हिंदुत्व और राष्ट्रवाद : दक्षिण में ताकत बनती भाजपा, अतीत की घटनाओं ने पैठ बढ़ाने में निभाई भूमिका
केंद्र में भाजपा की सरकार होने और उत्तर भारत में इसकी अभूतपूर्व मजबूती के बावजूद कुछ समय पहले तक भी दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति का कोई खास प्रभाव नहीं था
भास्कर साई
केंद्र में भाजपा की सरकार होने और उत्तर भारत में इसकी अभूतपूर्व मजबूती के बावजूद कुछ समय पहले तक भी दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति का कोई खास प्रभाव नहीं था। लेकिन दक्षिण भारत में आश्चर्यजनक रूप से अब भाजपा का असर दिखाई देने लगा है। निकट अतीत की एकाधिक घटनाओं ने दक्षिण में भाजपा की पैठ बढ़ाने में भूमिका निभाई है। कर्नाटक दक्षिण भारत का अकेला राज्य है, जहां भाजपा पिछले कई दशकों से मजबूत है।
उल्लेखनीय है कि के. एच. सुदर्शन, एच. वी. शेषाद्रि और दत्तात्रेय होसबोले जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेता की जड़ें कर्नाटक में हैं। इस राज्य में भाजपा के ताकतवर होने का एक कारण यह भी है कि यहां कोई क्षेत्रीय पार्टी मजबूती से उभर नहीं पाई। यह आकस्मिक नहीं है कि कर्नाटक में भाजपा का उभार बीती सदी के आखिरी दशक में तब हुआ, जब वहां कांग्रेस खत्म हो रही थी। हाल के दिनों में वहां हिजाब के अलावा उठे दूसरे मुद्दों से हिंदुत्व की राजनीति के उत्तरोत्तर मजबूत होने का ही पता चलता है।
वहां विधानसभा अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगडे ने हाल ही में यह टिप्पणी की है कि संघ परिवार से जुड़े होने का उन्हें गर्व है। इसी तरह बसवराज बोम्मई सरकार में मंत्री के. एस. ईश्वरप्पा ने कहा है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब भाजपा का झंडा राष्ट्रीय झंडा बनेगा। गौर करने वाली बात यह भी है कि हिजाब से जुड़े विवाद के दौरान राज्य में अनेक लोगों ने खुलेआम यह कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, इसलिए क्लासरूम में हिंदुत्व की पहचान से जुड़ी वस्तुओं के साथ हिजाब की तुलना नहीं की जा सकती।
खुद मुख्यमंत्री बोम्मई कुछ महीने पहले बजरंग दल द्वारा की गई हिंसा को घटना की प्रतिक्रिया बताते हुए सही ठहरा चुके हैं। राज्य में हिंदुत्व के बढ़ते दबदबे के कारण ही पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 50 फीसदी से अधिक था। तमिलनाडु में भाजपा की वैसी उपस्थिति भले न हो, पर मौजूदा विधानसभा में पार्टी के चार विधायक हैं। भाजपा जानती है कि इस दक्षिणी राज्य में राम के नाम पर राजनीति करना कठिन है, इसलिए उसने राम की जगह मुरुगा को महत्व दिया है।
'कंडा षष्टि कवचम्' विवाद से भी राज्य में भाजपा ने अपनी प्रासंगिकता बनाई है। हाल में 'पट्टिना प्रवेशम्', जिसमें शैव मत के महंत को पालकी में बिठाकर कंधों पर ले जाने की परंपरा है, पर हुआ विवाद भी राज्य में हिंदुत्व के बढ़ते असर का प्रमाण है। द्रमुक सरकार ने पहले धर्मपुर मठ में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन बढ़ते दबाव के कारण उसे वह प्रतिबंध हटाना पड़ा। कभी द्रमुक मंदिरों में जाने और भगवान के सामने पूजा करने की सख्त आलोचना करती थी, लेकिन अब इसी पार्टी के नेताओं को अपनी धार्मिक निष्ठा के बारे में बताते हुए हिचक नहीं होती।
