इन आंकड़ों की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक स्वयंसेवी संस्था के सर्वेक्षण के मुताबिक जयपुर के चूड़ी कारखाने में अमूमन डेढ़ लाख से अधिक बिहार के बच्चे काम करते हैं. सिर्फ गया जिले में 2019 तक ऐसे 918 बच्चों को एक स्वयंसेवी संस्था की मदद से छुड़ाया गया था. उस संस्था सेंटर डायरेक्ट के प्रतिनिधि कहते हैं कि कोरोना काल में अचानक बच्चों के जयपुर जाने की गति बढ़ गयी है. उन्हें अमूमन हर रोज कहीं न कहीं से बच्चों के भेजे जाने की सूचना मिलती है. वहां से गांव-गांव में मजदूरों को लाने के लिए भेजी जाने वाली बसों पर ऐसे बच्चे जाते हैं, कई बार बच्चों को मां-बाप के साथ ले जाया जाता है, और वहां मां-बाप अलग जगह मजदूरी करते हैं या वापस लौट आते हैं. ऐसे सूचना के बाद भी बच्चों को रेस्क्यू करना मुश्किल हो जाता है.
दुखद तथ्य यह है कि जो बच्चे मजदूरी के लिए बाहर जाते हैं, उन्हें बेहद अमानवीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता है. पिछले दिनों समोद बिगहा में उन दो बच्चों से मेरी मुलाकात हुई थी, जो 2014 में जयपुर के चूड़ी कारखाने से छुड़ा कर लाये गये थे. उनमें से एक बच्चे के शरीर में आज भी उस कारखाने में काम करने के निशान थे. उसने बताया कि एक बंद कमरे में उनसे यह काम कराया जाता था. वह जो चमकीला पदार्थ चूड़ियों पर उनसे चिपकवाया जाता है, वह उस बंद कमरे में उड़ता रहता था. सांस लेने पर वह भीतर भी चला जाता था. वह इस वजह से काफी बीमार हो गया था. ऐसा लगने लगा था कि उसकी छाती में कुछ जम गया हो, खांसी आती थी और सांस लेने में तकलीफ होती थी.
वहां सुबह नौ बजे से रात के बारह बजे तक उनसे काम कराया जाता था. ठीक से खाने को भी नहीं देते और कोई काम करते-करते थक जाता और हाथ रुक जाता तो मारपीट की जाती. ऐसे में उनके साथ वहां गये सभी बच्चे परेशान थे. उनके बीच का एक बच्चा वहां से किसी तरह भाग निकला और उसने पुलिस को शिकायत कर दी, जिसकी वजह से उन सभी लोगों को छुटकारा मिला. फिर जयपुर में ही सरकार द्वारा उसका एक महीने तक इलाज करवाया गया. थोड़ा आराम हुआ मगर तकलीफ बनी रही. आज भी उसकी तबीयत अक्सर खराब रहती है. उसके शरीर में क्या-क्या होता है, उसे पता नहीं चलता.
बिहार में ह्यूमन लिबर्टी नेटवर्क ने अक्तूबर, 2020 में राज्य के नौ जिले के 100 गांवों में 52,900 परिवारों के बीच एक सर्वे किया. इस सर्वे से पता चला कि कोरोना और लॉकडाउन के दौरान राज्य के 50 फीसदी से अधिक गरीब लोगों को कर्ज लेना पड़ा. इन लोगों ने पांच हजार से लेकर पंद्रह हजार तक कर्ज लिये और इस कर्ज के लिए ब्याज की दर 60 फीसदी तक रही. यही वजह रही कि ज्यादा परिवार के लोगों को अपने बच्चों को मजबूरन काम के लिए भेजना पड़ा. एक वजह यह भी रही कि इन परिवार वालों को कर्ज उन्हीं एजेंटों से लेना पड़ा था जो बाल तस्करी के कारोबार से जुड़े हैं.
इन आंकड़ों से बिहार में बाल तस्करी की भयावहता को समझा जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि हाल के दिनों में जयपुर बिहार के बच्चों की तस्करी का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है. दुर्भाग्यवश अमानवीय परिस्थिति में काम करने वाले इनमें से ज्यादातर बच्चे अत्यंत गरीब परिवार के हैं. सिर्फ गया जिले में बाल तस्करी के शिकार बच्चों में नब्बे फीसदी सिर्फ एक मुशहर जाति के थे. इस अत्यंत गरीब जाति के बच्चे अमूमन शिक्षा से दूर रहते हैं और वे भीषण गरीबी का सामना करते हैं. गरीबों के लिए चलायी जाने वाली ज्यादातर सरकारी योजनाओं तक उनकी पहुंच अभी भी बहुत कम है. फिर चाहे वह मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी की बात हो या राशन दुकानों में मिलने वाले मुफ्त अनाज की योजना. स्कूलों में नहीं जाने और मिड-डे मील से वंचित रहने की वजह से ये बच्चे कुपोषण का भी शिकार होते हैं.
बहुत साफ है कि शिक्षा, बेहतर आजीविका, पोषण और सरकारी योजनाओं से वंचित रहने की वजह से बिहार में अभी भी ऐसे परिवारों की बड़ी संख्या है, जो बच्चों को स्कूल भेजने के बदले काम पर भेजने के लिए विवश है. अमूमन घर चलाने के लिए या शादी-ब्याह, बीमारी या किसी अन्य संकट के काल में इन बच्चों के परिजनों को कर्ज लेने के लिए विवश होना पड़ता है. इस कर्ज को उतारने के चक्कर में उन्हें मजबूरन अपने बच्चों को अमानवीय रोजगार के लिए बाहर भेजना पड़ता है.
कोरोना काल में लगभग सवा से डेढ़ साल तक बंद रहे सरकारी स्कूलों की वजह से यह संकट बहुत अधिक बढ़ा है. सेंटर डायरेक्ट संस्था ने पिछले साल गया जिले के दस गांवों के छह से 14 साल की उम्र के 4142 बच्चों के बीच सर्वे कराया तो पता चला कि इनमें से 124 बच्चे मेहनत मजदूरी करने के लिए विवश हो गये और 49 बच्चे राज्य से बाहर मजदूरी करने के लिए चले गये. इनमें से 633 बच्चे पहले से ही स्कूल नहीं जाते. जो जाते हैं, उनकी भी इन दिनों पढ़ाई ठप है. पता चला कि इनमें आधे से भी कम बच्चों को मिड-डे मील की राशि मिली है.
जाहिर सी बात है कि स्थिति बेहद गंभीर है और इससे उबरने के लिए राज्य सरकार को बहुत गंभीरता से काम करने की जरूर है. मगर स्वयंसेवी संस्थाओं के जो फीडबैक हैं, वे कहते हैं कि राज्य सरकार का तंत्र इसके मुकाबले के लिए बहुत मजबूत नहीं है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
पुष्यमित्र, लेखक एवं पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक. विभिन्न अखबारों में 15 साल काम किया है. 'रुकतापुर' समेत कई किताबें लिख चुके हैं. समाज, राजनीति और संस्कृति पर पढ़ने-लिखने में रुचि.