स्वास्थ्य और शिक्षा को मिले प्राथमिकता: यदि स्वास्थ्य-शिक्षा की अनदेखी होती रही तो गरीबी उन्मूलन का सपना उलझा रहेगा

स्वास्थ्य और शिक्षा को मिले प्राथमिकता

Update: 2021-06-03 06:33 GMT

एमजे अकबर: जनता के लिए प्रत्येक चुनाव अपनी मांगों को सामने रखने का एक अवसर भी होता है। इसमें जब स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी मांग होती है तो मतदाता अस्पताल की मांग करते हैं। अमूमन इस मांग के केंद्र में उनके मन में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स जैसे मेडिकल संस्थान की छवि होती है। हालांकि एक बढ़िया अस्पताल स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति के अंतिम पड़ाव का केंद्र होता है। कोई भी व्यक्ति तब तक अस्पताल जाने से बचता है, जब तक कि उसके अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है। यानी एक तरह से संकट का समय ही अस्पताल जाने की वजह बनता है। मौत को टालने की हमारी बेचैनी में हम स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापक उद्देश्यों की अक्सर अनदेखी कर जाते हैं। वास्तव में स्वास्थ्य सेवाओं का मुख्य उद्देश्य जीवन को पोषित करना ही होना चाहिए। नि:संदेह अस्पताल आवश्यक हैं, लेकिन वे इस कहानी का अंतिम हिस्सा ही हैं।

