किसान आंदोलन को यूपी में कितना भुना सकी हैं विपक्षी पार्टियां?

यूपी में कितना भुना सकी हैं विपक्षी पार्टियां?

Update: 2021-11-08 06:59 GMT

संयम श्रीवास्तव . 


लखीमपुर खीरी कांड के बाद जिस किसान आंदोलन का जिक्र केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में था अब उसके बारे में चर्चा पूरे उत्तर प्रदेश में होने लगी है. हालांकि इस चर्चा में दो पक्ष है, एक जो किसानों के पक्ष में हैं और दूसरे वो जो इन पर सवाल उठा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो समाजवादी पार्टी, कांग्रेस पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी तमाम विपक्षी पार्टियों ने लखीमपुर खीरी हत्याकांड की पूरी तरह से भर्त्सना की और इस पर जमकर सियासत भी की. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने जिस तरह से मारे गए किसानों के घर जाकर उनके परिवार वालों से मुलाकात की उसने कांग्रेस को उस वर्ग के थोड़ा करीब ला दिया है, जो किसानों के पक्ष में हैं.

हालांकि साफ तौर पर देखें तो किसान आंदोलन से किसी भी राजनीतिक पार्टी को इतना फायदा नहीं होगा की वह सूबे में सिर्फ उस मुद्दे के दम पर सत्ता परिवर्तन कर सके. हां यह जरूर कह सकते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का असर जरूर दिखाई देगा और यहां जिस तरह से समाजवादी पार्टी ने आरएलडी से गठबंधन किया है, उसे कुछ बेहतर परिणाम मिल सकते हैं. भारतीय किसान यूनियन भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही ज्यादा प्रभावी नजर आती है. लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश से निकलते ही जैसे ही आप पूर्वांचल या बुंदेलखंड की तरफ आते हैं भारतीय किसान यूनियन का सिक्का चलना बंद हो जाता है. क्योंकि इन क्षेत्रों के कुछ और मुद्दे हैं.


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में विपक्षी पार्टियों को किसान आंदोलन का फायदा मिल सकता है. बीजेपी को 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 110 सीटों में से 88 सीटें मिली थीं. जबकि साल 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से महज 38 सीटें मिली थीं. किसान आंदोलन की वजह से अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2012 के जैसी स्थिति फिर आ सकती है, क्योंकि किसान आंदोलन ने मुस्लिमों और जाटों को फिर से एक साथ मंच पर ला दिया है.

दरअसल मुजफ्फरनगर दंगे के बाद मुस्लिमों और जाटों की एकता टूट गई थी और जाटों का झुकाव बीजेपी की तरफ हो गया था. इस वजह से भारतीय जनता पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में जाटों का भारी समर्थन मिला था. हालांकि अब मुस्लिम और जाट समुदाय एक साथ किसान आंदोलन का हिस्सा हैं और कंधे से कंधा मिलाकर बीजेपी का विरोध कर रहे हैं.

यूपी में किसानों के और भी मुद्दे
उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए सिर्फ तीन नए कृषि कानून ही मुद्दा नहीं हैं. बल्कि और भी कई मुद्दे हैं. पश्चिमी यूपी के किसान जहां गन्ने की बकाया राशि को लेकर चिंतित हैं, वहीं कुछ किसान धान के एमएसपी पर खरीदे जाने की बात कर रहे हैं. लेकिन पूरे यूपी के किसानों का जो एक सबसे बड़ा मुद्दा है, वह है छुट्टे जानवरों का मुद्दा. जो आए दिन किसानों की तमाम फसलें बर्बाद कर देते हैं. यह मुद्दा शोर नहीं करता यानि सुनाई नहीं देता, लेकिन हर वक्त किसान इससे परेशान रहते हैं.

