क्या इस समय देश के ज्ञात इतिहास के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री के हाथ में देश का शासन नहीं है? क्या सरदार पटेल के बाद दूसरा सबसे प्रतापी गृह मंत्री इस समय हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा नहीं संभाल रहा है? फिर मजबूत होने की बजाय देश इतना छुई-मुई होकर टूटने वाला कैसे बन गया? अगर भाजपा नेताओं के भाषणों में किए जाने वाले दावों पर भरोसा करें तो नरेंद्र मोदी देश के अब तक के इतिहास के सबसे पराक्रमी प्रधानमंत्री हैं। उनके जैसे दुनिया में कोई नेता नहीं है। उन्होंने वादा भी किया हुआ है कि 'देश नहीं मिटने दूंगा'। हालांकि पता नहीं उनको कैसे इस बात का अहसास हुआ था कि देश मिटने वाला है! लेकिन जब उनके जैसा महापराक्रमी नेता प्रधानमंत्री है तो बात-बात पर देश टूटने या मिटने की बात क्यों हो रही है?क्यों ऐसा लग रहा है कि जेएनयू में कुछ छात्र विरोध प्रदर्शन करेंगे तो कश्मीर अलग हो जाएगा या कोई पॉप स्टार किसान आंदोलन का समर्थन कर देगा तो देश की एकता खतरे में पड़ जाएगी?
भावनाएं आहत होने तक तो बात समझ में आती थी, जिसके बारे में स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए अपने हलफनामे में कहा है कि भावनाओं का आहत होना आजकल राष्ट्रीय शगल हो गया है। बात-बात में लोगों की भावनाएं आहत हो जा रही हैं। एक सौ करोड़ की आबादी वाले हिंदुओं को लग रहा है कि हिंदू धर्म पर की गई कोई भी टिप्पणी उनके धर्म को कमजोर कर रही है। कुछ समय पहले तक इस्लाम खतरे में होने का नारा सुनाई देता था, पिछले छह साल से हिंदुत्व के खतरे में आ जाने की बातें ज्यादा सुनाई दे रही हैं- वह भी तब जब पृथ्वीराज चौहान के बाद दूसरे महापराक्रमी हिंदू राजा दिल्ली की गद्दी पर बैठे हैं! सो, जिस तरह से भावनाएं आहत हो रही हैं उसी तरह से बात-बात में देश टूटने लग रहा है।
केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे किसानों के समर्थन में अमेरिका की कैरेबियाई मूल की पॉप सिंगर रिहाना और स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने ट्विट कर दिया तो देश में कयामत आने के हालात बन गए। सरकारी तंत्र को 'हैशटेग इंडियाटुगेदर' का ट्विट ट्रेंड कराना पड़ा। सरदार पटेल सरीखे शक्तिशाली गृह मंत्री को कहना पड़ा कि देश एकजुट है। दो अलग अलग देशों के निजी नागरिकों के बयान पर देश के विदेश मंत्रालय को बयान जारी करना पड़ा। ऐसा लगा कि रिहाना, ग्रेटा थनबर्ग, मीना हैरिस या अमांडा के ट्विट से देश की एकता व अखंडता ऐसी डैमेज हो गई है कि अगर उसे कंट्रोल नहीं किया गया तो देश बंट जाएगा।
सवाल है कि क्या छात्रों, किसानों या नागरिकों के अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए किए जाने वाले आंदोलन से देश टूटते हैं? क्या इनसे देश की एकता और अखंडता प्रभावित होती है? नहीं, इनसे देश मजबूत होता है! असल में जब देश के प्रधानमंत्री आंदोलन करने वालों को उनके कपड़ों से पहचानने की बात करते हैं तो उससे देश की एकता कमजोर होती है! जब एक राज्य का मंत्री खुलेआम कहता है कि उसकी पार्टी को मिया-मुस्लिम का वोट नहीं चाहिए, तब देश कमजोर होता है! जब केंद्रीय मंत्री सरकार की नीतियों का विरोध करने वालों को पाकिस्तान चले जाने की नसीहत देते हैं तब देश कमजोर होता है! जब केंद्रीय मंत्री अपने ही देश के लोगों को गद्दार बता कर गोली मारने की बात करते हैं तब देश कमजोर होता है और जब केंद्रीय मंत्री व सत्तारूढ़ दल के