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि तमिलनाडु के लोग हिंदू धर्म और राजनीतिक हिंदुत्व के बीच का फर्क बखूबी समझते हैं। इसके बावजूद राज्य में हिंदुत्व के बढ़ते असर से इनकार नहीं किया जा सकता। इसका बड़ा प्रमाण यह भी है कि मुख्यमंत्री के रूप में स्टालिन के एक साल के कार्यकाल की तीखी आलोचना भाजपा ने ही की है। आंध्र प्रदेश में भाजपा की वैसी उपस्थिति नहीं है, लेकिन चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी (तेलगु देशम पार्टी) जिस तरह खुद को भाजपा की समर्थक के रूप में पेश कर रही है, उससे साफ है कि वहां हिंदुत्व की जमीन तैयार करने की कोशिश हो रही है।
यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की रणनीति के जरिये नायडू अपनी पार्टी का जनाधार मजबूत करने में लगे हैं। चूंकि राज्य के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ईसाई हैं, इस कारण नायडू उन पर धर्मांतरण को प्रोत्साहित करने का आरोप लगा चुके हैं। पिछले दिनों उन्होंने कहा, 'जगन मोहन रेड्डी बेशक ईसाई हैं, लेकिन हिंदुओं का धर्मांतरण करने के लिए राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल करना गलत है।' जगन मोहन रेड्डी पर यह भी आरोप लगाया गया है कि उनमें हिंदू परंपराओं के प्रति कोई सम्मान नहीं है।
इसकी प्रतिक्रिया में मुख्यमंत्री रेड्डी ने नौ मंदिरों के पुनर्निर्माण की आधारशिला रखी। वर्ष 2024 में आंध्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और भाजपा का मानना है कि वहां राजनीतिक लड़ाई त्रिकोणीय होगी। जहां तक तेलंगाना की बात है, तो वहां हिंदुत्व के असर का प्रमाण यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा वहां कुल सत्रह में से चार लोकसभा सीटें जीतकर सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति के बाद दूसरे स्थान पर थी। तेलंगाना में हैदराबाद हिंदुत्व के उभार का मुख्य केंद्र है।
वर्ष 2020 के अंत में हैदराबाद में हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा ने बहुत रुचि दिखाई और वहां हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का कार्ड बेहद प्रभावी तरीके से खेला गया। उसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा को 48 वार्डों में विजय मिली। उस चुनाव में भाजपा की शानदार सफलता ने राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी राजनीतिक गठबंधन बनाने की योजना ध्वस्त कर दी थी। उसके बाद राव ने अपना पूरा ध्यान तेलंगाना की राजनीति पर केंद्रित कर लिया।
तेलंगाना में रामानुजाचार्य की प्रतिमा के अनावरण को हिंदुत्व की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी ओर, कांग्रेस को तेलंगाना में न केवल किसी क्षेत्रीय पार्टी का समर्थन प्राप्त नहीं है, बल्कि हाल ही में उदयपुर में संपन्न चिंतन शिविर में 'एक परिवार-एक टिकट' का प्रस्ताव तेलंगाना के अनेक कांग्रेस नेताओं के लिए झटका है, क्योंकि वहां अनेक कांग्रेस नेताओं के परिजन महत्वपूर्ण पदों पर हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों के मुताबिक, तेलंगाना में कांग्रेस की संभावनाएं क्षीण हैं।
केरल अकेला दक्षिणी राज्य है, जहां भाजपा की राजनीति अभी तक सफल नहीं हुई है। हिंदू राज्य की कुल आबादी का करीब 55 प्रतिशत हैं और वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी लंबे समय से सक्रिय है, जिसके प्रचारक स्थानीय स्तर पर बेहद सक्रिय हैं। इसके बावजूद राज्य में भाजपा का असर न के बराबर है, क्योंकि हिंदू धर्म में आस्था होने के बावजूद वहां के लोग हिंदुत्व की राजनीति के प्रति आकर्षित नहीं हैं।