. अगर गंगा में स्नान करना प्रधानमंत्री के लिए ही ज़रूरी था तो बाकी मुख्यमंत्रियों के लिए क्यों नहीं ज़रूरी था? विरासत के उस स्नान से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्यों बाहर रखा गया, बीजेपी के बाकी मुख्यमंत्री ने स्नान क्यों नहीं किया?
विपक्ष इन सब तर्कों से यूपी के चुनावों में जगह बना रही धर्म की राजनीति और उसके नए पुराने मुहावरों को चुनौती दे रहा है लेकिन बीजेपी अपने रास्ते तेज़ी से बढ़ती जा रही है. यूपी में प्राचीन का मतलब साफ है बस गोवा में कुछ और हो जाता है. यहां पर प्रधानमंत्री मिली जुली पहचान की बात करने लगते हैं. काशी के भाषण में मिली जुली का ज़िक्र नहीं आता है.
हाल ही में रोम में प्रधानमंत्री की पोप फ्रांसिस से मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात के समय ही कहा जाने लगा था कि कोई चुनावी मकसद होगा.यह बात भले मज़ाक में कही गई होगी लेकिन गोवा की एक सभा में प्रधानमंत्री ने खुद ही इसका ज़िक्र कर दिया. क्या वे यही बात काशी से नहीं कह सकते थे, क्या काशी की परंपरा में एक ही कालखंड है या अलग-अलग कालखंडों से जुड़ी एक धर्म परंपरा ही है? पोप से मुलाकात का ज़िक्र करने वाले प्रधानमंत्री ने तब कुछ नहीं कहा कि जब धर्मांतरण का आरोप लगाकर मध्य प्रदेश के एक स्कूल पर हमला हुआ, तब भी नहीं कहा कि जब धर्मांतरण के बहाने अब ईसाई संस्थाओं को भी टारगेट किया जाने लगा है.
गोवा के भाषण में भारत की विविधता कुछ और है, काशी के भाषण में भारत की विविधता कुछ और है. क्या वाकई यूपी की जनता बगैर धार्मिक प्रतीकों के विकास के प्रतीकों को नहीं समझ सकती है. उसे अस्पताल के बारे में समझने के लिए राम मंदिर को भी क्यों समझना पड़ता है, उसे आप्टिकल फाइबर को समझने के लिए सोमनाथ मंदिर के सुंदरीकरण को ही क्यों समझना पड़ता है.
कमाल का मिश्रण है. विकास और विरासत का यह डीजे संगीत नया सा लगता है मगर नया है नहीं. प्रधानमंत्री को एक बार राम मंदिर के बिना यूपी के सरकारी अस्पतालों का ज़िक्र करना चाहिए. नए बनने वाले का नहीं, जो इस वक्त चल रहे हैं उनका.जिनके बारे में हमने प्राइम टाइम में दिखाया था. यूपी के कई ज़िलों में इलाज के डाक्टर नहीं हैं. कहीं पांच साल से नहीं हैं तो कहीं दस साल से नहीं हैं. हार्ट का डाक्टर नहीं है. सड़क के बन जाने का मतलब अस्पताल का बनना नहीं होता है, सड़क के बन जाने का मतलब कालेज का बनना नहीं होता है. लेकिन इन सबका ज़िक्र जल्दी जल्दी राम मंदिर और केदारनाथ मंदिर के साथ साथ निपटा दिया जाने लगा है.
विकास के तमाम दावों के बाद भी यूपी में गरीबों की संख्या 15 करोड़ है.यह वो संख्या है जिसे यूपी सरकार महीने में दो बार राशन दे रही है. अब तो तेल, दाल और नमक भी फ्री में दे रही है. विकास के इतने लंबे चौड़े दावों से यह बात साफ नहीं होती है कि आबादी का इतना बड़ा हिस्सा इतना ग़रीब कैसे है. इस योजना के तहत जिस थैले में और जिस पैकेट में चीज़ें दी जा रही हैं उन पर प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी की तस्वीर है. ऐसा लगता है कि दाल और नमक कम, फोटो ज्यादा दिया जा रहा है. 24 करोड़ की आबादी वाले यूपी में 15 करोड़ ग़रीब हैं. क्या यही आत्मनिर्भर वाले विकास का मॉडल है? यूपी में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के करीब 47000 पद खाली हैं. ये जानकारी केंद्र सरकार ने 22 जुलाई को राज्यसभा में दी है. स्मृति ईरानी ने ही बताया है कि देश में भयंकर रूप से कुपोषित बच्चे सबसे अधिक यूपी में हैं. देश में भयंकर रूप से कुपोषित बच्चों का 43 प्रतिशत यूपी में है. इस विकास की बात क्यों नहीं होती है. क्या ये बच्चे हमारी विरासत नहीं हैं. आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कुपोषण से लड़ने में बड़ा रोल होता है. उनकी भी शिकायतें प्रधानमंत्री को सुननी चाहिए.
