कानून के दुरुपयोग से खंडित होते परिवार

समाज और न्याय व्यवस्था में असंतुलन दूर करना विधिवेत्ताओं के साथ-साथ समाज का भी दायित्व है। किसी एक पक्ष को न्याय दिलाने के लिए पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होना चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताड़ित और अपमानित होता रहे।

Update: 2021-12-28 02:05 GMT

समाज और न्याय व्यवस्था में असंतुलन दूर करना विधिवेत्ताओं के साथ-साथ समाज का भी दायित्व है। किसी एक पक्ष को न्याय दिलाने के लिए पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होना चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताड़ित और अपमानित होता रहे। एक पक्षीय कानून कभी इन्साफ नहीं कर सकता। जब 1961 में दहेज निरोधक कानून बना था तब विधिवेत्ताओं और जनप्रतिनिधियों ने कल्पना भी नहीं की होगी कि इस कानून का इस सीमा तक दुरुपयोग होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में दिए गए एक फैसले में इसे कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दी ​थी।वैवाहिक जीवन में महिला के साथ घटित किसी भी घटना का संबंध दहेज से जोड़ने की प्रवृत्ति ने पुरुषों को और उनके परिवार के सदस्यों को दोषी ठहराये जाने की मानसिकता इस सीमा तक बढ़ चुकी है ​कि महिला अधिकारों के संरक्षण के लिए बने कानून पर सवाल उठने लगे हैं। यद्यपि दहेज निरोधक कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498ए के संबंध में राज्य सरकारों को लगभग 8 वर्ष पहले ही आदेश जारी कर दिए ​थे। इसके तहत अब पुलिस पूरी जांच के बाद ही किसी पुरुष या उसके परिवार वालों के खिलाफ दहेज के मामले में एक एफआईआर दर्ज कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट पहले गिरफ्तार करो, फिर जांच को आगे बढ़ाओ की प्रणाली को रोकना चाहता था लेकिन आज भी पुलिस कई केसों में लचर एफआईआर दर्ज करती है जो अदालत में जा कर टिकती ही नहीं है। दहेज प्रताड़ना निरोधक कानूनों का दुरुपयोग रोकना और न्याय करना न्यायपालिका के लिए चुनौती है। पत्नी की प्रताड़ना और दहेज हत्या के मामलों में आम तौर पर पति के साथ उसके मां-बाप, भाई, भाभी और दूर के रिश्तेदार भी आरोपी बना दिए जाते हैं। घरेलू हिंसा कानून का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया जा रहा है। हालांकि झूठे आरोपों के आधार पर फंसाए गए ऐसे लोगों को राहत मिल जाती है लेकिन जब तक ऐसा होता है तब तक वे बदनामी के साथ-साथ अन्य तमाम तरह की परेशानी से दो चार हो चुके होते हैं। दहेज प्रताड़ना संबंधी धारा 498-ए बदला लेने का हथियार बन गई।दहेज उत्पीड़न के ऐसे ही मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक पुरुषऔर एक महिला के खिलाफ आपराधिक मुकदमा रद्द करते हुए टिप्पणी की है कि प्राथमिकी में बेढंगे आरोपों के जरिये पति के परिजनों को वैवाहिक विवादों में आरोपी बनाया गया है। जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें दहेज हत्या मामले में पीड़िता के देवर और सास को आत्मसमर्पण करने और जमानत के लिए अर्जी दायर करने का निर्देश दिया था। संपादकीय :विधानसभा चुनाव और कोरोनाहरिद्वार से वैर के स्वरबच्चों को वैक्सीन का सुरक्षा कवचनया वर्ष नया संकल्पडेल्मीक्रोन : खतरनाक है संकेतम्यांमार-भारत और लोकतंत्रसुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बड़ी संख्या में परिवार के सदस्यों के नाम बेढंगे संदर्भ के जरिये प्राथमिकी में दर्ज किये गए हैं, जबकि प्रदत्त विषय वस्तु उनकी सक्रिय भागीदारी का खुलासा नहीं करती। इस तरह के मामलों में संज्ञान लेने से न्यायिक प्रक्रि


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