सांसद-विधायक संवैधानिक अधिकारों के लिए आंदोलन कर रहे लाखों किसानों को चीन-पाकिस्तान का एजेंट ठहराते हैं तब देश कमजोर होता है! जब चीन हमारे देश की हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन कब्जा कर ले और सीमा में घुस कर गांव बसा ले और देश की चुनी हुई सरकार कहे कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है तब देश कमजोर होता है! जब अपनी पसंद से शादी करने पर पहरे लगाए जाते हैं और लोगों की खान-पान की आदतों को नियंत्रित किया जाता है, तब देश कमजोर होता है।
इस देश ने बड़े बड़े आंदोलन देखे हैं पर कभी यह नहीं कहा गया कि देश तोड़ने का प्रयास हो रहा है। इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन को अराजकता फैलाने का प्रयास कहा था, एक बार भी यह नहीं कहा कि ये आंदोलन देश तोड़ने के लिए हो रहा है। बरसों तक नर्मदा आंदोलन चला और आरक्षण के विरोध में बेहद हिंसक आंदोलन हुआ। जाट और मराठों के आरक्षण आंदोलन हुए। निकट अतीत में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ और उसे खत्म करने के लिए तब की सरकार ने सारे तिकड़म किए, लेकिन यह नहीं कहा कि ये देशविरोधियों का आंदोलन है और देश तोड़ने के लिए हो रह है। यह अपील नहीं की गई कि देश को एकजुट रहना है। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि हर आंदोलन, हर प्रदर्शन, विरोध में उठी हुई हर आवाज देश विरोधी हो गई? ऐसा क्यों हो गया कि सरकार की नीतियों का विरोध करना, देश विरोध हो गया? और ऐसा नहीं है कि सिर्फ केंद्र सरकार या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का विरोध करना ही देश विरोध है, भाजपा शासित राज्य सरकारों की नीतियों का विरोध करना भी देश विरोध हो गया है!
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था। उलटे जब 1942 में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान किया तो संघ के शीर्ष पदाधिकारियों और हिंदू महासभा के नेताओं ने अंग्रेज वायसराय को चिट्ठी लिख कर उनको अपना समर्थन दिया था और यह भी बताया था कि भारत छोड़ो आंदोलन को कैसे कुचला जा सकता है। तब भी महात्मा गांधी या सरदार पटेल या अंग्रेजों से लड़ रहे किसी भी दूसरे बड़े नेता ने आरएसएस या हिंदू महासभा को देशद्रोही नहीं कहा था। सोचें, वह आजादी की लड़ाई थी और कुछ लोग उसका भी विरोध कर रहे थे तब भी लड़ने वाले ऐसे उदार थे कि उन्होंने उन्हें भी देशद्रोही नहीं कहा। ऐन आजादी के समय कांग्रेस से अलग हुए समाजवादी नेताओं ने उस समय पूरे देश में आंदोलन करके नारे लगाए थे कि यह आजादी झूठी है, तब भी उनको किसी ने देशद्रोही नहीं कहा। और आज सरकार की नीतियों का विरोध करने पर लोग देशद्रोही ठहराए जा रहे हैं!
सवाल है कि केंद्र सरकार जिन आंदोलनकारी किसानों के साथ 11 बार वार्ता कर चुकी है और अब भी प्रधानमंत्री ने उनके साथ वार्ता शुरू करने का प्रस्ताव दिया हुआ है, उन लोगों का समर्थन करना देश की एकता के लिए कैसे खतरा हो गया?सबसे पहले तो सरकार अपने तंत्र के जरिए चलवाए गए इस अभियान को बंद कराए कि कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे लोग देशद्रोही हैं? या अगर सरकार को सचमुच लग रहा है कि आंदोलन कर रहे किसान देशद्रोही हैं तो उनके साथ वार्ता बंद करे और उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करे! ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं कि सरकार उनसे वार्ता भी करे और उन्हें आतंकवादी-देशद्रोही भी बताए।