भले ही रावत पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं, पर उनकी रुचि उनके गृह प्रदेश उत्तराखंड (Uttarakhand) और पंजाब (Punjab) तक ही सीमित है. उत्तराखंड और पंजाब उन पांच राज्यों में है जहां कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाला है. रावत के लिए उत्तराखंड ज़रूरी है और पंजाब मजबूरी. रावत की चाहत है कि वह एक बार फिर से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनें और पंजाब उनकी मजबूरी है, क्योंकि उनके भरपूर प्रयासों के बाद भी प्रदेश में कलह ख़त्म नहीं हुआ है. अगर चर्चा सिर्फ आगामी लोकसभा चुनाव (2024 LokSabha Chunav) के बारे में ही थी तो रावत वहां नहीं होते.
पीके के पास कौन सा फार्मूला है?
पीके एक प्रोफेशनल हैं जिन्हें चुनाव जीतने के लिए सटीक रणनीति बनाने के लिए जाना जाता है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत और तमिलनाडु में डीएमके की सफलता के बाद पीके का कद और भी बढ़ गया है. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में भी वह अमरिंदर सिंह के सलाहकार की भूमिका निभा चुके हैं. दरअसल पीके अब आधिकारिक तौर पर अमरिंदर सिंह के प्रमुख सलाहकार नियुक्त किये गए हैं, लगता तो ऐसा ही है कि वह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, जिन्हें कांग्रेस पार्टी का आलाकमान कहा जा सकता है, के पास विवाद सुलझाने का कोई अचूक फार्मूला ले कर आये होंगे.
इतना तो तय है कि पीके यह कभी नहीं चाहेंगे कि बागी नेता और पूर्व मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस पार्टी छोड़ कर किसी अन्य दल में शामिल हो जाएं. पीके की रणनीति हमेशा बड़े नेताओं की छवि के इर्दगिर्द ही घूमती है. वह किसी नेता की छवि बनाने में विश्वास रखते हैं, जिसके नाम पर जनता उस नेता की पार्टी से जुड़ जाए. अमरिंदर सिंह के मुकाबले भले ही सिद्धू अभी उतने बड़े नेता नहीं बने हों, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि सिद्धू अमरिंदर सिंह के बाद पंजाब कंग्रेस के दूसरा सबसे बड़ा नाम और लोकप्रिय नेता हैं.
यानि अगर पीके को पंजाब में कांग्रेस पार्टी की जीत सुनिश्चित करनी है तो उन्हें अमरिंदर सिंह और सिद्धू दोनों की जरूरत होगी. माना जा सकता है कि गांधी परिवार के दो सदस्यों से मिलने के पहले पीके अमरिंदर सिंह से सिद्धू के बारे में बात करके ही आये होंगे.
पीके के पास ऐसा कौन सा फार्मूला है जिससे अमरिंदर सिंह और सिद्धू के बीच कटु रिश्ते का अंत हो जाएगा उस बारे में सिर्फ आंकलन ही किया जा सकता है. अगर रावत की माने तो अगले दो-तीन दिनों में पंजाब समस्या का अंत हो जाएगा. और अगर ऐसा पीके के आने के बाद होता है तो सवाल यह भी उठ सकता है कि आखिर पीके का पंजाब फार्मूला है क्या जिसके बारे में कांग्रेस पार्टी पिछले दो-तीन महीनों मे सोच भी नहीं पायी.
पीके की सलाह पर ही सिद्धू को कांग्रेस में लाया गया था
अभी हाल ही में अमरिंदर सिंह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले थे और उससे कुछ दिन पहले सिद्धू की मुलाकात प्रियंका और राहुल गांधी के साथ हुई थी. पर समस्या का कोई समाधान नहीं दिखा. पीके और सिद्धू का संबंध पुराना है. 2017 में पीके की सलाह पर ही बीजेपी छोड़ने के बाद सिद्धू को कांग्रेस पार्टी में शामिल किया गया था, जबकि तैयारी सिद्धू के आम आदमी पार्टी में शामिल होने की चल रही थी. यह तो नहीं कहा जा सकता कि सिद्धू के आने से ही कांग्रेस पार्टी चुनाव जीती थी, पर चुनाव जीतने में पीके का सिद्धू को कांग्रेस पार्टी में लाना महत्वपूर्ण जरूर साबित हुआ था.
निःसंदेह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ पीके की मंगलवार की बैठक में चर्चा 2024 के लोकसभा चुनाव की भी हुई होगी. पंजाब में कांग्रेस पार्टी की जीत कांग्रेस पार्टी और पीके के लिए अतिमहत्वपूर्ण है. पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से पीके केंद्र में बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को इकट्ठा करने के प्रयास में जुटे हैं. इस संदर्भ में उनकी मुलाकात तीन बार एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार से हो चुकी है. हालांकि पवार के घर पर पिछले महीने विपक्षी दलों के नेताओं की हुई एक बैठक में कांग्रेस पार्टी को आमंत्रित नहीं किया गया था, पर उस मीटिंग के बाद पवार, पीके और शिवसेना सभी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी के बिना विपक्ष का गठबंधन संभव नहीं है.
क्या कांग्रेस आलाकमान अब अपने बलबूते पर पार्टी के आंतरिक कलह को भी दूर नहीं कर सकती
जिन पांच राज्यों में अगले वर्ष की शुरुआत में चुनाव होने वाला है, उसमें से चार में बीजेपी की सरकार है और सिर्फ पंजाब ही एकलौता ऐसा प्रदेश है जहां विपक्ष (कांग्रेस) की सरकार है. पंजाब में कांग्रेस पार्टी की पराजय से 2024 चुनाव की मुहिम को झटका लग सकता है. अब उम्मीद की जा सकती है कि पीके की एंट्री के बाद पंजाब में सिद्धू बनाम अमरिंदर सिंह की लड़ाई पर युद्धविराम लग जाएगा. पर इसे दुर्भाग्य या पार्टी नेताओं का मानसिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है, अगर कांग्रेस पार्टी को आतंरिक कलह सुलझाने के लिए किसी बाहरी व्यक्ति (पीके) की मदद लेने की आवश्यकता पड़े. साथ ही साथ, यह भी साफ हो गया है कि कांग्रेस आलाकमान में निर्णय लेने की क्षमता लुप्त हो गयी है, जिसे पंजाब की समस्या ने उजागर कर दिया है.