विरासत के नाम पर जिस तरह से धार्मिक स्थलों को राजनीति के केंद्र में लाया जा रहा है उस पर भी ठीक से बात नहीं हुई है. काशी कोरिडोर के निर्माण के दौरान जिन स्थलों को तोड़ा गया, विस्थापन हुआ, उनका इतिहास क्या था, उनकी विरासत क्या थी? उनके संरक्षण की बात होती है लेकिन जिन सैकड़ों इमारतों को तोड़ा गया क्या वे सभी कहीं बचा कर रखी गई हैं? इसका जवाब किसी के पास नहीं, कुछ लोगों ने इसे लेकर आवाज़ उठाई थी मगर वो आवाज़ अब दफन हो गई है. कोई नहीं जान सकता कि जिन गलियों को तोड़ा गया उससे बनारस कितना अधूरा रह गया है.हमारे सहयोगी अजय सिंह ने बताया कि बीजपी के कार्यकर्ता विश्वनाथ धाम का प्रसाद घर-घर पहुंचा रहे हैं, प्रसाद के साथ कारोडिरो के विस्तारीकरण की पुस्तिका भी दी जा रही है.
अजय ने लिखा है कि विश्वेश्वर पहाड़ी के इलाके में विश्वनाथ कॉरिडोर बना है. इस कारोडिर को बनाने के लिए तकरीबन 400 मकान, 127 से ज्यादा मंदिर देवालय तोड़ दिए गए और विस्थापित किए गए.जिनमें त्रिसंधेश्वर विनायक, करुणेश्वराय मंदिर, गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्थापित आदिसंकट मोचन मंदिर, इंद्रेश्वर महादेव, चिंतामणि शिवजी, स्वर्गद्वारेश्वर महादेव, जौ विनायक, दुर्मुख विनायक, प्रमोद विनायक और नीलकंठ महादेव सहित दो दर्जन से ज्यादा मंदिर काशी खंडोक्त प्रमुख मंदिर आते थे जिन्हें विस्थापित होना पड़ा. ये मंदिर यहां के भवनों के अंदर स्थित थे जैसे संकट मोचन मंदिर भवन संख्या सीके 34/06 में स्थित था. आज इन मंदिरों की जगह पर बड़ी बड़ी बिल्डिंग जिनमें म्यूजियम ,वाराणसी गैलरी , मुमुक्षु भवन , जलपान गृह ,स्प्रिचुअल बुक शॉप ,वैदिक सेंटर ,जैसी 24 बड़ी बिल्डिंगे तामिल हो गई हैं और संकरी गलियों की जगह बड़ा सा आहाता भी तैयार हो गया. जिसमें दावा किया जा रहा है कि उन सर्पीली संकरी गलियों के धक्के से लोगों को निजात मिल गई, पर क्या वाकई ऐसा था क्योंकि ये गालियां संकरी जरूर थीं लेकिन इनका दिल बहुत बड़ा था.इस क्षेत्र की भूल भुलैया वाली गालियों के साथ मुग़ल स्थापत्य कला से लेकर पांच सौ ,छह सौ साल पहले बंद हो चुके दुर्लभ अरघे के डिजाइन वाले शिव मंदिर भी इतिहास के पन्ने में दफ़न हो गए.
