कैसे हिंदुस्तानी हो भई?

भारत में ‘जयचंद’,‘भस्मासुर’ और ‘काली भेड़’ की जमात हमेशा रही है। यह सिर्फ उदार लोकतंत्र के कारण संभव होता रहा है

Update: 2021-08-19 19:11 GMT

दिव्याहिमाचल। भारत में 'जयचंद','भस्मासुर' और 'काली भेड़' की जमात हमेशा रही है। यह सिर्फ उदार लोकतंत्र के कारण संभव होता रहा है। इतिहास ने इस जमात का चित्रण बखूबी किया है, लिहाजा आज भी हैरानी नहीं होती। तालिबान की तुलना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और हमारे क्रांतिवीरों से करने का दुस्साहस करने वाले शफीकुर्रहमान बर्क लोकसभा सांसद हैं। हिंदुस्तान की जनता ने ही उन्हें चुना है। लोकसभा भी भारतीय गणराज्य में है। तमाम आर्थिक संसाधन और 'अतिविशिष्ट' होने का दर्जा भी हिंदुस्तान ने ही दिया है। पेंशन भी भारतीय करदाताओं की जेब से अदा की जाएगी। सांसद का ओहदा ही कानून-निर्माता का है, लेकिन बर्क ने मर्यादा, गरिमा और संवैधानिक कानून की 'लक्ष्मण-रेखा' लांघी है। बाद में सफाई देना बेमानी है। इसी तरह मौलाना सज्जाद नोमानी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यकारिणी के सदस्य हैं। वह भी सामान्य शख्सियत नहीं हैं। कमोबेश हिंदुस्तानी तो हैं और सब कुछ इस देश ने ही बख्शा है। मौलाना का कुछ तो जनाधार होगा, चेले-चांटे भी होंगे। क्या संदेश जाएगा? नोमानी भी तालिबानी आतंकियों को 'आज़ादी के लड़ाके' मान रहे हैं और हिंदी मुसलमान की ओर से उन्हें 'सलाम' भेजा है। उनकी टिप्पणी है कि एक निहत्थी कौम ने दुनिया की सबसे ताकतवर फौज को शिकस्त दी है।

जि़ंदगी ताकत से नहीं, अल्लाह की मदद से जीती जाती है, यह तालिबान ने साबित किया है। उनके हौसलों को सलाम! अफगानिस्तान की आज़ादी को सलाम!! मुसलमानों के प्रख्यात शायर मुनव्वर राणा ने तो तालिबान पर शायरी ही शुरू कर दी है। उनका आग्रह है कि लड़ाकों को तालिबान नहीं, अफगान कहें। इन मुस्लिम चेहरों के अलावा, फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने तालिबान की तुलना 'हिंदू आतंकवाद' से की है। एक स्वांतः सुखायः एंकर लगभग हररोज़ सवाल कर रहे हैं कि मोदी सरकार चुप क्यों बैठी है? तालिबान से बात क्यों नहीं करती? क्या अब तालिबान को आतंकी कहा जा सकता है? बहरहाल हिंदुस्तान में ही ऐसी जमात के कई और चेहरे भी हो सकते हैं, जो तालिबान के साथ हमदर्दी जता रहे हैं, गुणगान कर रहे हैं और उन्हें जेहादी-आतंकी नहीं मानते। वे चेहरे भी हिंदुस्तानी हैं और देश ने ही उन्हें कोई पहचान दी है। तो आतंकियों को 'सलाम' ठोंकने और 'आज़ादी के रणबांकुरे' मानने के मायने क्या हैं? क्या वे तालिबान के प्रवक्ता या भाट हैं? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उन्हें आतंकियों की 'काली सूची' में डाल रखा है। वे दुर्दान्त आतंकवादी लादेन की नस्ल हैं। उन पर कई देशों में पाबंदियां हैं। मानवाधिकार परिषद के 29 देशों के आग्रह पर 24 अगस्त को यूएन मानवाधिकार आयोग की बैठक जिनेवा में बुलाई गई है। अफगान नागरिकों, खासकर बच्चियों, औरतों के मानवाधिकार की चिंता का सवाल सामने है। आयोग तालिबान की कथित हुकूमत को निर्देश देगा कि मानवाधिकार सुरक्षित रहने चाहिए। ब्रिटेन के आग्रह पर जी-7 देशों की बैठक अगले सप्ताह होनी है।
अमरीकी सरकार ने अफगानिस्तान सरकार के बैंक खाते सीज कर दिए हैं। खातों में करीब 700 करोड़ डॉलर की रकम बताई जा रही है। यह इसलिए किया गया है कि वह राशि तालिबान आतंकियों के पास तक न पहुंच जाए! पूरा विश्व अफगानिस्तान के घटनाक्रम से हिला हुआ है। अफगान में से ही इनक्लाब और बग़ावत की आवाज़ें बुलंद हो रही हैं। औरतें भी सड़कों पर प्रदर्शन कर रही हैं। जलालाबाद, खोस्त, पंजशीर घाटी के इलाकों में अब भी अफगानिस्तान का अधिकृत झंडा लहरा रहा है, लिहाजा लड़ाके गोलियां चला रहे हैं। मौतें भी हो रही हैं। इसी बीच उपराष्ट्रपति रहे अमरुल्ला सालेह ने कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर लिया है। पंजशीर घाटी तक तालिबान नहीं पहुंच पाए हैं, लिहाजा वहां उनका कब्जा नहीं है। बहरहाल यह आज़ादी की लड़ाई होती, तो देश भर में जश्न होता। लोगों के हाथ में एक ही झंडा होता, आज़ादी के बाद एक ही राष्ट्रीय नेता तय हो जाता, जनता खुश होती और देश छोड़ने की अराजकता न देखनी पड़ती, एक टोकरी में सात महीने की लावारिस बच्ची न देखनी पड़ती। कैसे हिंदुस्तानी हो भई और किसके कसीदे पढ़ रहे हो? अभी तक काबुल में हुकूमत का चेहरा और नेता भी तय नहीं हो सका है। तालिबान में भी पचासियों गुट हैं। हमारे प्रिय चारण-भाटो! कुछ प्रतीक्षा करो। देशद्रोह कानून के केस झेलो। शायद तब तक काबुल की तस्वीर भी साफ हो जाएगी!


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