जनता से रिश्ता वबेडेस्क | हमारे विदेश मंत्री ने कहा है कि हमारी विदेश नीति का पहला सिद्धांत यह है कि हम प्रत्येक देश से मित्रता बनाए रखने की कोशिश करते रहेंगे, चाहे उनकी विचारधारा हमसे भिन्न भी हो । मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह भला कैसे संभव है? क्या हम चीन और पाकिस्तान, जिन्होंने हमारी भूमि अपने कब्जे में की हुई है, मित्रता बनाए रखेंगे, चाहे उनकी विचारधारा भारत के प्रति आक्रामक ही क्यों न हो? इन दोनों बातों में बहुत बड़ा विरोधाभास है।
जब हमारा चीन और पाकिस्तान के साथ शीत अथवा वास्तविक युद्ध हो ही रहा हो, तो हम कैसे गुटों से अलग रहने की बात कर सकते हैं? यदि चीन के आक्रमण के समय संयुक्त राज्य अमेरिका हमारी मदद न करता, तो चीन की सेनाओं को रोकना हमारे लिए संभव नहीं था। गुटों से अलग-थलग रहने की नीति का आज के संसार में कोई महत्व नहीं है। अत: हमें अपनी राजनीतिक भाषा के बारे में हमेशा सावधान रहना चाहिए। जब संयुक्त राष्ट्र संघ विभिन्न राजनीतिक गुटों के हाथों में कठपुतली बना हुआ है, तब क्या हम गुटों या समूहों से अलग रहने की नीति से उसका हाथ बंटा सकते हैं? यह चीज कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने से बिल्कुल स्पष्ट हो गई है।
विदेश नीति का सब से पहला सिद्धांत यह होना चाहिए कि हम किसी भी अवस्था में अपने उचित हितों की रक्षा करेंगे। लेकिन हमने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया है और यही कारण है कि संसार में हमारे बहुत कम समर्थक रह गए हैं। जब तक हम अपने हितों की परवाह नहीं करते हैं, तब तक हम विश्व शांति को भी कोई बढ़ावा नहीं दे सकते हैं। अपने हितों की रक्षा करने के अतिरिक्त हमें दूसरे देशों से समझौते भी करने चाहिए। हम विश्व मंच पर गुटों से अलग रहने की अपनी नीति के अनुसरण में अपने देश की सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल सकते। लड़ाई के समय हम इस नीति का पालन नहीं कर सकते हैं। यहां बिना किसी शर्त जैसे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं है। क्या हम किसी के उपकार को भुला सकते हैं? बिना लगाव (या किसी गुट से बिना जुड़ाव) की नीति कोई ऐसा नैतिक सिद्धांत नहीं है कि जिसे हम कभी त्याग ही नहीं सकते। किसी देश से सैनिक सहायता प्राप्त करने के पश्चात हम अपने को तटस्थ नहीं कह सकते। मुसीबत के समय केवल संयुक्त राज्य अमेरिका तथा पश्चिमी देशों से ही हमें पर्याप्त रूप में सैनिक सहायता मिल सकती है। हमें इस तथ्य को समझने की कोशिश करनी चाहिए। आज यदि अमेरिका नहीं होता, तो आज संसार में स्वतंत्र देश देखने को नहीं मिलते। मुसीबत के समय दुनिया का कोई भी देश अकेला सामना नहीं कर सकता है। अत: हमें स्पष्ट कर देना चाहिए कि संकट के समय हम किसी भी देश से सैनिक सहायता प्राप्त करने में संकोच नहीं करेंगे।
यह राजनीति, विदेश नीति तथा कूटनीति का सिद्धांत है कि हमारे शत्रु का शत्रु हमारा मित्र होता है, परंतु हम ने शत्रु के शत्रु को कभी मित्र बनाने का प्रयास ही नहीं किया। हमने चीन के मुकाबले में फारमोसा को अपना मित्र नहीं बनाया। पाकिस्तान ने क्या किया, भारत के शत्रु चीन से दोस्ती कर ली। हमारे साथ जो देश मित्रता करना चाहते हैं, उनसे भी हम मित्रता नहीं करते हैं। मिसाल के लिए, इजरायल को ही ले लीजिए। अरब राष्ट्रों के डर से हम उससे मित्रता नहीं कर रहे हैं। इस पर भी हम यह दावा करते हैं कि हमारी विदेश नीति स्वतंत्र है और हम किसी से डरते नहीं है।
हमने जब पश्चिम के राष्ट्रों से सहायता ले ली, तब हमारी गुटों में शामिल न होने वाली नीति स्वत: समाप्त हो गई। मेरा निवेदन है कि हमें अपने हितों का ध्यान रखकर विदेश नीति का निर्माण करना चाहिए। अमेरिका ने कहा है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया की रक्षा तो की ही जानी है और यह भारत के हित के लिए बहुत जरूरी है। भारत के सहयोग के बिना वहां कुछ हो नहीं सकता।
...क्या मंत्री महोदय यह सुझाव देंगे कि भविष्य में राष्ट्रमंडल की बैठकें भारत में होंगी, क्योंकि हमारा देश राष्ट्रमंडल के सदस्य देशों में सबसे बड़ा है? ...हमें वर्मा (म्यांमार) से निष्क्रमण करने वाले चीनियों अथवा भारतीयों की संख्या के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। श्रीमान, मेरा औचित्य संबंधी भी एक प्रश्न है। हम इस समय विदेश नीति पर चर्चा कर रहे हैं और नगालैंड इसके अंतर्गत नहीं आता है!