महंगाई का ईंधन

महंगाई की मार से त्रस्त लोगों पर आए दिन बोझ डालने का सिलसिला जारी है। अभी दो हफ्ते भी नहीं गुजरे कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पड़ने वाले शहरों में पाइप के जरिए

Update: 2022-08-08 04:50 GMT

Written by जनसत्ता: महंगाई की मार से त्रस्त लोगों पर आए दिन बोझ डालने का सिलसिला जारी है। अभी दो हफ्ते भी नहीं गुजरे कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पड़ने वाले शहरों में पाइप के जरिए आपूर्ति की जाने वाली रसोई गैस (पीएनजी) के दाम एक बार फिर बढ़ा दिए गए। इस बार पीएनजी दो रुपए तिरसठ पैसे महंगी कर दी गई। यानी अब दिल्ली में पीएनजी पचास रुपए प्रति घनमीटर से ऊपर निकल गई है।

रसोई गैस चाहे वह पीएनजी हो या फिर सिलेंडर वाली गैस, के लगातार बढ़ते दाम गंभीर मुद्दा बन गया है। अगर गैस इसी तरह महंगी होती रही तो आने वाले दिनों में उपभोक्ताओं के लिए यह किसी बड़े संकट से कम नहीं होगा। मुश्किल यह है कि शहरों और महानगरों में तो गैस सिलेंडर और पीएनजी ही घरेलू र्इंधन का एकमात्र और प्रमुख स्रोत है। ऐसे में लोग क्या करेंगे? ले-देकर एकमात्र विकल्प बिजली बचता है, लेकिन वह किसी भी रूप से व्यावहारिक नहीं है, आर्थिक दृष्टि से तो जरा भी नहीं। लगातार बढ़ते दामों को देख कर अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि इनके थमने का सिलसिला आखिर कहां और कब जाकर रुकेगा।

देखा जाए तो पिछले तीन महीनों में दिल्ली, मुंबई, लखनऊ सहित देश के ज्यादातर शहरों में गैस के दाम तेजी से बढ़े हैं। अप्रैल के बाद से अब तक इनमें छह बार बढ़ोतरी की जा चुकी है। सीएनजी का इस्तेमाल वाहनों में होता है। अब ज्यादातर लोग अपने वाहनों में सीएनजी इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन के साधनों जैसे आटो, बसें, स्कूली वाहन, माल ढुलाई के वाहन आदि में भी सीएनजी का इस्तेमाल काफी हो रहा है। ऐसा इसलिए भी ताकि डीजल और पेट्रोल का इस्तेमाल कम किया जाए और प्रदूषण की समस्या से निपटा जा सके।

यह तो तय है कि महानगरों में लोग घरों में कोयले या किसी अन्य जीवाश्म र्इंधन का इस्तेमाल तो कर नहीं सकते। ऐसे में रसोई गैस सिलेंडर और पीएनजी पर ही निर्भर रहने की मजबूरी है। कहना न होगा कि कंपनियां इसी मजबूरी का फायदा भी उठा रही हैं। हालांकि दाम बढ़ाने के पीछे उनके अपने तर्क भी हैं। कंपनियां प्राकृतिक गैस का आयात करती हैं और फिर स्थानीय कंपनियों को बेचती हैं। इसमें शुरू से अंत तक जितनी लागत बैठती है, उसका भार अंतत: उपभोक्ताओं पर ही पड़ता है।

दरअसल, भारत अपनी र्इंधन संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए कई देशों से गैस खरीदता है। इसी तरह कुल जरूरत का पचासी फीसद कच्चे तेल का भी आयात करता है। वैसे प्राकृतिक गैस का उत्पादन भारत में भी होता है, लेकिन यह इतना कम है कि बिना आयात किए घरेलू जरूरत को पूरा नहीं किया जा सकता। फिर घरेलू उत्पादन लागत भी कम नहीं बैठती।

ऐसे में दाम बढ़ाने को लेकर तेल कंपनियों का तर्क भी अपनी जगह गलत नहीं माना जा सकता। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भारत का जो विशालकाय मध्यवर्ग और कम आय वाला वर्ग है, वह लगातार बढ़ते दामों को कैसे और कब तक बर्दाश्त कर पाएगा? पिछले एक साल में गैस के दाम पचहत्तर फीसद तक बढ़ गए हैं। इधर, पिछले दो सालों में आबादी के बड़े हिस्से की माली हालत बेहद खराब हुई है। महंगाई से लोगों का बुरा हाल है। खाने-पीने की चीजों से लेकर बिजली और र्इंधन तक के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में गैस के दामों में वृद्धि को तार्किक बताना सही नहीं कहा जा सकता।


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