टकराव में महामहिम
राज्यपाल अपने अधिकार का उपयोग करना चाहते हैं, तो राज्य सरकारें अपने निर्वाचित होने का हवाला दे रही हैं। केरल में राज्यपाल ने कुछ दिनों पहले दस विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से इस्तीफा मांग लिया। उनका कहना था कि उनकी नियुक्ति में तय नियम-कायदों का पालन नहीं किया गया।
Written by जनसत्ता; राज्यपाल अपने अधिकार का उपयोग करना चाहते हैं, तो राज्य सरकारें अपने निर्वाचित होने का हवाला दे रही हैं। केरल में राज्यपाल ने कुछ दिनों पहले दस विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से इस्तीफा मांग लिया। उनका कहना था कि उनकी नियुक्ति में तय नियम-कायदों का पालन नहीं किया गया।
इसे लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच ठन गई। बाद में उच्च न्यायालय ने राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी। अब राज्य सरकार ने राज्यपाल का विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का दर्जा समाप्त करने का अध्यादेश पारित कर दिया है। हालांकि उस पर भी राज्यपाल की मंजूरी आवश्यक है, मगर अपने-अपने अधिकारों को लेकर जंग छिड़ी हुई है।
इसके अलावा कुछ दिनों पहले राज्यपाल ने सरकार के एक मंत्री को हटाने के लिए मुख्यमंत्री को पत्र लिखा, जो स्वाभाविक ही राज्य सरकार को नागवार गुजरा और उसे लेकर भी दोनों के अधिकार क्षेत्र पर बहस शुरू हो गई। इसी तरह तमिलनाडु सरकार ने राष्ट्रपति को पत्र लिख कर वहां के राज्यपाल को हटाने की मांग की है। उसका आरोप है कि राज्यपाल उसके कामकाज में बेजा दखल दे रहे हैं। तेलंगाना के राज्यपाल का आरोप है कि राज्य सरकार उनका फोन 'टैप' करा रही है।
हालांकि राज्यपाल या उपराज्यपाल और चुनी हुई सरकारों के बीच तनातनी के ये मामले नए नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में भी कुछ दिनों पहले तक राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच इसी तरह लगातार टकराव बना रहा। राज्यपाल सरकार के कामकाज और फैसलों पर अंगुली उठाते रहे, तो सरकार उन्हें चुनौती देती रही। दिल्ली में उपराज्यपाल और सरकार के बीच तनातनी का दौर बहुत लंबे समय से चलता आ रहा है।
यहां आम आदमी पार्टी सरकार का लगभग सभी उपराज्यपालों से तकरार बनी रही। शुरू में दोनों के बीच अधिकारों की लड़ाई उच्च न्यायालय तक भी पहुंची थी। झारखंड और राजस्थान में भी अलग-अलग मौकों पर कुछ मसलों पर इस तरह के टकराव देखे जाते रहे हैं। इस तरह विपक्षी दलों को यह कहने का मौका मिलता है कि जहां भी विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां राज्यपाल उनके कामकाज में बेवजह दखल देने का प्रयास करते देखे जाते हैं, जबकि भाजपा सरकारों वाले प्रदेशों में ऐसी स्थिति नहीं है। ऐसे में राज्यपाल पद की गरिमा और मर्यादा को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।
यह ठीक है कि राज्य सरकारें निर्वाचित होती हैं, उन्हें जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए काम करने का अधिक अधिकार होता है और राज्यपाल को उनके कामकाज को सुगम बनाने के लिए बेहतर स्थितियां बनाने का दायित्व निभाना होता है। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि सरकारें राज्यपाल को केंद्र का 'आदमी' मान कर नजरअंदाज करें या उनकी अवहेलना करें।
पर राज्यपाल से भी अपेक्षा की जाती है कि वे अपने को केंद्र के सत्तारूढ़ दल का प्रतिनिधि मान कर उसकी विचारधारा के अनुरूप राज्य सरकार से काम करवाने का प्रयास करने के बजाय राज्यपाल की गरिमा के अनुरूप काम करें। हालांकि केंद्र द्वारा राज्यपालों को अपने नुमाइंदे के तौर पर नियुक्त करने की प्रवृत्ति पुरानी है, पर राज्य सरकारों के साथ इन टकरावों को देखते हुए एक बार फिर से राज्यपाल की नियुक्ति पर नए सिरे से विचार की जरूरत रेखांकित हुई है। फिर सवाल उठता है कि आखिर सक्रिय राजनीति में रह चुके लोगों को इस पद का दायित्व सौंपा ही क्यों जाना चाहिए।