दरअसल लोग केवल दुधारू गाय गायों को पालना चाहते हैं. बछड़ों और सांडों को खुला छोड़ दिया जाता है. सरकार और हिंदूवादी संगठनों के डर से इनका मांस के लिए भी उपयोग नहीं हो पाता. इसलिए यह मवेशी आए दिन किसानों की फसलें बर्बाद कर रहे हैं. पूर्वांचल के किसी भी गांव में आप घूम जाइए, यह समस्या आपको हर किसान के मुंह से सुनाई देगी और वह इससे खासा परेशान भी दिखाई देंगे. जाहिर सी बात है जिन लोगों की फसलें बर्बाद हुई हैं वह 2022 के विधानसभा चुनाव के समय वोट देते हुए इसे जरूर सोचेंगे. इस मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां जरूर बोलती हैं, लेकिन पार्टियां उस तरह से इस मुद्दे को बड़ा नहीं बना पाईं, जितना कि इसे बनाया जा सकता था.

कांग्रेस से ज्यादा सपा को होगा किसान आंदोलन का फायदा
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन को कांग्रेस पार्टी उस हद तक नहीं भुना पाएगी, जिस हद तक राष्ट्रीय लोक दल के साथ मिलकर अखिलेश यादव भुना लेंगे. दरअसल राष्ट्रीय लोक दल का जनाधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफी ज्यादा है और किसान आंदोलन के बाद यह और भी ज्यादा बढ़ गया है. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल एक साथ मिलकर 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उतरने को तैयार हैं.‌ ऐसे में अखिलेश यादव सीधे तौर पर किसान आंदोलन का भले ही फायदा नहीं ले पाएगें लेकिन आरएलडी के साथ मिलकर वह जरूर इसका भरपूर फायदा उठा पाएंगे.

खबर है कि समाजवादी पार्टी आरएलडी को 32 सीटें दे सकती है. जिसका एलान 21 नवंबर को लखनऊ में किया जा सकता है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में 110 विधानसभा सीटें हैं, ऐसे में अगर 32 से 40 सीटों पर आरएलडी चुनाव लड़ती है और बाकी के सीटों पर समाजवादी पार्टी आरएलडी के समर्थन से चुनाव लड़ती है तो जाहिर सी बात है 2022 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी से समाजवादी पार्टी की सीटें बढ़ेंगी.

बीजेपी के पास एक दांव बाकी है
किसान आंदोलन को लेकर भारतीय जनता पार्टी के पास अभी एक दांव बाकी है. दरअसल उत्तर प्रदेश के चुनाव के साथ-साथ पंजाब में भी चुनाव होने हैं और पंजाब में अगर भारतीय जनता पार्टी को कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ चुनाव लड़ना है तो उससे पहले बीजेपी को किसानों के मसले को हल करना होगा. क्योंकि कैप्टन अमरिंदर सिंह का बीजेपी के साथ गठबंधन करने को लेकर यही एक शर्त है. जाहिर सी बात है बीजेपी के पास एक तीर से दो शिकार करने का मौका है. यानि अगर चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी किसानों की कुछ मांगे मान लेती है और किसान आंदोलन खत्म हो जाता है, तो इसका सीधा फायदा बीजेपी को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तो होगा ही इसके साथ-साथ उसे पंजाब में भी अच्छी बढ़त मिलेगी.

दरअसल पंजाब में किसान आंदोलन को खड़ा करने के पीछे सबसे बड़ा हाथ कैप्टन अमरिंदर सिंह का ही था और अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह बीजेपी के साथ आ जाते हैं, तो पंजाब में जो किसान आंदोलित हैं बीजेपी का विरोध कर रहे हैं वह शांत हो जाएंगे. वैसे ही उत्तर प्रदेश में राकेश टिकैत का आंदोलनकारी किसानों पर प्रभाव है. और राकेश टिकैत शुरू से कहते आए हैं कि अगर सरकार किसानों की मांगे मान लेती है तो वह आंदोलन बंद कर देंगे. लखीमपुर खीरी के मुद्दे पर भी जिस तरह से राकेश टिकैत ने वहां पहुंचकर प्रशासन के साथ मिलकर इतने बड़े हत्याकांड को शांत कर दिया, इसने भी कहीं ना कहीं लोगों के बीच में यह संदेश दिया है कि राकेश टिकैत भी बीजेपी के साथ खड़े दिख सकते हैं, अगर किसान आंदोलन का मुद्दा शांत हो जाए.





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