आईपीसीसी की रिपोर्ट : वर्तमान के चक्रव्यूह में फंसा भविष्य

अफगानिस्तान की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के दुश्चक्र में उलझी दुनिया में एक भयावह और जरूरी समाचार कहीं दबकर रह गया। यह जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट के प्रकाशन से संबंधित खबर थी

Update: 2021-08-26 06:42 GMT

वीर सिंह। अफगानिस्तान की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के दुश्चक्र में उलझी दुनिया में एक भयावह और जरूरी समाचार कहीं दबकर रह गया। यह जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट के प्रकाशन से संबंधित खबर थी, जिसने हमारे पैरों तले की जमीन खिसका दी। अब दुनिया ने अपने अनुभवों के आधार पर जान लिया है कि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता है और इसके खतरे इतने भयावह हैं कि दुनिया का भविष्य मानव-विहीन हो सकता है। अब इसके समाधान के लिए राष्ट्रीय सरकारों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक को मिलकर ठोस कार्य करने होंगे।

आईपीसीसी ने वर्षों पूर्व स्पष्ट कर दिया था कि जलवायु परिवर्तन की जड़ों में मानव कार्यकलाप है। इसलिए किसी को पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के साथ मनमानी करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता, चाहे वह कोई देश हो, सरकार हो, कंपनी हो अथवा लोगों का कोई समूह या कोई व्यक्ति ही क्यों न हो। इसलिए विधि-विधान, शिक्षा-दीक्षा, संरक्षण संबंधी प्रयोगों के माध्यमों से ही दुनिया के जलवायु चक्र को पुनः नियमित करने के कार्यक्रमों में जुटा जा सकता है। व्याकुल कर देने वाली गर्मी, उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक धरती के दहकते जंगल, पर्वत चोटियों का हिम-विहीन होते जाना, आर्कटिक के हिम का पिघलना, अंटार्कटिका के हिम का क्षरण, अत्याधिक वर्षा और उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के कारण विनाशकारी बाढ़ें आदि सब जलवायु परिवर्तन के सूचक हैं।
आईपीसीसी की रिपोर्ट हमें डराने के बजाय भविष्य की चिंता करने का आग्रह कर रही है। वर्ष 2040 तक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जा रहा है। यह अनुभव करते हुए, कि 1880 के दशक से केवल 1.09 डिग्री सेल्सियस की वर्तमान औसत तापमान वृद्धि पर ही दुनिया बड़े पैमाने पर विनाश देख रही है, तो हमें यह समझना होगा कि यह चेतावनी कितनी गंभीर है। आईपीसीसी रिपोर्ट में चिंता प्रकट की गई है कि आने वाले वर्षों में कार्बन सिंक (कार्बन को सोखने वाले स्रोत) की सापेक्ष दक्षता में कमी आएगी। महासागर, मिट्टी और वन कार्बन के प्रमुख सिंक हैं। हमारे द्वारा उत्सर्जित कार्बन का 50 फीसदी ये अवशोषित कर लेते हैं। यदि ये न होते तो हम कदाचित पिछली शताब्दी में ही 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान को पार कर चुके होते और आज कितनी भयावह स्थिति का सामना कर रहे होते, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
महासागरों के बढ़ते प्रदूषण, वनों के सिमटने और मिट्टी के क्षरण और प्रदूषण तथा कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि के कारण धरती के प्राकृतिक कार्बन सिंकों की क्षमता धीरे-धीरे चुक रही है। आईपीसीसी की रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि वर्तमान दर से जारी कार्बन उत्सर्जन के चलते हम धरती के नैसर्गिक सिंकों पर निर्भर नहीं रह सकते। अतः हमें देशों की 'नेट जीरो' योजना पर पुनर्विचार करना होगा। नेट जीरो योजना का का अर्थ है उतने ही कार्बन का उत्सर्जन, जितना प्राकृतिक सिंक अवशोषित कर सकें। आईपीसीसी के निष्कर्षों के मुताबिक, प्राकृतिक सिंक अपने चरम बिंदु पर पहुंच चुके हैं तथा कार्बन अवशोषित करने के लिए नए सिंक तैयार करने होंगे, जिसके लिए धरती पर बड़े स्तर पर वृक्षारोपण करना होगा, उजड़े वनों का पारिस्थितिक पुनरुत्थान करना होगा, कृषि भूमि की मिट्टियों की उर्वरा शक्ति बढ़ानी होगी तथा समुद्रों, झीलों और नदियों को प्रदूषण मुक्त करना होगा।
