उम्मीदें और आशंकाएं

अपराध मुक्त समाज की कल्पना एक सभ्य समाज सदा करता रहा है। ऐसा समाज बनाने की जिम्मेदारी सरकार की है। यह बात दीगर है कि एमिले दुर्खाइम जैसे कतिपय समाजशास्त्रियों ने यह भी कहा है

Update: 2022-04-17 04:31 GMT

बिभा त्रिपाठी: अपराध मुक्त समाज की कल्पना एक सभ्य समाज सदा करता रहा है। ऐसा समाज बनाने की जिम्मेदारी सरकार की है। यह बात दीगर है कि एमिले दुर्खाइम जैसे कतिपय समाजशास्त्रियों ने यह भी कहा है कि न कभी कोई समाज अपराध मुक्त रहा है, न कभी रहेगा। फिर भी अपराध की दरें कम करना, दंड सुनिश्चित करना और अपराध नियंत्रण हेतु प्रयत्नशील रहना एक देश और समाज का महती दायित्व है।

संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित आपराधिक प्रक्रिया शिनाख्त विधेयक की आवश्यकता, उम्मीदों और आशंकाओं पर तेज होती चर्चा के संदर्भ में ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इस विधेयक का एक निष्पक्ष विश्लेषण हों। यह ठीक है कि कोई भी कानून शाश्वत नहीं होता, समय के साथ उसे बदलना पड़ता है।

मगर वर्तमान कानून अगर लागू होता और इसकी खामियों का खमियाजा समाज को भुगतना पड़ता है, तो इसे उचित नहीं कहा जाएगा। इसलिए इस कानून की सूक्ष्म विवेचना और इसे लेकर उठ रही शंकाओं का उचित समाधान किया जाना चाहिए।

गौरतलब है कि 1980 में विधि आयोग ने कैदी पहचान अधिनियम, 1920 का विश्लेषण कर अपराध अन्वेषण की आधुनिक पद्धतियों के मद्देनजर इसमें बदलाव की वकालत की थी। फिर 2003 में न्यायमूर्ति मलिमथ समिति ने मजिस्ट्रेट को विभिन्न प्रकार के जैविक और व्यावहारिक नमूने संग्रहित करने के लिए अधिकृत करने की सिफारिश की थी।

कैदियों की शिनाख्त हेतु 1920 में बने कानून में दोषसिद्ध और गिरफ्तार व्यक्तियों के हाथ-पैर के नमूने, फोटो आदि संग्रहित करने का प्रावधान था। पर उसका दायरा सीमित था। अब जबकि वैश्विक स्तर पर नमूना संग्रह की विकसित तकनीक द्वारा दोषसिद्धि की दरों में वृद्धि देखी जा रही है, तो इसकी परिधि में विस्तार की आवश्यकता महसूस की गई। नए कानून द्वारा नमूनों की प्रकृति और संग्रह करने वाले प्राधिकृत व्यक्तियों में भी विस्तार किया गया है।

इसमें राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो को समस्त नमूनों को संग्रहित करने, सुरक्षित रखने, उपलब्ध कराने, प्रयोग और विनष्ट करने का अधिकार भी उपलब्ध कराया गया है। उल्लेखनीय है कि 1920 और 2022 दोनों ही अधिनियमों में नमूने देने से इनकार को लोक सेवक के कर्तव्य अनुपालन में बाधा मानते हुए एक आपराधिक कृत्य माना गया है।

इस अधिनियम के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि इसका उद्देश्य पुलिस और फोरेंसिक टीम की क्षमता बढ़ाना है। इसके द्वारा थर्ड डिग्री का प्रयोग खत्म हो जाएगा, और जांच एजेंसियों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मदद मिलेगी।

हालांकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि नई व्यवस्था में नमूने संग्रहित करने के लिए हजारों विशेषज्ञों की आवश्यकता होगी और इसकी शुरुआत आदतन अपराधियों से करनी चाहिए। उन्होंने अत्याधुनिक फोरेंसिक लैब और इससे संबंधित विशेषज्ञों की संख्या बढ़ाने की बात भी की है।

इस कानून के विपक्ष में प्रस्तुत तर्कों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि विपक्ष की मुख्य आपत्ति यह है कि अंग्रेजी शासन में जब देश गुलाम था, तब जानबूझ कर ऐसे अधिनायकवादी कानून लागू किए गए थे, ताकि देशवासियों में भय व्याप्त हो। कानूनों में संशोधन का लक्ष्य उन्हें उदारवादी बनाने का होना चाहिए था, न कि निरंकुशवादी। यह भी तर्क दिया गया कि मौलिक अधिकार संविधान का मूलभूत ढांचा है और मूलभूत ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

