किसान आंदोलन : कानून वापसी के बाद की चुनौतियां

नए अवसरों का लाभ उठाया जा सके और किसानों की हालत सुधरे।

Update: 2021-11-20 01:50 GMT

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के साथ ही विवादों का एक अध्याय समाप्त हो गया है। लेकिन इस निर्णय के साथ जहां किसान आंदोलन के खत्म होने का रास्ता खुला है, वहीं इस पर भी चिंतन करने की जरूरत बढ़ गई है कि देश में खेती किसानी की हालत में सुधार हो और उसके लिए संस्थागत परिवर्तनों के लिए वातावरण बनाया जाए।

गौरतलब है कि सरकार ने तीन कृषि कानूनों के माध्यम से कृषि वस्तुओं की मार्केटिंग व्यवस्था में व्यापक बदलाव किए थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करते हुए कृषि वस्तुओं के भंडारण पर लगी सीमाओं को हटा लिया गया था। कृषि वस्तुओं का एक सीमा से ज्यादा भंडारण पहले गैर कानूनी था, लेकिन नए कानून में ऐसा नहीं रहा था।
इसके पीछे सरकार का तर्क था कि भंडारण पर लगी सीमाओं को हटाने के बाद अब व्यापारी और कंपनियां कृषि वस्तुओं का ज्यादा भंडारण कर सकेंगी। पूर्व में आवश्यक वस्तु अधिनियम के बनाने और भंडारण पर अंकुश लगाने के पीछे कारण यह था कि देश में कृषि वस्तुओं की भारी कमी हुआ करती थी, जिससे व्यापारी उनकी जमाखोरी करके कीमतें बढ़ा देते थे।
लेकिन देखा गया कि चूंकि अब देश में कृषि वस्तुओं का पर्याप्त उत्पादन होता है, इसलिए व्यापारियों और कंपनियों द्वारा भंडारण करने से कीमतें बढ़ने का कोई विशेष खतरा नहीं है, बल्कि अधिक उत्पादन होने पर भंडारण की सुविधाएं होना जरूरी है। ऐसे में आवश्यक वस्तु अधिनियम में परिवर्तन से अपेक्षा थी कि देश में भंडारण की सुविधाएं बढ़ सकेंगी।
किसान, उत्पाद, व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन एवं सरलीकरण) कानून के माध्यम से यह प्रावधान रखा गया था कि पहले की मंडी व्यवस्था के अतिरिक्त अब किसान मंडी से बाहर भी कृषि वस्तुओं की बिक्री कर सकेंगे। इसके पीछे सरकार का यह तर्क था कि इससे अब किसानों के पास अपनी फसल की बिक्री के लिए ज्यादा विकल्प उपलब्ध होंगे, जिससे वे अपनी उपज का सही मूल्य प्राप्त कर सकेंगे।
लेकिन कुछ किसान संगठनों का कहना था कि मंडी से बाहर खरीद की व्यवस्था से किसानों का शोषण हो सकता है, इसलिए सरकार को कृषि मंडियों से बाहर खरीद पर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करना चाहिए। चूंकि अब यह कानून वापस हो जाएगा, इसलिए फिर से मंडी में ही खरीद की व्यवस्था लागू हो जाएगी, लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य कैसे सुनिश्चित हो।
सरकार ने किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों समेत समाज के प्रतिनिधियों की एक समिति के गठन का फैसला किया है, ताकि इस मसले का समाधान निकल सके। तीसरा, किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) कीमत मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं का समझौता कानून, संविदा खेती हेतु कानूनी प्रावधानों से संबंधित था। इसके माध्यम से यह व्यवस्था की गई थी कि निजी व्यक्तियों एवं कंपनियों द्वारा किसानों से समझौता करते हुए संविदा खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) की जा सके।
इसमें विवाद निपटारे को लेकर किए गए प्रावधानों के बारे में कुछ किसान संगठनों में रोष था। किसान संगठनों का कहना था कि संविदा खेती में विवाद निपटारे हेतु न्यायालय में जाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जबकि कानून में जिलाधिकारी को यह अधिकार दिया गया था। समझना होगा कि पिछले लगभग तीन दशकों से किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है।
कृषि की लागत बढ़ती जा रही है, जबकि लागत में वृद्धि के अनुपात में कृषि वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि नहीं हो पा रही। देश के कई हिस्सों में किसान आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। हालांकि देश में कृषि और सहायक गतिविधियों के उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है। हमारा खाद्यान्न उत्पादन लगातार नए रिकॉर्ड बना रहा है, तो दूध, फल, सब्जियों आदि के उत्पादन में भी अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिल रही है। भारतीय कृषि वस्तुओं की मांग दुनिया में बढ़ रही है।
इन सब परिस्थितियों में कुछ ऐसे संस्थागत सुधार लाने होंगे, जिससे वर्तमान परिस्थितियों का पूरा लाभ उठाया जा सके। आज हमारे यहां भंडारण की कमी के चलते काफी कृषि वस्तुएं नष्ट हो जाती हैं। देश में भंडार गृह और कोल्ड-स्टोरेज इत्यादि की भारी कमी है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में अच्छी प्रगति हुई है, लेकिन इसे और बेहतर बनाए जाने की जरूरत है। कोल्ड-चेन के निर्माण से जल्द नष्ट होने वाली कृषि वस्तुओं के विपणन एवं निर्यात में भारी वृद्धि की जा सकती है। इसके लिए प्रोत्साहन देकर निजी क्षेत्र द्वारा निवेश के अवसरों को बढ़ावा देना होगा।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के चलते किसानों को नुकसान से बचाने के लिए नए विकल्प देने की भी जरूरत होगी। इसके लिए देश के अन्य हिस्सों में उपलब्ध बीजों का उपयोग तो किया ही जा सकता है, कई अभिनव प्रयोग भी अपेक्षित हैं। किसानों को कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए प्रोत्साहन देने की खातिर विदेशों में लोकप्रिय कृषि उत्पादों के बारे में जागरूक करना होगा।
इसके लिए संविदा खेती के प्रयोग जरूरी होंगे। निजी क्षेत्र के खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के लिए कृषि उत्पादों की आवश्यकता होती है। निजी क्षेत्र की कंपनियों और किसानों के बीच साझेदारी समय की मांग है। इस संबंध में फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन (एफपीओ) की व्यवस्था लागू की गई है, जिसमें बड़ी संख्या में किसान उत्पादन करते हैं, जिससे उनकी सौदेबाजी की क्षमता बढ़ जाती है। समाज और सरकार को इसके लिए आगे बढ़कर काम करना होगा।
किसानों की कई अन्य समस्याएं हैं, जैसे-प्राकृतिक आपदा से फसलों का नष्ट होना, नई तकनीक एवं उपकरणों के लिए आवश्यक पूंजी आदि। इसके लिए संस्थागत प्रयासों की महती आवश्यकता है। समय की मांग के अनुसार पुराने कानूनों में बदलाव और नए कानूनों का निर्माण एक लगातार चलने वाली व्यवस्था है। नए कानून बनाते हुए सभी हितधारकों के साथ सलाह-मशविरा और सहयोग की आवश्यकता होगी।
उम्मीद है कि कृषि कानूनों के संबंध में उत्पन्न समस्याओं से सीख लेते हुए सबके सहयोग से कृषि विपणन एवं अन्य संस्थागत सुधारों को कार्य रूप दिया जाएगा। किसान संगठनों को भी समझना होगा कि पुरानी रीति-नीति और कानून समय के साथ बदलने होंगे, ताकि नए अवसरों का लाभ उठाया जा सके और किसानों की हालत सुधरे।
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