भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की दृढ़ता सबका ध्यान खींचने लगी है। भारत इन दिनों जिस भाषा या भाव में बात कर रहा है, उसे वास्तव में ऐसा ही करना चाहिए। एक स्थिर लोकतंत्र, विशाल आबादी और खुले बाजार वाले भारत को जो लाभ मिलने चाहिए, वे अभी तक नहीं मिले हैं। विदेश मंत्री की दृढ़ता न केवल लाभ दिला सकती है, बल्कि भारत की रक्षा पंक्ति को भी मजबूत कर सकती है। दरअसल, भारत की विदेश नीति वही है, जो पहले थी, लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं और पश्चिम के देश कमजोर जमीन पर खड़े हैं। कुछ देशों का पक्षपात भारत ही नहीं, पूरी दुनिया झेलती आ रही थी, लेकिन अब ऐसे पक्षपाती देशों की नीतियां औंधे मुंह ढहने लगी हैं। ऐसे पक्षपाती देशों की नसीहत पहले हम सुन लेते थे, लेकिन अब कोई जरूरत नहीं है कि उनके कुतर्कों को सुना जाए या ऐसी नसीहतों को सुना जाए, जिस पर स्वयं पश्चिम के देश नहीं चल रहे हैं। विदेश मंत्री ने उचित ही कहा है कि भारत अपनी शर्तों पर दुनिया से रिश्ते निभाएगा और इसमें उसे किसी की सलाह की जरूरत नहीं है।
रायसीना डायलॉग में उन्होंने बहुत गहरी बात कही है कि वे कौन हैं समझकर दुनिया को खुश रखने की जगह, हमें इस आधार पर दुनिया से रिश्ते बनाने चाहिए कि हम कौन हैं! दुनिया हमारे बारे में बताए और हम दुनिया से मंजूरी लें, वह दौर खत्म हो चुका है। लगे हाथ उन्होंने यह भी कह दिया कि अगले 25 वर्षों में भारत वैश्वीकरण का केंद्र होगा। यह संकल्प वाजिब है, लेकिन इसे साकार करने के लिए बुनियादी रूप से हमें मजबूत होना पडे़गा। अर्थव्यवस्था की ज्यादा चिंता करना जरूरी है। जब हमारे यहां पर्याप्त निवेश होगा, भरपूर रोजगार होगा, तो अपने आप हमारे सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ोतरी होगी। वैसे ऐसे सपने अनेक नेताओं ने पहले भी भारतवासियों को दिखाए हैं, लेकिन वास्तव में भारत अपने यहां आतंकवाद, अशिक्षा और गरीबी जैसी समस्या का मुकम्मल समाधान नहीं कर पा रहा है। दुनिया में भारत को एक सशक्त देश के रूप में देखा जाए, इसके लिए आत्मनिर्भरता भी बहुत जरूरी है। आत्मनिर्भरता ही हमें वैश्वीकरण के केंद्र में लाएगी। अत: विदेश मंत्री की सोच की दिशा बिल्कुल सही है, वह व्यापकता में सोच रहे हैं कि किस चीज में हम विफल रहे हैं? अपनी विफलताओं का वाजिब अध्ययन ही हमें विकास की ओर तेजी से ले जाएगा।
इन दिनों यूरोपीय देश आए दिन भारत को सलाह दे रहे हैं कि वह रूस के साथ और व्यापार न करे। नए भारत के विदेश मंत्री अब बार-बार यह इशारा कर रहे हैं कि भारत को किसी से सलाह लेने की जरूरत नहीं है। उन्होंने चीन का नाम लिए बगैर बिल्कुल सही सवाल उठाया है कि यूरोप उस वक्त असंवेदनशील क्यों हो गया था, जब एक देश एशिया को धमका रहा था? वास्तव में, यह यूरोप के लिए जागने का समय है कि वह एशिया की ओर देखे। एशिया में भी अस्थिर सीमाएं और आतंकवाद जैसी समस्याएं खतरा बनी हुई हैं। पश्चिमी देश एशियाई देशों को केवल सलाह देकर काम चलाते आए हैं। जो देश सैन्य ताकत पर भरोसा करते हैं, वे भी भारत या एशिया के देशों को परस्पर वार्ता से विवाद सुलझाने की नसीहत देते हैं, जबकि परोक्ष रूप से विवादों की ओर से आंख मूंदकर सबके लिए समस्याएं बढ़ाते हैं। अब बदले हुए हालात में पश्चिमी देशों को भारत की जायज चिंताओं पर गौर करना ही होगा और इसकी शुरुआत शायद हो चुकी है।
क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान