आजादियों के बीच आजादी
देश की आजादी से अब रहा नहीं गया। वह अपने 75 वर्षों की सुख-समृद्धि के बीच जाकर यह देखना चाहती है
छिलकों की छाबड़ी
देश की आजादी से अब रहा नहीं गया। वह अपने 75 वर्षों की सुख-समृद्धि के बीच जाकर यह देखना चाहती है कि इस दौरान उसके नाम पर असली भारत है कहां तक। देश को लांघ कर और आजादी को फांद कर उसे यह तसल्ली हो चुकी थी कि लोग उससे भी आगे स्वतंत्र हैं। देश में आजादी की मर्जी नहीं, बल्कि मर्जी की आजादी चल रही है, इसलिए आजादी को चलते-चलते ठोकरें खानी पड़ रही थीं। आजादी ने भरपूर कोशिश कर रखी थी कि वह देश में अपना मुआयना करती हुई अच्छी दिखे, लेकिन यहां तो कोई भी किसी को अच्छी निगाहों से नहीं देख रहा था। आजाद लोग एक-दूसरे पर थू-थू करने तक आमादा थे। सभी एक-दूसरे को नीचे गिराने में, 'इतने पारंगत!' यह सोच कर ही आजादी के हाथ-पांव फूलने लगे। उसने देश की आजादी को पढक़र, चखकर, सामाजिक ढांचे में रखकर व अर्थव्यवस्था में देखकर यह समझने की कोशिश की कि आखिर यह भाग कैसे रही है। अब तक उसे मालूम हो चुका था कि आजादी को भी 75 साल की आजादी से बचने की जरूरत है। उसने वहीं आसपास जगह की तलाश शुरू की ताकि वह नजरों में न आए। वह सबसे पहले अदालत में छिपने लगी, लेकिन वहां खड़े-खड़े उसे अवमानना केस की धाराओं से लाद दिया गया। यह अजूबा था आजादी के लिए। वह गिड़गिड़ाई, मगर आरोप यह था कि उसने आज तक उसी भारत को पढ़ा था जो सदियों से आजादी के लिए तड़पा था। उसे बताया गया कि आइंदा आजादी से वही समझा जाए, जो हमारी चर्चाओं में है।
आजादी ने दूसरा प्रयास संसद भवन के भीतर जाकर खुद को देखने के लिए किया, लेकिन वहां आजादी थी तो देश नहीं था, जहां तक देश था, वहां तक आजादी नहीं थी। सांसदों को सदन से बाहर निकलते देख आजादी को खुद और खुद की पोशाक पर शक हुआ। उसे कोई नहीं बता पाया कि 75 साल बाद काले कपड़े पहनकर सांसद आजादी के किस कोड में हैं। आजादी ने खुद को तिरंगे में लिपटे निहारा और फख्र किया कि कहीं तो देश उसके साथ खड़ा है, लेकिन यह उसका भ्रम निकला। उसी की तरह तिरंगे मेें कई अन्य आजादियां भी घूम रही थीं। पूरे देश में जो तिरंगा पहन रहा था, खुद को आजादी कह रहा था। आजादी के फैशन शो तक पहुंच कर आजादी को डर यह लगने लगा कि उसे ढांपने के लिए झंडे बचेंगे भी या कहीं सारे घरों पर तिरंगों की पैमाइश में वह कहीं अद्र्धनग्न ही न रह जाए। उसने देखा सामने झोंपड़ी में बच्चे आजाद घूम रहे थे। उनके हाथ में झंडे के बजाय आजादी का लंगर कहीं ज्यादा स्वादिष्ट था। झुग्गी-झोंपडिय़ों में मुफ्त के अनाज से बनी खिचड़ी बंट रही थी। उन्हें मालूम है कि देश की आजादी कब-कब झोंपड़ बस्ती में आती है। हर बार आजादी का अर्थ कुछ खैरात पाना हो गया है, इसलिए जिसके जितने बच्चे, उतनी ही अधिक खैरात। तब तक देश की प्रचलित आजादियां उसे घेर व घूर रही थीं। उसे शक हुआ कि कहीं गलती से उसने फटा तिरंगा तो नहीं पहन रखा। दरअसल उसने आजादी का पहला तिरंगा पहन रखा था, जो खादी के भीतर पसीने से पूरी तरह भीग चुका था। आजादी के बदन को देखकर आधुनिक भारत की तमाम आजादियां तंज कस रही थीं। उनके पास कई तरह के झंडे थे, लेकिन ये तिरंगे नहीं थे। अपनी-अपनी आजादी के अनुरूप ये झंडे बांट रही थीं। 75 साल बाद आजादी को अब यह समझ नहीं आ रहा था कि बदन पर तिरंगा संभाले या देश के लिए कोई नया झंडा मांग ले।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal