हर्ड इम्युनिटी से ही समाज को कोरोना वायरस के प्रकोप से मिल सकता है निदान
आज से कुछ दशक पहले जब कैटरिंग प्रणाली बहुत प्रचलित नहीं हुई थी,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आज से कुछ दशक पहले जब कैटरिंग प्रणाली बहुत प्रचलित नहीं हुई थी, तब ग्रामीण इलाकों में किसी मौके पर आयोजित महाभोज की व्यवस्था जन-सहभागिता पर आधारित होती थी। जिसे जिस कार्य में विशिष्टता हासिल होती थी, वह उसे संपन्न करने की जिम्मेदारी दी जाती थी। पूरी निष्ठा के साथ उस दायित्व का वह व्यक्ति निर्वहन करता था। ऐसे मौकों पर अधिकांश मामलों में दो तरह की सब्जियां बनती थीं- सूखी और रसादार। इसके अपने फायदे हुआ करते थे। लोगों को दो तरह के स्वाद का आनंद भी मिलता था। एक अति सुलभ मौसमी और एक दुर्लभ सब्जी का लोग लुत्फ उठा लेते थे। मंशा के प्रतिकूल ऐसे मौकों पर एक सब्जी सुस्वादु हो जाया करती थी, तो दूसरी को लोग कम तवज्जो देने लगते थे।
लिहाजा आपूर्ति असंतुलित हो जाती थी। ऐसे में उन संकटमोचकों की राय ली जाती थी, जिन्हें इन हालातों से निपटने की विशेषज्ञता हासिल होती थी। वे सलाह देते थे कि परोसने वाले अब सूखी और रसादार सब्जी की आवाज नहीं लगाएंगे, सिर्फ सब्जी-सब्जी कहेंगे। जो मांगेगा उसे उपलब्ध सब्जी ही दे देंगे। हालांकि इस तरीके से काम तो चल जाता था, लेकिन अप्रत्यक्ष छीछालेदर को कोई नहीं टाल पाता था। इतनी लंबी प्रस्तावना को जब आप कोविड-19 महामारी की शुरुआत, उसका टीका बनने और उसके बाद भारतीय संदर्भ में उठे विवाद से जोड़कर देखेंगे तो हमारी समझ ज्यादा विकसित होगी कि टीकाकरण के दौरान होने वाली छीछालेदर से बचने के लिए हमें क्या कदम उठाने चाहिए।
भारत में भी आपात इस्तेमाल के लिए दो वैक्सीन की अनुमति मिल चुकी है। दोनों की तासीर जुदा है। एक (कोविशील्ड) आधुनिक तरीके से बनी है तो दूसरी (कोवैक्सीन) परंपरागत तरीके से बनी है। हालांकि दोनों के किफायती और कारगर होने की बातें समान हैं, लेकिन अपने-अपने स्वार्थो के चलते कौन बेहतर का सवाल तैरने लगा है। कुछ लोग तो अज्ञानतावश वैक्सीन लगवाने को ही खारिज कर रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि अगर इस महामारी की वैक्सीन एक साल के भीतर आ गई तो भी उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध इसलिए है, क्योंकि हमारे विज्ञानियों ने दिन-रात एक करके इसे तैयार किया है।
पोलियो के वायरस का पता 1908 में लगा और दुनिया को अपंग करने पर आमादा इस वायरस की काट 1955 में खोजी गई। तब करीब आधी सदी लग गई थी इस महामारी के टीके की खोज में। जनवरी, 2020 में बीमारी के शुरू होने के साथ ही चीन ने वायरस के जेनेटिक कोड की जानकारी वैश्विक स्तर पर उपलब्ध कराई। दुनिया के विज्ञानी एकत्र हुए और शुरुआत से ही टीके के विकास पर काम शुरू हो गया। दरअसल कोविड-19 से पहले भी सार्स व मर्स कोरोना वायरस की महामारी चीन सहित कुछ देशों में आती रही है। इस वजह से उन वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन बनाने पर काम चल रहा था। फाइजर व मॉडर्ना द्वारा तैयार कोरोना का सबसे पहले जो टीका आया है वह मैसेंजर आरएनए तकनीक पर आधारित है।
विज्ञानी इस तकनीक पर पहले से काम रहे थे। इस वजह से जब यह महामारी आई तो मैसेंजर आरएनए तकनीक से जल्द टीका बनाने में कामयाब हुए। वहीं ऑक्सफोर्ड व भारत बॉयोटेक सहित भारतीय कंपनियों व कई अन्य देशों ने पुरानी तकनीक से कम समय में टीका बनाने में कामयाबी हासिल की। टीके के विकास के साथ-साथ उसके ट्रायल की भी खास रणनीति तैयार की गई, ताकि ट्रायल में बहुत लंबा वक्त न लगे। इसके तहत पहले फेज, दूसरे फेज व और तीसरे फेज का ट्रायल एक साथ हुआ। अच्छी बात यह है कि टीके ट्रायल में कामयाब रहे। बिना किसी हिचक और बहस के वैक्सीन सभी को लगाना इसलिए भी जरूरी है कि इसी रामबाण के बूते ही हम महामारी को खत्म कर सकते हैं। वर्ष 1700 में लंदन में चेचक फैला। वहां होने वाली कुल मौतों में चेचक की हिस्सेदारी करीब 20 फीसद तक जा पहुंची। तमाम प्रयासों के बावजूद इस आपदा को रोका नहीं जा सका।
वर्ष 1976 में जब एडवर्ड जेनर ने चेचक का वैक्सीन विकसित किया और वहां इसे लगातार दिया गया तो ही 1934 में ब्रिटेन इस बीमारी से मुक्त हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1980 में दुनिया को इस बीमारी से मुक्त घोषित किया। यही स्थिति पोलियो और खसरे जैसी बीमारियों की भी रही, जिनका निदान हम सिर्फ टीके से ही कर सके। हर्ड इम्युनिटी को आप ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे धागों से बुने किसी जाल को आप आसानी से नहीं तोड़ सकते। बीच-बीच में उसके धागे काटने पड़ेंगे। जितनी ज्यादा जगह यह कटिंग की जाएगी, जाल उतनी शीघ्रता से बिखर जाएगा।
यही हाल टीकाकरण का है। जितनी ज्यादा आबादी का जितनी शीघ्रता से टीकाकरण करेंगे, उतनी ही शीघ्रता से हम हर्ड इम्युनिटी हासिल कर लेंगे। दो या इससे अधिक टीके इस मकसद को हासिल करने में ज्यादा प्रभावी साबित हो सकते हैं। खुराक की आपूर्ति के लिहाज से, एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिहाज से और लोगों के बीच इसका असर दर्शाने के लिहाज से, दो या अधिक टीके किसी एक के बनिस्पत ज्यादा उपयोगी साबित होंगे। ऐसे में सूखी और रसादार की छीछालेदर से इतर हमें इन टीकों पर भरोसा करना होगा और आंख मूंद कर अपने विज्ञानियों की खोज पर विश्वास जताना होता।