अमेरिकी सरकार के पैसे से चलने वाले 'फ्रीडम हाउस' ने भारत को स्वतंत्र से आंशिक स्वतंत्र देश की श्रेणी में रख दिया है। भारत को 100 में से 67 अंक दिए गए हैं। 71 अंक होते तो भारत का स्वतंत्र देश का दर्जा बरकरार रहता। स्वतंत्र देश के दर्जे से मतलब है ऐसा देश, जहां लोगों को पर्याप्त राजनीतिक, व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो और जहां विभिन्न संस्थाएं भी स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम हों। नि:संदेह भारत में सब कुछ ठीक नहीं और कई क्षेत्रों में सुधार की सख्त जरूरत है, लेकिन उसे उस पाकिस्तान के समकक्ष रखना शरारत के अलावा और कुछ नहीं, जहां का शासन सेना चलाती है और जहां अल्पसंख्यक संवैधानिक तौर पर दोयम दर्जे के नागरिक हैं।
फ्रीडम हाउस को नागरिकता संशोधन कानून रास नहीं आया
ऐसा लगता है कि फ्रीडम हाउस वाले भारत का दर्जा घटाने पर तुले थे, क्योंकि इस आधार पर भी अंकों में कटौती की गई कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के सदस्य बन गए और एमनेस्टी इंटरनेशनल सरीखे संदिग्ध इरादों वाले संगठनों या फिर ऐसे ही अन्य गैर सरकारी संगठनों को विदेशी चंदे का मनमाना इस्तेमाल करने से रोक दिया गया। लॉकडाउन के दौरान मजदूरों की कठिन हालात में घर वापसी को भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। इससे इन्कार नहीं कि लॉकडाउन के समय तमाम मजदूरों को विपरीत परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ा, लेकिन सरकार ने जानबूझकर उनके सामने मुश्किलें नहीं खड़ी कीं। देशद्रोह कानून का अनावश्यक इस्तेमाल करने के लिए भारत की आलोचना की जा सकती है, लेकिन ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि इंटरनेट सेवा बाधित करने का काम लोगों को जानबूझकर तंग करने के लिए किया गया। फ्रीडम हाउस को नागरिकता संशोधन कानून रास नहीं आया, लेकिन उसने यह देखने से इन्कार किया कि इस कानून के विरोधी किस तरह सौ दिन तक एक व्यस्त सड़क को घेर कर बैठे रहे।
फ्रीडम हाउस जैसी संस्थाएं और भी हैं, जो विभिन्न मसलों पर रेटिंग के जरिये भारत को कठघरे में खड़ा करने का काम करती हैं। जैसे तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने यह जिम्मेदारी अपने सिर ले ली है कि भारत समेत दुनिया के अन्य देशों को उनसे सीख लेनी चाहिए, उसी तरह कुछ देशों की सरकारें और वहां के राजनीतिक दल भी स्वयंभू मार्गदर्शक मान गए हैं। कृषि कानून विरोधी आंदोलन को लेकर कनाडा के प्रधानमंत्री की टिप्पणी इसी का नतीजा थी। यह वही कनाडा है, जो विश्व व्यापार संगठन में भारत सरकार की ओर से अपने किसानों को सब्सिडी देने का विरोध करता है, लेकिन अपने यहां के खालिस्तानियों को खुश करने के लिए कृषि कानून विरोधी आंदोलन को हवा देता है। बीते दिनों ब्रिटेन की संसद में भी इन कानूनों पर बहस के बहाने भारत पर हमला बोला गया। इस बहस का आधार बना एक लाख से अधिक लोगों का अनुरोध पत्र। इस बहस से यह साफ हुआ कि ब्रिटेन में कुछ ताकतें ऐसी हैं, जो भारत पर निशाना साधने के लिए आतुर थीं। ब्रिटेन की तरह अमेरिका में भी सांसदों का एक समूह ऐसा है, जिसे लगता है कि उसे भारत को हर मामले में नसीहत देने का अधिकार हासिल है।
भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। आगे भी किसी न किसी बहाने भारत को यह बताया जाएगा कि उसके यहां यह या वह गड़बड़ है। कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि उसके यहां कोई समस्या नहीं, लेकिन यह स्वीकार नहीं कि कमियों को इंगित करने के नाम पर देश विशेष के प्रति दुर्भावना का प्रदर्शन किया जाए। पश्चिमी देशों की कथित स्वतंत्र संस्थाओं से ज्यादा वहां का मीडिया भारत के प्रति दुर्भावना से भरा है। कई बार तो यह दुर्भावना नस्ली रंगत लिए दिखती है। यह सिलसिला तब तक कायम रहने वाला है, जब तक भारत में भी ऐसी संस्थाएं और समूह सक्रिय नहीं होते, जो अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा आदि की खामियों को रेखांकित करने का काम करें।