विधानसभा चुनावों के ठीक पहले विवादास्पद फैसलों से कांग्रेस पार्टी कैसे कमजोर होती जा रही है
विधानसभा चुनावों के ठीक पहले विवादास्पद फैसलों से कांग्रेस पार्टी
बना बनाया खेल बिगाड़ने की कला में कांग्रेस पार्टी का कोई मुकाबला हो ही नहीं सकता. पिछले सात महीनों में पार्टी ने पंजाब में एक के बाद एक विवादास्पद फैसलों से अपने आप को कैसे लगातार पीछे धकेला है, उसका एक और उदाहरण कल देखने को मिला. पार्टी के बड़े नेता राहुल गांधी ने रविवार को लुधियाना में एक सभा की जिसमे उन्होंने घोषणा की कि वर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) ही 20 फरवरी को होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव ( Punjab Assembly Election) में कांग्रेस पार्टी ( Congress Party) के मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे.
सभी पार्टियों का हक़ बनता है कि अगर वह चाहें तो मतदाताओं के समक्ष अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे को सामने रखे. हालांकि कुछ समय पहले कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की थी कि वह पांच राज्यों, जहां 10 फरवरी से 7 मार्च के बीच चुनाव होने वाला है, में किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा नहीं करेगी. जो पंजाब और उत्तराखंड की वर्तमान परिस्थितियों में शायद सही फैसला था, क्योंकि ऐसी किसी घोषणा से पार्टी को आशंका थी कि उसकी मुसीबतें बढ़ सकती हैं. और जिस बात की आशंका थी वही हुआ. राहुल गांधी ने चन्नी के नाम की घोषणा की और कुछ समय बाद पार्टी के बड़े नेता सुनील जाखड़ ने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर दी.
चुनाव के ठीक पहले उठापटक की क्या जरूरत थी
दरअसल, पंजाब कांग्रेस के नेताओं ने राहुल गांधी की अपरिपक्वता का फायदा उठाते हुए उन्हें यह फैसला लेने को मजबूर किया. ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि जब पूरी पार्टी को इकट्ठा कर चुनाव की तैयारी करने का समय आता है, उस समय पार्टी में उठापटक शुरू हो जाए और पार्टी आलाकमान उस उठापटक में एक सक्रिय भूमिका निभाने लगे. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू ने तात्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, जुलाई के महीने में पार्टी ने सुनील जाखड़को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष से हटा कर सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया और सोचा कि पार्टी की मुसीबतें कम हो जाएंगी. पर सिद्धू के मुंह खून लग चुका था, उनकी नज़र मुख्यमंत्री पद पर थी. उठापटक बढ़ती ही गयी और सितम्बर के महीने में अमरिंदर सिंह की मुख्यमंत्री पद से छुट्टी हो गयी. लड़ाई सिद्धू ने लड़ी और लाटरी चन्नी की खुल गयी, पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया. अब जब कि सिद्धू और चन्नी के बीच जंग छिड़ गयी और नौबत यह आ गयी कि राहुल गांधी को सिद्धू और चन्नी के बीच फैसला करना पड़ा.
अब यह तो राहुल गांधी ही जाने की उन्होंने किस आधार पर चन्नी के सर पर अपना हाथ रखा. सभा में जाखड़ और सिद्धू की राहुल गांधी ने जम कर तारीफ़ की और फैसला चन्नी के हक़ में यह कह कर सुनाया कि पंजाब की जनता की मांग थी कि उनका मुख्यमंत्री गरीब घर का हो. यानि चन्नी की एकमात्र योग्यता यही है कि उनका जन्म एक गरीब घर में हुआ था और सिद्धू या जाखड़ इस रेस से इसलिए बाहर हो गए क्योंकि उनका जन्म गरीब घर में नहीं हुआ था. यह अपने आप में विवाद का मुद्दा है कि राहुल गांधी को कैसे पता चला कि पंजाब की जनता किसे चाहती है, और अगर उनके पास कोई जादुई यन्त्र है तो सीधे चन्नी का नाम लेते, इसमें गरीब होने की कहानी जोड़ने की बात जमी नहीं. बहरहाल अब जाखड़ ने रिटायर होने की घोषणा कर दी है, देखना होगा कि क्या सिद्धू इस फैसले से खुश होंगे और चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने की दिशा के काम करेंगे या फिर चन्नी की कब्र खोदने में जुड़ जाएंगे.