औषधि विज्ञान के तीन आयाम
औषधि विज्ञान के तीन आयाम हैं। पहला रोकथाम, जिसमें महामारी या भीषण बीमारी के लिहाज से जोखिम वाले वर्गों के लिए टीकाकरण जैसे उपाय करना। दूसरा सहज उपलब्ध दवाओं, किफायती औषधियों से उपचार संबंधी कदम। इसमें अंतिम और तीसरा होता है संकट प्रबंधन। भारतीयों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को देखते हुए स्वतंत्र भारत के पहले बजट से ही उपरोक्त बिंदुओं में शुरुआती दो से जुड़ी अवसंरचना में भारी निवेश की दरकार थी, परंतु स्वास्थ्य नीतियों में उनका समावेश पिछली सदी के नौवें दशक में ही संभव हो सका। विगत सदी के अंतिम दशक में प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा किए गए आर्थिक सुधारों के बाद ही भारत ने दवाओं का उत्पादन आरंभ किया। तब तक उत्पादन राज्य की अक्षमताओं और राष्ट्र की प्रगति में निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की अनिच्छा के कारण अटका रहा। इसके चलते हमारा पूरा ध्यान अस्पतालों पर केंद्रित रहा।
पीएम मोदी ने गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता में किया शामिल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे नेता रहे, जिन्होंने गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता में शामिल किया। इसके लिए बीमा जैसा व्यावहारिक विकल्प अपनाया गया। यह विगत सात वर्षों के दौरान विकसित किया गया, जो उनके नीतिगत ढांचे का एक उल्लेखनीय पहलू रहा। इसका खाका व्यापक स्तर पर जीवन गुणवत्ता सुधारने के इर्दगिर्द ही खींचा गया है। भारतीय शासन संचालन यानी गवर्नेंस की एक बड़ी विसंगति यह रही है कि उसके नीति निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन से गरीब तबका गायब रहा है। मैं केवल प्रशासनिक सेवाओं की ही बात नहीं कर रहा हूं। हालांकि वे भी बहुत महत्वूपर्ण हैं। मसला आर्थिक गवर्नेंस का भी है। इसमें निजी क्षेत्र और मीडिया शामिल है, जो विचार-समझ और सामाजिक सेवाओं को प्रभावित करते हैं। यहां हमें एक विरोधाभासी तथ्य भी स्वीकार करना होगा और वह यह कि हमारे चुनावों की नियति तो गरीब तय करते हैं, लेकिन प्रशासनिक शक्ति का नियंत्रण सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न अभिजात्य वर्ग के हाथ में होता है।
शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार के बिना गरीबों की आकांक्षाओं को पंख लगाने की उम्मीद बेमानी
महज भली मंशा या नेक नीयत से ही हम इस स्थिति को नहीं बदल सकते। यह एक लंबी प्रक्रिया है, लेकिन इस दिशा में पहला कदम यही होगा कि गरीबों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य की कमी के कारण गहराते गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकालें। शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार के बिना उनकी आकांक्षाओं को पंख लगाने की कोई भी उम्मीद बेमानी है। ईश्वर ने गरीब और अमीर दोनों को बराबर अक्ल दी है, लेकिन गरीबों को शिक्षा से वंचित रखा गया, जबकि उसके माध्यम से ही वे अपनी बुद्धिमत्ता का सबसे बेहतर और उत्पादक उपयोग कर पाएंगे।
गरीबी रेखा से नीचे वालों को शिक्षित कर लिया होता तो आज गरीबी गायब हो गई होती
इसके बावजूद यह समझ पाना मुश्किल है कि साक्षरता को सरकार का घोषित उद्देश्य बनाने में पिछली सदी के नौवें और आखिरी दशक तक की देरी क्यों की गई? वर्ष 1947 या बीती सदी के छठे दशक में ही इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता क्यों नहीं बनाया गया? उच्च गुणवत्तापरक शिक्षा कभी नीति-नियंताओं के वरीयता प्राप्त एजेंडा का हिस्सा क्यों नहीं रही? अगर हमने पिछली सदी के सातवें दशक तक भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को शिक्षित कर लिया होता तो आज गरीबी गायब हो गई होती। लोगों ने भीषण गरीबी से बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर मारे होते, लेकिन हमने उन्हेंं सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक उपकरण ही नहीं उपलब्ध कराए। हमने उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचे की उपेक्षा
जहां तक स्वास्थ्य ढांचे का प्रश्न है तो कोरोना वायरस से उपजी कोविड महामारी ने एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचे की उपेक्षा के सच्चे अतीत को उजागर करने का काम किया है। चूंकि शिक्षा की कमी से लोग मरते नहीं तो इसे महामारी के तौर पर नहीं देखा जाता, परंतु हम उस नुकसान को महसूस करने में भी नाकाम रहे हैं, जो अशिक्षा के कारण पहुंचता है। असल में सबसे बेहतरीन और बदतरीन उपलब्ध शिक्षा के बीच जो अंतर होता है, वह जानबूझकर भूलने की आदत में दफन है।
देश में गरीबों की संख्या सिकुड़कर करीब 25 करोड़ रह गई
तमाम संकेतकों के दृष्टिकोण से सांख्यिकी उपयोगी है, लेकिन तथ्यों को लेकर भ्रमित भी नहीं होना चाहिए। आंकड़ों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या सिकुड़कर करीब 25 करोड़ रह गई है। फिर भी 25 करोड़ का यह आंकड़ा भारत से कहीं अधिक क्षेत्रफल वाले देश रूस की कुल आबादी से 10 करोड़ अधिक है। दरअसल हम भूख सूचकांक आधार पर ही गरीबी का आकलन नहीं कर सकते। यह समझने की जरूरत है कि यह एक न्यूनतम मानक है।
यदि लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा न दी जाए तो वे गरीबी की जद में बने रहेंगे
अगर लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा न दी जाए तो वे गरीबी की जद में बने रहते हैं। प्रत्येक सरकार को अपने बजट में इन दोनों श्रेणियों पर खर्च को अपनी प्राथमिकता में अवश्य रखना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वास्थ्य और शिक्षा को अप्रत्याशित बजटीय आवंटन की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो गरीबी उन्मूलन का सपना नेक नीयत और लचर नीतियों के खतरनाक मायाजाल में उलझा रहेगा।
( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )


Tags:    

Similar News

-->