लोग कितनी परवाह करते हैं? जानिए ऐसा क्यों कह रहे हैं पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम

बहुत थोड़े लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह क्यों शुरू किया था।

Update: 2022-07-10 01:38 GMT

कभी-कभी मैं सोचता हूं कि क्या भारत में सचमुच कोई ऐसा मध्य वर्ग है, जिसमें सांविधानिक सुधार, सरोकार और सुरक्षा से जुड़े मध्य वर्गीय मूल्य हैं। मुझे पता है कि ऐसे व्यक्ति हैं, जिनके पास वे मूल्य हैं, लेकिन एक 'वर्ग' के रूप में वे मूल्य आज काफी हद तक अनुपस्थित हैं।


देखा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन इसके उलट था। 19 वीं सदी के भारत में अमीर लोगों की संख्या बहुत कम थी और बाकी लोग गरीब थे। पश्चिमी शिक्षा प्रणाली के आगमन— विशेष रूप से अंग्रेजी में पढ़ाई और अंग्रेजी की पढ़ाई— और पश्चिमी कानून व्यवस्था से एक शिक्षित मध्यवर्ती वर्ग उभरा और यही आगे चलकर मध्य वर्ग बना। पहली बार शिक्षकों, डॉक्टरों, वकीलों, जजों, सरकारी कर्मचारियों, सैन्य अधिकारियों, पत्रकारों और लेखकों का बौद्धिक वर्ग उभरा, जिसने मध्य वर्ग के मूल का गठन किया।


स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ थोड़े से नेताओं को छोड़कर अधिकांश नेता मध्य वर्ग से ही आए थे। इनमें नौरोजी, गोखले, लाजपत राय, तिलक, सीआर दास, राजेंद्र प्रसाद, पटेल, आजाद, राजगोपालाचारी, सरोजनी नायडू, कलप्पन और पोट्टी श्रीरामुलु जैसे कुछ उल्लेखनीय नाम शामिल थे। अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया में डॉ. तारा चंद ने कहा है, 'लोगों में राष्ट्रीय चेतना फैलाने, राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन को संगठित करने और अंततः देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने का श्रेय इसी वर्ग को दिया जाना चाहिए।'

अग्रिम मोर्चे पर
इन नेताओं के आह्वान पर लोग सामने आते थे। किसानों के संघर्ष और औद्योगिक संघर्ष के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन अजेय हो गया। मध्य वर्ग के नेताओं और उनके अनुयायियों की जो विशेषता थी, वह थी उनकी पूर्ण निःस्वार्थता : उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं मांगा, केवल लोगों के लिए स्वतंत्रता मांगी।

मध्य वर्ग के नेतृत्व में चल रहा स्वतंत्रता संघर्ष देश के हर घटनाक्रम को लेकर भावुक था। टेलीविजन और इंटरनेट की गैरमौजूदगी के बावजूद खबरें तेजी से प्रसारित होती थीं। चंपारण सत्याग्रह, जलियांवाला बाग नरसंहार, पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव, दांडी यात्रा, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को हुई फांसी, भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी बोस के नेतृत्व वाली इंडियन नेशनल आर्मी की कामयाबी से लोगों में उत्साह का संचार, यह सब मध्य वर्ग द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में लाई गई ऊर्जा और नेतृत्व से संभव हुआ था।

अनुपस्थित नेतृत्व
यह मध्य वर्ग स्पष्ट रूप से आज अनुपस्थित है। ऐसा लगता है कि आत्म निर्वासन से बाहर निकलने को लेकर मध्य वर्ग में कोई हलचल नहीं है। बेतहाशा मूल्यवृद्धि, भारी कर का बोझ, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, 2020 का त्रासदीपूर्ण पलायन, कोविड से जुड़ी अनगिनत मौतें, पुलिस और जांच एजेंसियों की ज्यादतियां, मानवाधिकारों का हनन, घृणा फैलाने वाले भाषण, फेक न्यूज, मुस्लिमों तथा ईसाइयों का सुनियोजित बहिष्करण, संविधान का घनघोर उल्लंघन, उत्पीड़न करने वाले कानून, संस्थाओं का पतन, चुनावी जनादेशों का उलटफेर, चीन के साथ अनकहा सीमा विवाद— लगता है, यह सब मध्य वर्ग को परेशान नहीं कर रहा है।

