by Lagatar News
AsitNath Tiwari
साल 2014 में देश में आई मोदी सरकार आजाद भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक घटना थी. ये देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार थी, जिसमें शामिल दल भाजपा के पास सरकार के लिए पूर्ण बहुमत था. ऐसा पहली बार हुआ, जब कांग्रेस विरोधी किसी एक दल के पास सरकार बनाने का आंकड़ा था. इसके पीछे की एक बड़ी वजह थी, भाजपा का चुनावी प्रचार. भाजपा ने तब के चुनाव में देश को अनगिनत सपने दिखाए थे. तब भाजपा ने बताया था कि देश की गरीबी के लिए पिछली सरकारें जिम्मेदार हैं और नरेंद्र मोदी के पास वह सूझबूझ है कि वे प्रधानमंत्री बनते ही देश की गरीबी खत्म कर देंगे. तब ये दावा किया गया था कि आर्थिक प्रबंधन ठीक करके पेट्रोल 35 रुपए लीटर, गैस सिलेंडर 300 रुपए का किया जा सकता है. इतना ही नहीं, तब ये भी दावा किया गया था कि स्विस बैंक में जिन भारतीयों का काला धन है, उनकी सूची भाजपा के पास है और भाजपा की सरकार बनते ही वह काला धन भारत आ जाएगा और ऐसे ही हर भारतीय के खाते में 15-15 लाख रुपए आ जाएंगे. वादों की बड़ी लंबी फेहरिश्त थी. साल 2022 आते-आते उन वादों और उनके बाद किए गए दावों की हवा निकलने लगी.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर आज भले ही मेन स्ट्रीम मीडिया में कोई चर्चा नहीं हो रही है. लेकिन आने वाले वर्षों में ये चर्चा का एक प्रमुख विषय रहेगा. ये रिपोर्ट बता रही है कि भारत की बड़ी आबादी को पेट भर खाना नहीं मिल रहा है. सबसे बुरा हाल नवजात शिशुओं का है. इन शिशुओं की माओं का पेट ही नहीं भरता, तो ये भला अपनी संतानों को दूध कहां से पिलाएं. रिपोर्ट बता रही है कि भारत में बच्चों का कुपोषण लगातार बढ़ रहा है. बच्चों में कुपोषण की गंभीर स्थिति को देखें तो इस बार इसका आंकड़ा 19.3 तक पहुंच गया है. मनमोहन सरकार के समय 2013 में ये 14.6 था. 2014 तक वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 64वें स्थान पर था, जो अब 107वें स्थान पर है. भारत के पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका इस मामले में भारत के मुकाबले काफी अच्छी स्थिति में हैं. पाकिस्तान 99 वें स्थान पर है, बांग्लादेश 84वें स्थान पर है. नेपाल 81वें स्थान पर तो श्रीलंका 64वें स्थान पर है. बड़ी आबादी वाला पड़ोसी देश चीन अपनी पूरी आबादी का पेट भरता है. उसकी रैंकिंग 3 है.
फिलहाल कुपोषण का सामना कर रहे दुनिया के कुल 82.8 करोड़ लोगों में अकेले भारत के 22.4 करोड़ लोग शामिल हैं. मतलब मोदी सरकार की योजनाएं गरीब परिवारों के बच्चों का पेट भरने में नाकाम साबित हो रही हैं और इसका खामियाजा देश के नौनिहाल भुगत रहे हैं. हम एक ऐसा देश बनते जा रहे हैं, जिसके युवाओं की बड़ी आबादी ठिगने कद और कमजोर शरीर वाली होगी. उसका मस्तिष्क बेहद कमजोर होगा और उसके सोचने-समझने की क्षमता औसत दर्जे से भी कम होगी. अमीर परिवारों के बच्चे शारीरिक और बौद्धिक तौर पर बेहतर होते रहेंगे और गरीब परिवारों के बच्चे कमजोर और पिछड़े होते जाएंगे.
वैश्विक भूख सूचकांक में देश की भद्द पिटवाने के बाद सरकार अब भले चाहे जितना गाल बजा ले, लेकिन इतना तो सच है कि नोटबंदी और कोरोना के दौरान की गई अनियोजित लोटबंदी ने बड़ी आबादी के सामने रोजी-रोजगार का संकट पैदा किया. सरकार ने इस संकट से बड़ी आबादी को बाहर निकालने का कोई ठोस प्रयास किया ही नहीं. नतीजतन बंद पड़े छोटे-मोटे कारोबार दुबारा शुरू नहीं हो सके और रोजगार गवां चुकी भीड़ दुबारा रोजगार पा ही नहीं सकी. महीने की एक निश्चित कमाई का स्वरूप बदल गया और जैसे-तैसे कुछ कमा लेने की नई स्थितियां बनती गईं. और ये सब उस देश में हो रहा है, जहां अयोध्या में राम मंदिर बनाने में 2 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है और गैरजरूरी रूप से बनाए जा रहे सेंट्रल विस्टा पर सरकार 13 हजार 450 करोड़ रुपए खर्च कर रही है. ये उस देश का सच है, जहां का प्रधानमंत्री डेढ़ लाख से लेकर साढ़े चार लाख के चश्मे और इन्हीं कीमतों की घड़ियां पहनता है. जिस देश के पास अपने नागरिकों का पेट भरने के लिए संसाधन नहीं हैं, उस देश की सरकार ने बैंकों की जरिए लोन के नाम पर देश का पैसा लेने वाले दुनिया के बड़े अमीरों में शुमार उद्योगपतियों के 4 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के लोन माफ कर दिए. भारत के स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा का जो कुल बजट है, उसका दोगुना बैंक लोन तो सिर्फ 2014 से 2018 के बीच केंद्र सरकार ने माफ किया है. 2014 में एनपीए 4.62 फीसदी था, जो मोदी राज में बढ़कर 12.8 हो गया है.
भूख से बिलबिलाती जनता न तो मीडिया को दिख रही है और न ही उद्योगपतियों को. वजह साफ है, मीडिया पर उद्योगपतियों का कब्जा है और उद्योगपतियों का कर्जा मोदी सरकार माफ करती जा रही है. मतलब महाराज के माल पर मिर्जा होली खेल रहे हैं और मिर्जा के कुर्ते के चटख रंगों को दिखा-दिखा भूखी जनता का मनोरंजन किया जा रहा है.
महत्व की बात तो यह है कि आर्थिक क्षेत्र के तमाम वैश्विक आंकड़ों में पिछड़ने के बावजूद भारत की सरकार अपनी ही नीतियों की समीक्षा करने से परहेज करती नजर आ रही है. विजुअल मीडिया की चमक में वास्तविकताओं का अंधेरा गहन होता ही जा रहा है. जिस तरह से पूंजी के केंद्रीकरण की छूट सरकार ने दे ही नहीं दी है, बल्कि उसकी मददगार के बतौर दिख रही है, उससे आर्थिक असमानता का विषबेल खतरनाक नतीजे देने लगा है. जनता के सब्र की कब तक परीक्षा लेने का नजरिया बना रहेगा.