प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को देश तथा किसानों से माफी मांगते हुए वापस लेने का फैसला कर दिया है, पर फिर भी किसान संगठन प्रधानमंत्री जी की बात पर विश्वास नहीं कर रहे। उनका मानना है कि जब तक यह बिल संसद में निरस्त नहीं होते, तब तक वे आंदोलन बंद नहीं करेंगे। इसके अलावा किसानों की मांगें कुछ और भी बढ़ गई हैं, जैसे एमएसपी की गारंटी तथा आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों के परिवारों को मुआवजा देने की बात आदि। यह तो खैर हमारा आंतरिक मसला है जिसे समय के साथ सुलझा लिया जाएगा, पर आज जो सबसे बड़ी चिंता है, वह है चीन की विस्तारवादी सोच तथा कृत्य पर अंकुश लगाना। अगर विश्व के सभी मुल्कों की हैसियत की बात की जाए तो आज चीन आर्थिक तौर पर सबसे सशक्त देश बनकर उभर रहा है और चीन चाहता है कि वह आने वाले समय में विश्व शक्ति बने और उसके लिए जरूरी है कि वह एशिया में बिना किसी प्रतिस्पर्धा के एकाकी शक्ति बने।
एशिया में उसका ऐसा प्रभुत्व हो जिसे कोई चुनौती न दी जाए। इस सोच के साथ आगे बढ़ते हुए चीन सभी एशियाई देशों पर दबदबा बनाना चाहता है और वह भारत को इसमें अपना सबसे बड़ा कंपिटीटर मानता है। पिछले सात सालों से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने चीन के साथ रिश्तों को सुदृढ़ करने की काफी कोशिश की है, जिसमें गुजरात में चीनी राष्ट्रपति को झूला झुलाने से लेकर अब तक लगभग 18 बार हर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे मिलने के बावजूद चीन का रवैया नहीं बदला है। उसका एक मुख्य कारण आजादी के बाद भारत द्वारा अपने इकलौते सच्चे साथी रूस की अनदेखी कर मौकापरस्त अमरीका के साथ संबंधों में घनिष्ठता लाने की जल्दबाजी में विदेश नीति को दरकिनार करके देश के बजाय व्यक्ति विशेष को वरीयता देना और बदकिस्मती से बदली अमरीकन सरकार से हमें वो सब सम्मान नहीं मिल रहा जो दुनिया का सबसे बड़ा बाजार रखने वाले देश को मिलना चाहिए। उधर रूस भी अंदरखाते हमसे भौंहें चढ़ा कर बैठा है और यही एक मुख्य कारण है कि चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग अपनी विस्तारवादी मंशा से डगमगाए बिना पूरी-पूरी कोशिश कर रहा है कि वह भारतीय जमीन पर कब्जा करे।
इसमें चाहे गलवान लद्दाख हो या सुमनसिरी अरुणाचल, चीन को पता है कि मौजूदा हालात में रूस और अमरीका दोनों मुख्य ताकतों में से कोई भी चीन के खिलाफ भारत के साथ इतनी आसानी से नहीं आएगा। मेरा मानना है कि ऐसे हालात में दूसरे मुल्कों की तरफ देखने से बेहतर होगा कि हम चीन के भ्रम को तोड़ते हुए 1967 के नाथू ला, 1986 के समद्रोंग चू और वैंगडगं तथा 2019 के डोकलाम में भारत द्वारा दिखाई गई ताकत की याद दिलाए, जब भारतीय सेना ने चीन की भारतीय जमीन हथियाने की मंशा पर पानी फेरा था। अगर हम मौजूदा हालात की बात करें तो लद्दाख और अरुणाचल में हड्डियों तक को कंपकपा देने वाली सर्दी का इलाका जहां पर मौसम के हिसाब से रहना बिल्कुल मुश्किल है, वहां पर चीन और भारत दोनों देशों के लगभग 40 से 50 हजार तक के सैनिक तथा बड़ी तादाद में टैंक, एयर डिफेंस हथियार, रॉकेट सिस्टम, आर्टलरी, ड्रोन आदि डिप्लाय हो चुके हैं। अगर हम चीन के डिफेंस बजट की बात करें तो वह भारत से 4 गुना ज्यादा है, पर इसका कतई भी यह मतलब नहीं हो सकता कि चीनी सेना भारतीय सेना से सशक्त है तथा हाई एल्टीट्यूड वारफेयर में भारत से ज्यादा ताकतवर है।
कर्नल (रि.) मनीष धीमान
स्वतंत्र लेखक