ममता दी के लिए यही सबसे बड़ी चिन्ता की बात है क्योंकि राज्य विधानसभा चुनावों में पहली बार वह ऐसे किसी नये विकल्प से टकरायेंगी जिसकी राज्य में पुराने रिकार्ड के नाम पर 'सलेट' पूरी तरह कोरी है। क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा के केवल तीन विधायक ही जीत पाये थे। अतः आने वाले चुनाव प. बंगाल के इतिहास में अभूतपूर्व मायने रखते हैं क्योंकि भाजपा अपने संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की लाख कोशिशों के बाद भी स्वतन्त्र भारत में समाहित प. बंगाल में कोई कमाल नहीं दिखा सकी थी। भाजपा की उम्मीद पिछले 2019 में हुए लोकसभा चुनावों से बन्धी है जब इसने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 18 जीत कर रिकार्ड कायम किया था। यह ममता दी के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं था और अब भाजपा इसी घंटी की आवाज को विधानसभा चुनावों में और ज्यादा तेज करने पर आमादा दिखाई पड़ती है।
राज्य में भाजपा जनाधार (वोट बैंक) के जो नये राजनीतिक समीकरण गढ़ रही है उसके अनुसार पहली बार आदिवासी समाज से लेकर अऩुसूचित जाति आदि का वर्ग अपनी पहचान के साथ उठ रहा है। प. बंगाल के मतदाताओं में इस वर्ग का 27 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है जो 30 प्रतिशत अल्पसंख्यक मतदाताओं के प्रभाव को उदासीन बनाने की क्षमता रखता है, जबकि अल्पसंख्यक समाज ममता दी का बहुत बड़ा समर्थक माना जाता है, परन्तु प. बंगाल की धरती पर राजनीति का केन्द्र ऐतिहासिक रूप से सैद्धान्तिक रहा है और ममता दी को उम्मीद है कि राज्य की जनता अपने इस चरित्र को आसानी से नहीं छोड़ेगी, परन्तु 2019 के लोकसभा चुनावों में यह हो चुका है जिसकी वजह से भाजपा के नेता जोश से भरे हुए लगते हैं, हालांकि इन चुनावों में राष्ट्रवाद का कार्ड सफलतापूर्वक चलने की असली वजह केन्द्र में एक मजबूत सरकार के गठन के लिए दिया गया वोट माना गया था जिसका प्रतिनिधित्व प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को केन्द्र में रख कर रहे थे। विधानसभा चुनावों में भाजपा राज्यव्यापी हिंसा के वातावरण को एक प्रमुख मुद्दा बनाना चाहती है जिसकी तसदीक दिनेश त्रिवेदी ने भी अपने त्यागपत्र की घोषणा करते हुए की है, जिसका तार्किक निष्कर्ष श्री त्रिवेदी के भाजपा में शामिल होने से ही सामने आयेगा परन्तु ममता दी की सरकार के दो मन्त्री सुवेन्दु अधिकारी व राजीव के अलावा सात विधायकों का भाजपा में शामिल होना बताता है कि भाजपा सतही तौर पर राज्य की हवा ममता दी के खिलाफ बहाने मंे सफल हो रही है, परन्तु इसे स्थायी रूप तभी मिलेगा जब भाजपा के पक्ष में अनुसूचित जातियों व आदिवासियों का समूर इकतरफा गोलबन्द हो जायेगा। यह कार्य थोड़ा दुष्कर जरूर है मगर असंभव नहीं है क्योंकि कूच बिहार के 'राजवंशियों' को भाजपा की केन्द्र सरकार के नये नागरिकता कानून से इसलिए परहेज है कि असम राज्य में बने नागरिकता रजिस्टर से इस समुदाय के बहुत से लोग बाहर रह गये हैं जबकि दूसरे अनुसूचित जाति के 'मथुआ' समाज के लोग नागरिकता कानून को चाहते हैं क्योंकि भारत के बंटवारे के बाद से प. बंगाल में रहने के बावजूद वे नागरिकता से वंचित हैं।
जाहिर है कि दिनेश त्रिवेदी जैसे घाघ राजनीतिज्ञ को इन सब पेचीदा मुद्दों की अच्छी जानकारी होगी और सभी पक्षों का जायजा लेते हुए ही उन्होंने तृणमूल की तरफ से दी गई राज्यसभा की सदस्यता छोड़ने का मन बनाया होगा। यूपीए की दूसरी सरकार में ममता दी ने जब अपने मनपसन्द रेलमन्त्री मुकुल राय को हटाया था तो उनके स्थान पर श्री त्रिवेदी को ही डा. मनमोहन सिंह से रेलमन्त्री बनाने की सिफारिश की थी। यह काम तब हुआ था जब श्री मुकुल राय संसद मे रेल बजट पेश कर चुके थे। अतः रेल बजट पर चली चर्चा का जवाब दिनेश त्रिवेदी ने दिया था। इस घटना से ममता दी के कड़क व्यक्तिवादी अन्दाज का पता भी चलता है। अतः जब श्री त्रिवेदी यह कह रहे हैं कि उनका प. बंगाल की स्थिति देखकर दम घुट रहा है और पार्टी में रहते हुए उन्हें घुटन महसूस हो रही है तो अर्थ निकलता है कि ममता दी को भी उदार लोकतन्त्र की भावना के साथ अपनी पार्टी को चलाना चाहिए। वरना फिर रोज किसी 'भूस्खलन' के लिए तैयार रहना चाहिए।