जरा हाल के इन घटनाक्रमों पर नजर डालिए : नाना पटोले ने फरवरी, 2021 में महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया। विधानसभा के नियमों के मुताबिक विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव गुप्त मतदान से होना चाहिए; विधानसभा ने उसे बदलकर खुले में मतदान को मंजूरी दे दी। राज्यपाल की— जो उत्तराखंड के भाजपा के पू्र्व मुख्यमंत्री हैं— जिम्मेदारी थी कि वह नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए तारीख तय करें, उन्होंने इस आधार पर चुनाव को टाल दिया कि नियम में बदलाव का मामला कोर्ट में लंबित है! उन्होंने 17 महीने तक चुनाव को टाले रखा और तब तक विधानसभा बिना अध्यक्ष के काम करती रही! भाजपा की मदद से एकनाथ शिंदे ने सरकार गिरा दी और 30 जून, 2022 को मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने राज्यपाल से नए विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव करवाने के लिए तारीख तय करने का आग्रह किया, राज्यपाल ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया और चार जुलाई को खुले मतदान से नया अध्यक्ष चुन लिया गया। नियम बदलने से संबंधित राज्यपाल की आपत्तियां रहस्यमय तरीके से गायब हो गईं! कुछ औपचारिक संपादकीय को छोड़कर कहीं भी जनाक्रोश नजर नहीं आया।

जाहिर है, महाराष्ट्र के लोग — विशेष रूप से शिक्षित मध्यम वर्ग— राज्यपाल के संदिग्ध आचरण या अध्यक्ष के पद के 17 महीने से खाली रहने या भारत का संविधान नामक पुस्तक को लेकर जरा भी चिंतित नहीं हैं। क्या आप अमेरिका या युनाइटेड किंगडम में अध्यक्ष के पद के रिक्त रहने पर ऐसी बेरुखी की कल्पना कर सकते हैं?

एक अन्य उदाहरण पर गौर करें। जीएसटी परिषद (इसमें भाजपा का प्रभुत्व है) की 47 वीं बैठक में पैकेट बंद खाद्यान्न, मछली, पनीर, शहद, गुड़, आटा, अनफ्रोजन मीट/फिश, मुरमुरा इत्यादि पर पांच फीसदी जीएसटी थोप दिया गया; छापे, लिखने या ड्राॅइंग वाली स्याही, चाकू, चम्मच, कांटे, पेपर काटने वाला चाकू, पेंसिल शार्पनर और एलईडी पर दर 12 फीसदी से बढ़ाकर 18 फीसदी कर दी गई; 1,000 रुपये तक के होटल के कमरे पर अब तक कोई शुल्क नहीं था, जिस पर 12 फीसदी कर लगा दिया गया। ये कर तब थोपे गए, जब थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति 15.88 फीसदी और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति 7.04 फीसदी है। ऐसा लगता है कि आरडब्ल्यूए, लायंस क्लब, महिला संगठन, चैंबर ऑफ कॉमर्स, श्रमिक संगठन, उपभोक्ता संगठन इत्यादि को इसकी कोई परवाह नहीं है। मुझे पक्का यकीन है कि बहुत थोड़े लोगों को याद होगा कि महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह क्यों शुरू किया था।

स्वघोषित संगरोध
सुबह की रस्म के रूप में अखबार पढ़ते हुए, नेटफ्लिक्स से चिपके रहकर और आईपीएल क्रिकेट से मनोरंजन करते हुए, मध्य वर्ग ने स्वेच्छा से खुद को राष्ट्रीय विमर्श से अलग कर लिया है। किसान लड़े। सैनिक बनने के आकांक्षी युवा लड़ रहे हैं। थोड़ी संख्या में पत्रकार, वकील और कार्यकर्ता लड़ रहे हैं। मुझे आश्चर्य है कि क्या मध्य वर्ग को यह एहसास होगा कि इन लड़ाइयों के परिणाम इस देश का भविष्य निर्धारित करेंगे।

सोर्स: अमर उजाला


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