भारत 'फॉर सेल' नहीं
देश की परिसंपत्तियों को बेचा जा रहा है या किराए पर, एक निश्चित अवधि के लिए पट्टे पर, देने की घोषणा की गई है?
divyahimachal .
देश की परिसंपत्तियों को बेचा जा रहा है या किराए पर, एक निश्चित अवधि के लिए पट्टे पर, देने की घोषणा की गई है? यदि परिसंपत्तियों को बेचने की योजना है, तो वे किसी भी औद्योगिक घराने के लिए 'तोहफा' कैसे हो सकती है? सार्वजनिक उद्यमों, संपदाओं, संस्थानों के विनिवेश की शुरुआत कांग्रेस सरकार के दौर में की गई। निजीकरण की प्रक्रिया भी दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू की गई थी। भारत में उदारीकरण के जनक कौन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री थे, यह दुनिया जानती है। ऐसे संवेदनशील विषयों को सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए, लिहाजा कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ऐसे आरोप लगा क्या हासिल करेंगे? भारत का संविधान और संसद, सबसे बढ़कर निर्णायक जनता, ऐसे नियामक तत्त्व हैं कि कोई भी प्रधानमंत्री और सरकार देश की बिक्री का आयोजन नहीं कर सकते। सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी भी मौजूद है। भारत सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन योजना की घोषणा की है, तो वह 2022-25 के दौरान 6 लाख करोड़ रुपए अर्जित करने के मद्देनजर है। देश का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ रहा है।
कोरोना महामारी और तालाबंदी, अब अफगानिस्तान संकट के कारण हमारी अर्थव्यवस्था डांवाडोल है। यदि हालात और असर ऐसे ही रहे, तो देश की अर्थव्यवस्था उबर नहीं पाएगी। उसके गंभीर और मारक प्रभाव आम आदमी को ही झेलने पड़ेंगे। सरकार ने स्पष्ट किया है कि परिसंपत्तियों पर मालिकाना हक भारत सरकार का ही रहेगा। परिसंपत्तियां बेची नहीं जाएंगी, बल्कि पीपीपी, संचालन-नियंत्रण-विकास, टोल एंड ऑपरेट आदि के आधार पर निजी कंपनियों को पट्टे या किराए पर संपदाएं सौंपी जाएंगी और तय अवधि के बाद उन्हें भारत सरकार को लौटाना होगा। इस संदर्भ में नीति आयोग की वेबसाइट पर विस्तृत दस्तावेज मौजूद हैं। कमोबेश उन्हें पढ़ने और विश्लेषण जानने के बाद ही राहुल गांधी को टिप्पणी करनी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री मोदी देश को बेच रहे हैं। दिल्ली और मुंबई के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों का परिचालन और प्रबंधन निजी हाथों में है। कांग्रेस नेतृत्व की केंद्र सरकार ने ही उन्हें निजी कंपनियों को सौंपा था। आज तक कोई विवाद नहीं है, लेकिन 200 रुपए में कॉफी और 150 रुपए में चाय का कप आम आदमी को जरूर चुभता है। देश के ज्यादातर राजमार्गों पर टोल या अन्य कर देना पड़ता है। कई निजी कंपनियों के पास उनके ठेके हैं, जो कांग्रेस सरकारों की ही देन हैं।
कई सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने तक की योजनाएं बनती रही हैं। रेलवे और सेना के पास हजारों एकड़ ज़मीनें और भवन बेकार पड़े हैं। उनका कोई इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है और न ही वे रणनीतिक क्षेत्र के तहत आते हैं। क्यों न उनका उपयोग किया जाए? दरअसल भारत सरकार का बुनियादी काम नीतियां और योजनाएं बनाने का है। सरकार कारोबार, धंधे या हवाई जहाज चलाने के लिए नहीं है। नरसिंह राव सरकार के दौर से सार्वजनिक संपत्तियों का विनिवेश होता रहा है। होटल बेचे गए हैं। एनटीपीसी और एनएचपीसी जैसे नवरत्नों में भी निजी भागीदारी होती रही है। किराए पर भी सार्वजनिक संपत्तियां दी जाती रही हैं। बेशक रेलवे, हवाई अड्डे, बंदरगाह, राजमार्ग, खाद्यान्न भंडारण आदि रणनीतिक महत्व के क्षेत्र हैं, लेकिन सरकार ने अनप्रयुक्त संपदाओं में निजी भागीदारी करके पूंजी बटोरने का बात कही है। तो इससे देश को सेल पर कहां रख दिया गया है? दूरसंचार क्षेत्र में सरकारी बीएसएनएल में आजकल धड़ाधड़ 'गोल्डन हैंडशेक' मुहैया कराया जा रहा है, लिहाजा कर्मचारी सेवानिवृत्ति ले रहे हैं। उनकी नौकरी छीनी नहीं जा रही। बीएसएनएल का सालाना घाटा करीब 7500 करोड़ रुपए का है। इसकी तुलना में निजी क्षेत्र की कंपनियां करीब 70,000 करोड़ का राजस्व देती हैं और हजारों कर्मचारी उनमें काम कर रहे हैं। इसी तरह रेलवे में 13 लाख से ज्यादा कर्मचारी हैं। ऐसा कोई आदेश नहीं है कि 400 रेलवे स्टेशनों और 90 टे्रनों का परिचालन और प्रबंधन निजी हाथों में सौंपने के बाद कई हजार कर्मचारी बेरोज़गार हो जाएंगे। देश के लिए यह संक्रमण-काल है, लिहाजा आर्थिक संसाधन जुटाने की कोशिश की जानी चाहिए।