जट सिखों के नाराज होने का खतरा
सिद्धू कुछ करें या ना करें, अब जो करना है वह पंजाब की जनता ही करेगी, खासकर जट सिख समुदाय के मतदाता. चन्नी की योग्यता गरीब घर में पैदा होना नहीं है बल्कि उनका दलित सिख होना है. पंजाब में दलित मतदाताओं की बहुत बड़ी संख्या है, पर दलित कई वर्गों में बंटे हैं. यानि चन्नी में नाम पर कांग्रेस पार्टी दलितों के एक खास वर्ग को ही खुश कर सकती है.और इस फैसले से जट सिख समुदाय के नाराज़ होने की आशंका बढ़ गयी है. सिद्धू जट सिख हैं. पंजाब के जट सिख समुदाय की तुलना पड़ोसी राज्य हरियाणा के जाट समुदाय से की जा सकती है – नेता चाहे किसी भी दल से हो, मुख्यमंत्री उनकी समुदाय का ही होना चाहिए. 2017 में जट सिख कांग्रेस पार्टी के समर्थन में इसलिए सामने आये क्योंकि अमरिंदर सिंह जट सिख थे. अब जबकि कांग्रेस पार्टी ने एक जट सिख अमरिंदर सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया और दूसरे जट सिख सिद्धू को ठेंगा दिखा दिया तो इस बात की सम्भावना कम हो गयी है कि जट सिख कांग्रेस पार्टी के लिए वोट करेंगे. संभव है कि राहुल गांधी के इस फैसले से बीजेपी-पंजाब लोक कांग्रेस, जिसके नेता अमरिंदर सिंह हैं, उसे इसका फायदा मिले. चुनाव के दो हफ्ते पहले इस तरह की घोषणा सिर्फ कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी ही कर सकते हैं.
मणिपुर में भी अजीबोगरीब फैसला
पंजाब एकलौता राज्य नहीं है जहां कांग्रेस पार्टी खुद को कमजोर करती दिख रही हो. रविवार को ही एक अन्य राज्य मणिपुर में भी कांग्रेस पार्टी ने अजीबोगरीब घोषणा की कि वहां पार्टी का गठबंधन चार वामपंथी दलों और कर्नाटक की जनता दल-सेक्युलर पार्टी से होगा. कांग्रेस पार्टी 60 में से 55 या 56 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और बाकी की सीट उन सहयोगी दलों के लिए छोड़ा जाएगा. जनता दल-सेक्युलरका मणिपुर में कोई कार्यकर्ता है, इस पर ही शक है. और वाम दलों का एक तरह से सूर्यास्त हो चुका है. इस फैसले के पीछे भी राहुल गांधी का ही हाथ है, यह साफ साफ दिखता है. उनका वामदलों के प्रति स्नेह किसी से छुपा नहीं है. पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल चुनाव में भी राहुल गांधी ने फैसला लिया था कि कांग्रेस पार्टी वामदलों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ेगी. पश्चिम बंगाल के इतिहास में पहली बार कांगेस पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पायी और वामदलों के हाथ भी कुछ नहीं लगा. मणिपुर में वामदलों की हैसियत नहीं के बराबर है, ऐसे में उनके साथ गठबंधन करना शायद 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लिया गया है, ताकि वामदल और जनता दल–सेक्युलर विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में ममता बनर्जी की जगह राहुल गांधी का साथ दें, पर इससे मणिपुर के मतदाताओं को बीच एक संदेश गया है कि कांग्रेस पार्टी को अपने दम पर चुनाव जीतने का भरोसा नहीं है.
2017 के चुनाव में मणिपुर के 60 में से 28 सीट जीत कर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी, पर सरकार बनाने में बीजेपी ने कांग्रेस को मात दे दी. इस बार बीजेपी मणिपुर में अपने दम पर चुनाव लड़ रही है और चुनाव पूर्व किसी गठबंधन से साफ इनकार कर दिया.वहीं कांग्रेस पार्टी का पिटी हुयी या ऐसी पार्टियों के साथ गठबंधन करना जो सिर्फ कागजों में ही जीवित हैं, पार्टी को मजबूती देने की बजाय उसे कमजोर ही करेगा.
मणिपुर में गठबंधन मंजूर तो गोवा में क्यों नहीं
एक बात और, अगर कांगेस पार्टी को मणिपुर में गठबंधन मंज़ूर था तो फिर गोवा में क्यों पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस की विपक्षी एकता की मांग ठुकरा दी, जबकि गोवा में गठबंधन की मणिपुर के मुकाबले ज्यादा जरूरत थी. गोवा में गैर-बीजेपी वोट कई दलों के बीच बंटता दिख रहा है, जबकि मणिपुर में टक्कर सीधे बीजेपी और कांगेस के बीच है.
पर कांग्रेस पार्टी के भविष्य की चिंता राहुल गांधी को किसी अन्य के मुकाबले ज्यादा होनी चाहिए. भले ही राहुल गांधी बीजेपी के कांग्रेस–मुक्त भारत के सपने को साकार करने के लिए जुटे हए हो सकते हैं पर देश हित और खासकर प्रजातंत्र के हक़ में जरूरी है कि देश में विपक्ष मजबूत हो. पर जो हो रहा है, वह ठीक उसके विपरीत परिणाम दे सकता है. कहते हैं ना कि अगर रसोइया अनाड़ी हो तो वह आटा गीला कर देता है. कांग्रेस पार्टी चुनाव के ठीक पहले आटा गीलाकर रही है और राहुल गांधी साबित करने के तुले हैं कि वह 17वर्षों से सांसद रहने के बावजूद भी अभी तक वह राजनीति के क्षेत्र में एक अनाड़ी रसोइया ही हैं.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)