जनमत का अपहरण
संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के विभिन्न उपबंधों को अत्यंत बारीकी से निरूपित किया था कि कहीं कोई संशय न रहे। सत्तर के दशक तक बहुत हद तक इसके आयामों के अनुपालन की स्थिति विद्यमान रही, जबकि आपातकाल के समय से लोकतंत्र के शीर्ष मंदिर से संवैधानिक प्रावधानों की अपनी सुविधानुसार व्याख्या की जाने लगी और इसे लागू करने में दलीय-सह-निजी हितों की प्राथमिकता प्रबल रूप से दृष्टिगोचर भी हुई।
Written by जनसत्ता; संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के विभिन्न उपबंधों को अत्यंत बारीकी से निरूपित किया था कि कहीं कोई संशय न रहे। सत्तर के दशक तक बहुत हद तक इसके आयामों के अनुपालन की स्थिति विद्यमान रही, जबकि आपातकाल के समय से लोकतंत्र के शीर्ष मंदिर से संवैधानिक प्रावधानों की अपनी सुविधानुसार व्याख्या की जाने लगी और इसे लागू करने में दलीय-सह-निजी हितों की प्राथमिकता प्रबल रूप से दृष्टिगोचर भी हुई।
लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के समय हर राजनीतिक दल औपचारिक रूप से अपने कार्यक्रम तथा वचन पत्र लेकर मतदाताओं के समक्ष जाते हैं और वे जनता-जनार्दन को आश्वासन भी देते हैं कि सत्ता में आने पर उनके हित के लिए वे अमुक योजनाओं को लागू करेंगे। 'हारे को हरिनाम' की मुद्रा में मतदाता अगले पांच वर्षों के लिए अपना अमूल्य मत इच्छित चुनावी प्रत्याशी को देकर उन्हें सरकार गठन का अवसर प्रदान कर बैठते हैं।
लेकिन राजनीतिक रंगशाला में जब से दल-बदल का विहंगम खेल दल-बदल कानून को ठेंगा दिखाते हुए खेला जाने लगा तो लोकतंत्र की लालिमा धूमिल होने लगी। जिन दलों ने अपनी घोषणा पत्र के आधार पर मतदाताओं से जनतांत्रिक शक्ति प्राप्त की थी, वे उसकी तिलांजलि देकर खुद सत्ता संचालन के प्रतीक बन बैठे। कई राज्यों के घटनाक्रम साक्षी हैं कि सुविधा की राजनीति की प्राथमिकता देते हुए दल विशेष ने अपने प्रबल विरोधियों से मिलकर भी बेमेल गठबंधन द्वारा सरकार बना ली।
बुनियादी सवाल यही है कि क्या उनके इस कृत्य से क्या मतदाता ठगे नहीं गए, जिन्होंने दल विशेष को उनके घोषित कार्यक्रम पर मुहर लगाते हुए उन्हें विजयी बनाया था। लोकतंत्र का यह तकाजा है कि ऐसे दलों से प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि आखिर जब आप दूसरे दलों से गलबहियां कर सरकार बना रहे थे तो क्या आपने अपने मतदाताओं से इसकी अनुमति प्राप्त की थी।
प्राप्त जनादेश के विरुद्ध अगर किसी दल को सरकार चलाने में असुविधा या संकट हो तो नैतिकता का तकाजा है कि वे त्याग पत्र देकर अपनी बात जनता के समक्ष रखें और नूतन कार्यक्रम की प्रस्तुति से फिर से जनादेश प्राप्त करें।
देश के अनेक राज्यों में ऐसी घटनाएं प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। चूंकि इस खेल में सभी राजनीतिक दल सहभागी बने हुए हैं तो सवाल यह भी है कि बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधे। दिन के उजाले में जनादेश के हो रहे निर्मम अपहरण अंश को राष्ट्रीय विमर्श बनाने की आज जरूरत है, ताकि सहमा, ठगा-सा और द्वंद्व में झूलता मतदाता जागरूकता की कसौटी पर यह तय करे कि पिछले चुनाव में जिस दल ने उनके जनमत के साथ बड़ी चतुराई से खिलवाड़ किया, उन्हें आगामी चुनावी समर में सही पाठ पढ़ाया जाए।