सरकार जहां इसके लिए अपनी नीतियों को श्रेय दे रही है, वहीं विपक्षी दल इस वृद्धि को पिछले वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियों के ठप्प होने की वजह से आई गिरावट के कारण जीडीपी की इस वृद्धि को कोई उपल्बधि नहीं मान रहे। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे 'लो बेस इफेक्ट' के नाम से जाना जाता है। लेकिन यदि विपक्षियों की यह बात मान भी ली जाए, तो भी यह स्वीकार करना होगा कि अर्थव्यवस्था महामारी के दुष्प्रभाव से अब बाहर आने लगी है। महामारी के कारण देश में आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो जाने के कारण बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी। मैन्यूफैक्चरिंग लगभग ठप्प हो गई थी और मजदूर अपने गांव लौट गए थे। फैक्टरियां और सेवा क्षेत्र के जो कार्यालय काम कर भी रहे थे, वहां कामगारों को आधे या उससे भी कम वेतन पर काम करना पड़ रहा था। यातायात पूरी तरह से ठप्प होने से पेट्रो उत्पादों की मांग रसातल में पहुंच गई थी।
देश में मैन्यूफैक्चरिंग का लगभग आधा हिस्सा ऑटोमोबाइल क्षेत्र से आता है, इसलिए वाहनों की मांग में भारी कमी आई थी। आवश्यक सेवाओं के अतिरिक्त लगभग सभी वित्तीय एवं व्यापारिक सेवाएं बंद थीं। इसका असर जीडीपी और बेरोजगारी, दोनों पर पड़ा। वर्तमान आंकड़ों से स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था उस गिरावट के प्रभाव से बाहर आ रही है। मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादों में सबसे बड़ी वृद्धि (234.4 प्रतिशत) व्यावसायिक वाहनों की बिक्री में हुई। उससे कम, लेकिन बड़ी वृद्धि (110.6 प्रतिशत) निजी वाहनों की बिक्री में हुई। फिर इस्पात की बिक्री में 103.1 प्रतिशत, सीमेंट के उत्पादन में 52.9 प्रतिशत, रेल यात्री यातायात (यात्री किलोमीटर) में 55.60 प्रतिशत, वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात में 72.8 प्रतिशत और निर्यात में 49 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक भी बढ़ा और मैन्यूफैक्चरिंग में 53.7 प्रतिशत उछाल देखा गया। बंदरगाह पर 'कार्गो' में 26.5 प्रतिशत और एयरपोर्टों पर 'कार्गो' में 118.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। विमान यात्रियों की संख्या में 366.3 प्रतिशत वृद्धि हुई। ये सभी आंकड़े दिखाते हैं कि इस तिमाही की ग्रोथ पिछले साल की गिरावट की भरपाई तो कर ही रही है, अर्थव्यवस्था भी पटरी पर आने लगी है।
गिरावट से निपटने के लिए सरकार ने भी कई प्रकार के प्रयास किए। मजदूरों पर पड़े दुष्प्रभावों की भरपाई के लिए विशेष रोजगार कार्यक्रम, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन की व्यवस्था, लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए विभिन्न राहत एवं समर्थन की नीति और उपाय अपनाए गए, तो अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की राह पर ले जाने के भी प्रयास शुरू हुए हैं। गौरतलब है कि पिछले 20 वर्षों में चीन से असमान प्रतिस्पर्धा, चीन द्वारा अपनाए जाने वाले अनैतिक हथकंडे जैसे गैरकानूनी निर्यात सहायताएं, गलत बिलिंग (अंडर इन्वॉयसिंग), गैरकानूनी डंपिंग आदि के कारण देश का मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ।
अनेक उद्योग-धंधे बंद हुए और बेरोजगारी में वृद्धि हुई। कोरोना काल में भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में चीन के प्रति नाराजगी भी बढ़ी और देश में आत्मनिर्भरता की नई इच्छा जागृत हुई। भारत सरकार द्वारा आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को लेकर कई उपाय किए जा रहे हैं। सरकारी खरीद में भारत में निर्मित वस्तुओं को प्राथमिकता की नीति तो पिछले चार-पांच साल से चल ही रही थी, अब सरकार द्वारा भारत में मैन्यूफैक्चरिंग को पुनर्जीवित करने के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना की घोषणा की गई है, जिसमें लगभग दो लाख करोड़ रुपये की राशि अगले कुछ वर्षों के लिए आवंटित की गई है। चीन से आयात कम करने के उपाय किए जा रहे हैं।
इन सबसे मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को नया जीवन मिल सकता है। मैन्यूफैक्चरिंग एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें अन्य गतिविधियों की तुलना में रोजगार की संभावनाएं सबसे अधिक होती हैं। उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल क्षेत्र में पिछले तीन दशकों में उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि होने से एक ओर बड़ी संख्या में सहायक उद्योगों का सृजन हुआ है, तो दूसरी ओर ऑटोमोबाइल के बिक्री केंद्र और अन्य सहायक गतिविधियों के माध्यम से बड़ी मात्रा में उद्यमों का निर्माण भी संभव हुआ है, जिससे न केवल रोजगार मिला, बल्कि देश इस क्षेत्र में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गया। आज भारत बड़ी मात्रा में ऑटोमाबाइल उत्पादों का निर्यात भी कर रहा है।
पहली तिमाही में मैन्यूफैक्चरिंग में हुई वृद्धि से रोजगार और आय में हुई कमी की भरपाई होगी। लेकिन एक तिमाही के नतीजों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अर्थव्यवस्था कठिनाइयों से बाहर आ गई है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है। दुनिया भर में चीन के प्रति बढ़ते गुस्से को एक अवसर में बदलकर भारत दुनिया में 'मैन्यूफैक्चरिंग हब'बने, इसके लिए बड़े प्रयास की जरूरत होगी।
क्रेडिट बाय अमर उजाला