काशी में गलियों अब भी बहुत हैं. गोदौलिया से मैदागिन तक के पक्के महाल इलाके गलियों का संसार है. पर काशी में सबसे ज्यादा मंदिर वाला गलियों का इलाका यही था और यही काशी की पहचान थी. क्योंकि मंदिरों के अलावा इस इलाके में जिन इमारतों को ध्वस्त किया गया उसमें लाहौरी टोला इलाके का एक भवन स्व पंडित निष्‍मामेश्‍वर मिश्र का था. पंडित जी को आशुलिपि का जनक माना जाता है. उनकी विकसित की गई प्रणाली हिंदी शॉर्टहैंड के नाम से विख्यात हुई. पंडित जी के घर में ही रह कर देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री ने पढ़ाई की थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्री जी पहली बार वाराणसी आए तो अपने गुरुजी से मिलने लाहौरी टोला पहुंचे थे. इसी इलाके में वो मकान भी ध्वस्त हुवा जिसमे रह कर द्वारा शिकोह संस्कृत सीखा करता था. हिंदी के मशहूर उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की हवेली भी काशी विश्‍वनाथ कॉरिडोर में हमेशा के लिए समा गई. इसी हवेली में खत्री जी ने 'चंद्रकाता सन्तति ' तो उनके भाई दुर्गा प्रसाद ने 'भूतनाथ'उपन्‍यास लिखा. एक समय उनका प्रेस भी यहीं हुआ करता था.विश्वनाथ मंदिर के पास ही आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सरस्‍वती देवी की प्रतिमा थी. जिसकी वजह से वो जगह सरस्वती फाटक के नाम से मशहूर हुई. गंगा के किनारे स्थित गोयनका लाइब्रेरी भवन भी कॉरिडोर समा गया.
जो विस्थापित हुआ है और तोड़ा गया है उसकी सूची बहुत लंबी है. हमने तो कुछ का ही नाम लिया. लेकिन एक प्राचीन शहर काशी का इतना बड़ा हिस्सा टूटा क्या आपने उसके ऐतिहासिक महत्व को लेकर कहीं गंभीर चर्चा देखी? बेशक कुछ जगहों पर गंभीर लेख छपे हैं मगर क्या यह अफसोस की बात नही है कि काशी कोरिडोर को धर्म की राजनीति के हवाले कर दिया गया, उसकी विरासत पर चर्चा ही नहीं हुई.
हम नहीं जानते कि विश्वनाथ धाम कारिडोर में जो तोड़ा गया, जिसे विस्थापित किया है उसमें विरासत का कितना लंबा इतिहास था. काशी कोरिडोर के लोकार्पण के बाद यूपी के 32 मेयरों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने ठीक वही कहा जो सवाल हम उठा रहे हैं. इस भाषण में वे बिल्कुल सही बात कर रहे हैं कि इतिहास को बचाए रखते हुए भी विकास हो सकता है लेकिन क्या बनारस में ऐसा हुआ?
दुनिया भर के देशों में पुराने शहरों को किस सावधानी के साथ बचाकर रखा गया है ताकि इतिहास आज भी जस का तस लगे. उन शहरों में कुछ भी पुराना टूटता है तो सारा शहर सड़क पर आ जाता है, बहस शुरू हो जाती है. यही कारण है कि उनके पुराने स्वरूप को देखने के लिए आज भी दुनिया भर के लोग जाते हैं. एक दीवार इटली के फेरारा शहर की है. 1600 में इस दीवार का संरक्षण किया गया तब से आज तक इसी तरह है. इसके भीतर पुराना शहर उसी शक्ल में बसा हुआ है. यहां 1800 के आस पास की स्ट्रीट लाइट अब भी है. बिना सरकार की इजाज़त के लोग अपने घरों में काम नहीं करा सकते, यह नियम इसलिए है ताकि शहर की इमारतों के पुराने स्वरूप से कोई छेड़छाड़ न हो. समय समय पर चेकिंग होती है कि पुराने स्वरूप में कोई बदलाव तो नहीं हुआ. हमें एक वीडियो आकांक्षा से मिला है. आकांक्षा ने बताया कि इस शहर में ऊंची इमारतें नहीं बन सकतीं. बनेंगी तो पुराना शहर खो जाएगा. विश्व युद्ध के समय की इमारतें भी जस की तस बची हुई हैं. जो इमारतें रहने लायक नहीं हैं उन्हें दुकान में बदल दिया गया है ताकि इमारत का इस्तेमाल होता रहे. पत्थरों से बने पुराने रास्तों को बचाकर रखा गया है और काशी में मॉल की तरह के विकास के लिए न जाने इस तरह कितनी ही प्राचीन इमारतें तोड़ दी गईं किसी ने परवाह तक नहीं की.
विकास की राजनीति को विरासत का सहारा चाहिए, और विरासत है कि बेसहारा अपने विकास के लिए राजनेता ढूंढ रहा है जो उसके महत्व को केवल धर्म के नज़रिए न समझे. आप भी कितना समझेंगे.
क्रेडिट बाय ndtv
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