आईपीसीसी की रिपोर्ट से दुनिया की आंखें खुल जानी चाहिए। अब हम और समय नहीं गंवा सकते। इन बहानों में 2050 तक जीरो कार्बन उत्सर्जन के ख्याली पुलाव भी सम्मिलित हैं। यही समय है कि हम गंभीर हो जाएं और धरती के घाव भरने के काम में जुट जाएं। एक शुभ समाचार यह है कि जीवाश्म ईंधन से संचालित औद्योगिक प्रणालियों और वाहनों के लिए वैकल्पिक और नवीनीकरणीय ऊर्जा स्रोत उपलब्ध हैं, लेकिन उनके समुचित और बड़े स्तर पर उपयोग होने में बहुत देर हो रही है। निकट भविष्य में ग्रीनहाउस गैसों में त्वरित वृद्धि होनी निश्चित है। दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं कोविड-19 महामारी से ग्रस्त हैं। जैसे ही महामारी की मार कम होगी, ये अर्थव्यवस्थाएं द्रुत गति से दौड़ेंगी और नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के लिए प्रेरित होंगी। इसके लिए कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के बढ़े उपयोग से धरती की तपन बढ़ाने वाली गैसों के वायुमंडल में अंबार लग जाएंगे।
दुनिया में 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 40-50 प्रतिशत कम करने और 2050 तक इसे शून्य तक पहुंचाना अनिवार्य है, जैसा कि पेरिस जलवायु समझौते में व्यवस्था है। लेकिन इन लक्ष्यों को पा लेना असंभव-सा प्रतीत होता है, क्योंकि दुनिया का ध्यान आर्थिक प्रगति की गति बढ़ाने पर केंद्रित है, जहां प्राथमिकता जंगल काटकर आधारभूत संरचनाएं खड़ी करने, हवाई यात्राओं का नेटवर्क बढ़ाने आदि की है, न कि कार्बन सिंक के प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण और विस्तार की। जलवायु परिवर्तन में शीर्ष योगदान मुट्ठी भर देशों का है। चीन और अमेरिका एक साथ मिलकर दुनिया के वार्षिक उत्सर्जन के आधे हिस्से के बराबर योगदान करते हैं। वैश्विक गर्माहट और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर हमें भारत की चर्चा भी करनी चाहिए।
हम भी किसी से पीछे नहीं! वर्ष 1870 से 2019 के बीच वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड बजट में भारत की हिस्सेदारी लगभग तीन फीसदी है। चीन 10 गैगा टन और अमेरिका पांच गैगा टन उत्सर्जित करता है, जबकि भारत प्रतिवर्ष केवल लगभग 2.6 गैगा टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है। यानी दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषकों की तुलना में हमारा योगदान कम है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत को कोई कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। वास्तव में, जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई के मोर्चे पर भारत को वैश्विक नेतृत्व प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। जलवायु न्याय सबके लिए चाहिए, सबके द्वारा चाहिए। इसी सद्भावना से दुनिया का भविष्य सुरक्षित रहेगा। भारत में वैश्विक नेतृत्व की असीम संभावनाएं हैं। भारत जैवविविधता का एक हॉटस्पॉट है। भारत अरण्य संस्कृति का धनी भी रहा है। जलवायु प्रणाली को जीवनाकूल बनाना हमारे अपने हित में भी है।


Tags:    

Similar News

-->