हमीरपुर : ध्वस्त हो चुकी है राधामोहन गोकुल की समाधि

यहां से लौटते हुए खेत में राधामोहन जी की जमींदोज हो चुकी समाधि की ओर देखना हमें पीड़ा भी देता है।

Update: 2022-01-21 01:45 GMT

हमीरपुर जिले के कुलपहाड़ पहुंचकर हमने खोही गांव का रास्ता पूछा है। अजनर से थोड़ा आगे पहाड़ की तलहटी में बसी बुंदेलखंड की इस बस्ती में क्रांतिकारी राधामोहन गोकुल को कोई नहीं जानता। चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की शहादत के बाद कानपुर से हटकर राधामोहन जी ने अपनी गतिविधियों का केंद्र इसी इलाके को बनाया। छोटे-से पहाड़ के नीचे बने घरों की खोही बस्ती के निकट कुछ समय तक एक विद्यालय का संचालन करते हुए तीन सितंबर, 1935 को जब राधामोहन जी का निधन हुआ, तभी लोगों को यहां उनके गुप्त विप्लवी कार्यों का पता लगा था।

गांव के कुछ लोग हमारे पास आ गए हैं, पर राधामोहन जी के नाम और काम से कोई परिचित नहीं। मेरी डायरी में उनके समाधि-स्थल का विवरण दर्ज है। 'यहां गोंड़ बाबा का चबूतरा कहां है?' मैंने गांव के एक व्यक्ति से पूछा। उसने बांस के झुरमुट के पास बने चबूतरे की तरफ इशारा किया। फिर हमने गांव के बाहर नाले की तलाश की, जिसके पार एक खेत में समाधि के चिह्न मिले, जिस पर वृक्ष गिर जाने से राधामोहन जी की यह अंतिम यादगार अब ध्वस्त हो चुकी है।
स्वामी ब्रह्मानंद ने (हमीरपुर से सांसद) उन दिनों यहां एक विद्यालय चलाने की योजना बनाई थी। खोही आने के दिनों में राधामोहन जी 70वें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे। कानपुर से जो युवक उनके साथ आए, उनमें एक अशोक कुमार बोस थे। ब्रह्मानंद जी ने विद्यालय का संचालन राधामोहन जी को सौंप दिया। साथी युवकों को राधामोहन जी ने समझाया कि विद्यालय तो एक आड़ है। मुख्य लक्ष्य यहां रहकर शोषित-पीड़ित, निर्धन और अनपढ़ लोगों को संगठित करना है, ताकि भावी क्रांति के लिए सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की जा सके। आगे चलकर किसी ने पुलिस को सूचना दे दी कि कानपुर से जो बाबा खोही के विद्यालय में आया है, वह लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भड़काता तथा बम बनाना सिखाता है।
खबर कलक्टर तक पहुंची। राधामोहन जी को बुलाया गया। वह बीमार थे, सो हमीरपुर तक का सफर टट्टू पर बैठकर तय करना पड़ा। यह अगस्त, 1935 के दूसरे पखवाड़े की बात है। अधिकारी ने उन्हें धमकाया, पर वह झुके नहीं। बीमारी से निढाल थे, सो खोही लौटते ही बिस्तर पर पड़ गए। साथियों ने उनकी बहुत सेवा की, पर घनघोर पिछड़े इलाके में दवा-उपचार कहां! उनके न रहने पर एक अखबार ने मुखपृष्ठ पर बड़ा-सा चित्र देते हुए समाचार छापा, तभी लोगों को उनके ऐतिहासिक महत्व का पता लगा। राधामोहन जी की गिनती उन क्रांतिकारियों में नहीं की जा सकती, जो पिस्तौल या बम लेकर संघर्ष कर रहे थे।
वह उनके अनोखे सहयोगी, मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत थे। उनका जन्म पांच दिसंबर, 1865 को इलाहाबाद के निकट भदरी गांव में हुआ था। शुरुआती दौर में वह इलाहाबाद और फिर रीवां पहुंचे। फिर कानपुर मुकाम हुआ। प्रतापनारायण मिश्र के संपर्क में आने पर उन्होंने लिखना शुरू किया। वह उनके पत्र ब्राह्मण के अवैतनिक मैनेजर रहे। बीकानेर और आगरा में भी उन्होंने कुछ समय गुजारा। वर्ष 1904 में कलकत्ता पहुंचकर उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद की। आशुतोष लाहिड़ी से उनका नजदीकी रिश्ता था।
वर्ष 1921 में नागपुर में 'असहयोग आश्रम' बना, तो वह वहां भी जा पहुंचे। आगे चलकर क्रांतिकारी सुरेश चंद्र भट्टाचार्य और विजय कुमार सिन्हा के जरिये चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह से उनका जुड़ाव हुआ। वर्ष 1925 में कानपुर में पहली कम्युनिस्ट कांफ्रेस आयोजित करने में सत्यभक्त को राधामोहन और हसरत मोहानी ने सबसे बड़ा सहयोग किया। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' भी राधामोहन जी के संपर्क में थे। निराला की बादल राग और नए पत्ते कविताओं में इस विचार-चेतना को चीन्हा जा सकता है।
प्रेमचंद ने एक आलेख में राधामोहन जी को 'आधुनिक चार्वाक' कहा था। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, राधामोहन जी प्रेमचंद और निराला की महान साहित्यिक परंपरा के निर्माता थे। उन्होंने अपनी पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद में राधामोहन जी को पर्याप्त स्थान दिया है। नारायण प्रसाद अरोड़ा ने उनके लेखों का संग्रह विप्लव प्रकाशित किया, जिसकी समीक्षा प्रेमचंद ने लिखी थी। राधामोहन जी लंबे समय तक प्रणवीर का भी संपादन और प्रकाशन करते रहे।
उनकी प्रसिद्ध पुस्तक देश का धन का प्रकाशन 1908 में हुआ था, जिसमें अर्थनीति संबंधी उनकी दृष्टि का खुलासा होता है। उसी वर्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी की संपत्तिशास्त्र भी छपकर आई थी। राधामोहन जी ने एक और पुस्तक हिंदी भाषा तत्वदीपिका की रचना की। उन्होंने लाला लाजपत राय, नेपोलियन बोनापार्ट, मैजिनी और गैरीबाल्डी के जीवन-चरित्र लिखे। उनके दो विस्फोटक आलेख ईश्वर का बहिष्कार और धर्म और ईश्वर की एक समय खूब चर्चा रही।
चिंतन के जिस बिंदु पर भगत सिंह 1931 में पहुंचे, राधामोहन जी ने वह चेतना पांच-छह वर्ष पहले ही अर्जित कर ली थी। चार वर्ष पूर्व आगरा के केंद्रीय कारागार में राधामोहन जी की स्मृति में द्वार, पत्थर और उनका चित्र लगवाने के बाद खोही गांव के मोड़ पर उनकी स्मृति-शिला स्थापित कर हमने गांववासियों को इसकी देखरेख का दायित्व सौंप दिया है। यहां से लौटते हुए खेत में राधामोहन जी की जमींदोज हो चुकी समाधि की ओर देखना हमें पीड़ा भी देता है।


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