दूसरी प्रमुख आपत्ति इस विधेयक को संसदीय समिति के समक्ष भेजे जाने को लेकर की गई थी। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में कानून बनने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक ढंग से ही निष्पादित होनी चाहिए।

सदन में एक दल के बहुमत में होने का अभिप्राय यही है कि अगर कोई भी विधेयक सत्ता पक्ष द्वारा लाया जाएगा तो वह ध्वनिमत से पारित ही होगा, लेकिन इसी बीच अगर विपक्ष की आवाज को गरिमा प्रदान करते हुए विधेयक को संसदीय समिति के पास भेज कर स्वस्थ चर्चा, बहस द्वारा सुधार की गुंजाइश पर उचित विमर्श किया जाता है, तो इससे लोकतंत्र का भविष्य भी सुरक्षित होता है।

यों तो हर कानून के दुरुपयोग की गुंजाइश बनी रहती है, पर जहां पुलिस के दमनकारी व्यवहार का एक लंबा इतिहास रहा हो और उसमें सुधार संबंधी सुझावों का अनुपालन न कराया जा सका हो, वहां हम अपनी आदर्शवादी इच्छाओं का पुलिस से कितना अनुपालन करा पाएंगे, यह एक विचारणीय प्रश्न है।

विडंबना है कि जब महिला विषयक अपराधों में दोषसिद्धि कम हुई तो उसका आरोप महिलाओं पर ही मढ़ा गया। दूसरी ओर, दोषसिद्धि की दर बढ़ाने के लिए ऐसे कानूनों की न सिर्फ आवश्यकता महसूस की गई, बल्कि उन्हें लागू कराने का पुरजोर प्रयास भी किया जा रहा है। पर इसमें अपराध की प्रकृति, प्रभाव और दंड की सीमा के आधार पर कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं किया गया है।

पहली बार का अपराधी, कम उम्र का अपराधी, जो 'प्रोबेशन आफ आफेंडर्स एक्ट' द्वारा शासित होते थे, और ऐसे किशोर अपराधी, जो सोलह वर्ष से ऊपर और अठारह वर्ष से नीचे हैं, उनके लिए किसी आपवादिक प्रावधान की चर्चा भी इस विधेयक में नहीं की गई है।

जहां तक जैविक नमूनों के संग्रहण की बात है, विधेयक में महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराध के मामले की चर्चा तो है, पर ऐसा लैंगिक अपराधों के मामले में ही होगा, यह विशेष रूप से उल्लिखित नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो को तो अधिकारों से लैस कर दिया गया है, पर देखना है कि वह किस प्रकार उन समस्त दायित्वों का निष्पादन कर पाएगा?

कानून में उल्लिखित है कि अपील की समस्त प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद अगर दोष मुक्ति हो जाती है, तो उस व्यक्ति के नमूनों को नष्ट कर दिया जाएगा, पर उन नमूनों को विनष्ट किए जाने का सबूत और सूचना उस व्यक्ति को कैसे दी जाएगी? कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है, इसलिए सवाल है कि केंद्रीय इकाई द्वारा भिन्न-भिन्न दलों द्वारा शासित राज्यों के बीच हितों का संतुलन कैसे स्थापित किया जाएगा?

इस विधेयक की धारा-6 पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है, क्योंकि एक तरफ यह धारा खंड एक में प्रावधान करती है कि अगर कोई व्यक्ति नमूने देने से इनकार या उसका विरोध करता है तो पुलिस और जेल अधिकारी को अधिकार होगा कि वे उसी प्रकार नमूनों का संग्रह करें जैसा प्रावधान किया गया है। धारा 6 की उपधारा दो कहती है कि विरोध या अस्वीकृति को भारतीय दंड संहिता की धारा 186 के अंतर्गत अपराध माना जाएगा।

कहने का अर्थ कि इसके विरोध का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, पर पुलिसिया बर्बरता पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त उपबंध किए बिना उन्हें अन्य अधिकारों से लैस करना निश्चित ही एक विचारणीय प्रश्न खड़ा करता है। ऐसे में आवश्यकता है कि जब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इस कानून का प्रवर्तन सुनिश्चित कराने के लिए नियमावली बनाई जाए, तब इन सभी प्रश्नों को ध्यान में रखा जाए और न्याय, साम्य एवं सद्विवेक के आधार पर नैसर्गिक अधिकारों के संरक्षण को सुनिश्चित करते हुए नियमावली बनाई जाए।

फिर यह भी समझना पड़ेगा कि दंड की गंभीरता नहीं, बल्कि दंड की सुनिश्चितता और शीघ्रता ही भयकारी सिद्धांत का आधार है। अपराधियों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न प्रकार के अपराधों के बीच एक उचित वर्गीकरण, उसके प्रभाव और सफलता के आधार पर ही वर्तमान कानून का विस्तार निश्चित होना चाहिए।


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