हिमाचल प्रदेश : आजादी के दीवाने दुर्गामल और दल बहादुर

दोनों शहीदों की स्मृति में धर्मशाला के दाड़ी गांव में एक स्मारक का निर्माण किया गया है।

Update: 2021-11-28 01:58 GMT

आजादी के अमृत महोत्सव की कड़ी में हिमाचल प्रदेश के उन दो गोरखा सपूतों का स्मरण आवश्यक है, जिन्होंने आजाद हिंद फौज़ में रहते हुए कोहिमा में ब्रिटिश सैनिकों को नाकों चने चबाने के लिए बाध्य किया और अंतत: फांसी पर झूल गए। मेजर दुर्गामल और कैप्टन दल बहादुर की जड़ें धर्मशाला में थीं ओर वे छोटी उम्र में ही सेना में भर्ती हो गये थे।

उन्हें दूसरे विश्वयुद्ध में जापान के विरुद्ध लड़ने के लिये भेजा गया था, लेकिन जापान ने ब्रिटेन को पराजित कर सिंगापुर पर कब्जा कर लिया था। जब सुभाष चंद्र बोस ने आईएनए का गठन किया, तो जापान ने 50 हजार से अधिक हिंदुस्तानी सिपाहियों को रिहा कर दिया, ताकि वे अपने देश की आजादी के लिए ब्रिटिश हुकूमत से लोहा ले सकें।
वर्ष 1913 में देहरादून में जन्मे मेजर दुर्गामल के पिता श्री गंगा राममल भी भारतीय सेना में एक सिपाही थे। युवावस्था में ही दुर्गामल गांधी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रेरित थे। 17 साल के इस युवक पर सत्याग्रह का जादू इस कदर हावी था कि वह स्वयं इसमें कूद पड़े। गांधी के इस आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया।
घरवालों ने 1931 में दुर्गामल को उनके चाचा के पास धर्मशाला भेज दिया और उसी साल वह गोरखा रेजीमेंट में भर्ती हो गये। वह फुटबॉल खिलाड़ी थे और सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे, जिनके बलबूते वह लोकपि्रयता के शिखर पर पहुंच गए थे। 28 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। वर्ष 1941 में उनकी यूनिट सिंगापुर पहुंची, जिसे जापानी हुकूमत ने 1942 में हिरासत में ले लिया।
अपने हजारों साथी सिपाहियों के साथ 1944 में दुर्गामल ने आईएनए में शामिल होने के लिये स्वैच्छिक सहमति दी। वह आजाद हिंद फौज में मेजर बने और उन्हें सीमा पर जासूसी करने का दायित्व सौंपा गया, ताकि ब्रिटिश फौज की गतिविधियों की सूचनाएं अपने कमांडर को दे सकें। इस काम में उन्हें अपार कामयाबी मिली। लेकिन अंग्रेजों को जब इस बारे में पता चला, तो उन्होंने 27 मई 1944 को उन्हें कोहिमा में बंदी बना लिया गया।
फिर उन्हें लाल किला में हिरासत में रखा गया। उन्हें अनेक प्रलोभन देने के प्रयास किए गए, ताकि वे माफी मांगकर रिहा हो जाएं।। लेकिन वह झुकने को तैयार नहीं हुए। वह नेताजी सुभाष के नारे 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' से बेहद प्रभावित थे। पूरी उम्र वह नेताजी के व्यक्तित्व और उनके काम से अभिभूत रहे। जब अंग्रेज दुर्गामल को झुकाने के प्रयास में सफल नहीं हो पाए, तो 25 अगस्त 1944 को उन्हें लाल किले में ही फांसी पर लटका दिया।
गोरखा समुदाय के सुनहरे इतिहास में एक और रणबांकुरे दल बहादुर की शौर्यगाथा मेजर दुर्गामल से मिलती जुलती है। दुर्गामल की तरह दल बहादुर भी एक सिपाही के बेटे थे और 1907 में बड़ाकोट, धर्मशाला में पैदा हुए थे। आठवीं पास कर सत्रह साल की उम्र में वह फौज में भर्ती हो गए थे। फौज में बतौर प्रशिक्षु वह बेहद सक्रिय थे। दल बहादुर एक दक्ष खिलाड़ी थे और अपनी निशानेबाजी के लिए विख्यात थे।
बाद में वह आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए। न मालूम कितने ही ब्रिटिश फौजियों को कैप्टन दल बहादुर ने जंग में मौत के घाट उतार दिया था। कोहिमा-मणिपुर के घने जंगलों के बीच दल बहादुर ने अपनी टुकड़ी के साथ अंग्रेज सैनिकों से लोहा लिया। आईएनए सैनिकों की वीरता और दम-खम के बलबूते पूर्वोत्तर में यह लड़ाई कई दिनों तक चलती रही।
20 जून 1944 को ब्रिटिश सेना ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और आजाद हिंद फौज को चारों तरफ से घेर लिया, लेकिन दल बहादुर युद्धस्थल पर डटे रहे। आखिरकार ब्रिटिश सेना ने आईएनए के अनेक सिपाहियों के साथ कैप्टन दल बहादुर को भी बंदी बना लिया। दिल्ली में लाल किले में बंदी के रूप में रखने के बाद 12 फरवरी, 1945 को उन पर मुकदमा चलाया गया।
15 मार्च को उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। दल बहादुर माफी मांगें, इसके लिए उनकी पत्नी चंपावती पर भी दबाव डाला गया। लेकिन वह अपने पति के फैसले के साथ खड़ी थीं। उनका कहना था, 'मेरे पति कैप्टन दल बहादुर माफी क्यों मांगेंगे? अपने देश की आजादी के लिए जंग में कूदना क्या कोई अपराध है?' अदालत में जब जज ने दल बहादुर को फांसी की सजा सुनाई, तो दल बहादुर ने कहा था, 'सेना में भर्ती होना मेरा स्वयं का फैसला था।
मैं अपने मातृभूमि की आजादी के लिए कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार हूं। मैंने जो कुछ किया, उस पर मुझे कोई कोई गिला-शिकवा नहीं है। ' तीन मई, 1945 को फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए उन्हें एक राष्ट्रीय गीत गुनगुनाते हुए सुनाया गया था। दोनों शहीदों की स्मृति में धर्मशाला के दाड़ी गांव में एक स्मारक का निर्माण किया गया है।

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