सुपर पावर अमेरिका की बात करें तो इस्राइल से उसकी करीबी किसी से छिपी हुई नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो यहां तक कह दिया कि इस्राइलियों को आत्मरक्षा का अधिकार है। फ्रांस, कनाडा, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, कोलम्बिया, साइप्रस, जार्जिया, हंगरी, इटली समेत 25 देश इस्राइल के साथ खड़े थे। युद्धविराम के बावजूद इस्राइल और हमास अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। हमास कह रहा है कि उसने इस्राइली हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया, जबकि इस्राइल ने कहा कि उसने हमास के सैकड़ों लड़ाकों को मार गिराया। वास्तविकता यही है कि इस लड़ाई में असली शिकार दोनों पक्षों के आम नागरिक ही बने। हमास ने 253 फिलिस्तीनी नागरिकों के मारे जाने की बात स्वीकारी, जिनमें 65 बच्चे हैं। करीब 200 लोग जख्मी हुए। दूसरी तरफ इस्राइल के 12 नागरिक मारे गए जिनमें एक सैनिक और एक बच्चा है। 11 दिन की लड़ाई में इस्राइल ने फिलिस्तीन में जो भव्य बहुमंजिला इमारतें गिराईं और बुनियादी सुविधाओं को नुक्सान पहुंचाया, उससे आम नागरिकों का जीवन दुश्वार होगा। कई रिहायशी इलाके खंडहरों में तब्दील हो गए। इस्राइल को भी इस बात का अहसास हो गया कि हमास ने जिस तरह से इस्राइली शहरों पर राकेटों से हमला किया, उससे उसकी बढ़ती ताकत का पता चलता है। हमास को सैन्य मदद देने वालों की भी कोई कमी नहीं। इस्राइल एक सैन्य शक्ति है लेकिन इसके बावजूद हमास पर निर्णायक जीत निकट भविष्य में सम्भव नहीं और आयरन डोम सुरक्षा के बावजूद उसके नागरिक पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। जिस तरह से मीडिया हाउसों के कार्यालयों वाली इमारत को निशाना बनाया गया, उससे भी मीडिया जगत में इस्राइल के खिलाफ रोष है। इस्राइल द्वारा आम नागरिकों और बच्चों को निशाना बनाना भी मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है। फिलिस्तीनियों के खिलाफ इस्राइली आक्रामकता अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खतरनाक उल्लंघन है।
इस्लामिक राष्ट्र इस्राइल को एक अवैध मुल्क मानते हैं, जिसने फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा किया हुआ है। इस्राइल और फिलिस्तीन विवाद वर्षों पुराना है। अगर युद्ध विराम नहीं होता तो वही ताकतें इसमें कूद पड़तीं और तीसरे विश्व युद्ध की नींव पड़ने में देर नहीं लगती। कोरोना महामारी के बीच युद्ध की लपटें हजारों बेकसूरों को लील जातीं। मामला इसलिए भी गर्माया कि अल अम्सा मस्जिद में इस्राइली कार्रवाई रमजान के दौरान की गई। सुन्नी बहुल देशों में इस्राइल के प्रति काफी आक्रोश है। स्थिति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि यह लड़ाई इस्राइली प्रधानमंत्री बेजामिन नेतन्याहु ने इसलिए की ताकि वह अपनी गद्दी बचा सकें। इस लड़ाई का सबसे ज्यादा फायदा उन्हें ही हुआ। क्योंकि नेतन्याहु सदन में बहुमत खो चुके थे। अब वह अगले चुनाव तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे।
नेतन्याहु लम्बे समय से राजनीतिक उथल-पुथल और भ्रष्टाचार के आरोपों से निपटने के लिए उग्र राष्ट्रवाद का सहारा ले रहे हैं। नेतन्याहु अभी भी निर्णायक लड़ाई की बात कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दोनों के बीच लड़ाई रोकने के लिए नेतन्याहु पर दबाव डाला। अगर जंग नहीं रुकती तो बाइडेन की उदारवादी छवि को नुक्सान पहुंच सकता है। इस समय गाजा के 11 लाख लोगों के पास पीने को पानी नहीं, बिजली और टॉयलेट जैसी सुविधाएं नहीं, ज्यादातर स्कूल ध्वस्त हो चुके या बंद हो चुके हैं। 6 लाख बच्चे शिक्षा से वंचित और घरों में कैद हैं। 40 किलोमीटर लम्बी गाजा पट्टी में शांति के लिए अमेरिका को पहल करनी होगी। अमेरिका को कुछ समय के लिए अपने स्वार्थों को किनारे कर कुछ करना पड़ेगा और विवाद का हल निकालना होगा।