घटती आमदनी, बढ़ती महंगाई
मुश्किल यह है कि कर का बोझ उस वर्ग पर डाला जा रहा है, जिसके हाथ में करने के लिए काम नहीं है और जिसकी जेब और पेट खाली हैं। उस वर्ग को कर छूट दी जा रही है, जिसकी तिजोरियां भरी हुई हैं
सरोज कुमार; मुश्किल यह है कि कर का बोझ उस वर्ग पर डाला जा रहा है, जिसके हाथ में करने के लिए काम नहीं है और जिसकी जेब और पेट खाली हैं। उस वर्ग को कर छूट दी जा रही है, जिसकी तिजोरियां भरी हुई हैं और वह अपना धन दूसरे देशों में ठिकाने लगा रहा है। इसे कुनीति नहीं तो क्या कहेंगे?
आमदनी बगैर अर्थव्यवस्था और पानी बगैर नदी की कल्पना बेमानी है। स्रोत सूख गए तो समझिए दोनों का अस्तित्व संकट में। भारत की अर्थव्यवस्था कुछ इसी दिशा में बढ़ रही है। शुद्ध राष्ट्रीय आय (एनएनआइ) पर आधारित प्रति व्यक्ति सालाना आय (स्थिर मूल्य) वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान 91,481 रुपए दर्ज की गई, जो महामारी से पूर्व के वित्त वर्ष 2019-20 में 94,270 रुपए और 2018-19 में 92,241 रुपए की आय से भी कम है।
महामारी के दौरान (2020-21) तो सालाना आय गिर कर 85,110 रुपए रह गई थी। यानी देश में प्रति व्यक्ति सालाना आय पिछले पांच सालों के दौरान बढ़ने के बजाय घटी है। जबकि इसी अवधि में महंगाई लगभग दोगुनी बढ़ गई। वित्त वर्ष 2018-19 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) पर आधारित खुदरा महंगाई दर 3.4 फीसद थी। मौजूदा वित्त वर्ष (2022-23) के लिए खुदरा महंगाई दर का अनुमान 6.7 फीसद है। मई में खुदरा महंगाई 7.04 फीसद दर्ज की गई। थोक महंगाई दर की रफ्तार और तेज है। मई 2018 में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) पर आधारित महंगाई दर मात्र 4.43 फीसद थी, जो मई 2022 में तीस साल के सर्वोच्च स्तर यानी 15.88 फीसद पर पहुंच गई।
बात यहीं खत्म नहीं होती। आक्सफेम इंडिया की रपट कहती है कि महामारी के दौरान चौरासी फीसद लोगों की आमदनी घट गई। जबकि इसी अवधि में देश के अरबपतियों की संपत्ति 23.1 लाख करोड़ रुपए से बढ़ कर 53.2 लाख करोड़ रुपए हो गई, जो दोगुने से भी अधिक की वृद्धि है। अरबपतियों की संख्या भी एक सौ दो से बढ़ कर एक सौ बयालीस हो गई। सबसे धनी दस फीसद लोगों का देश की सतहत्तर फीसद संपत्ति पर कब्जा हो गया और देश के अनठानवे अरबपतियों की कुल संपत्ति 55.5 करोड़ आम आबादी की संयुक्त संपत्ति के बराबर हो गई।
पीपुल्स रिसर्च आन इंडियाज कंज्यूमर इकोनामी (पीआरआइसी) की सर्वे रपट के अनुसार देश के बीस फीसद सबसे गरीब परिवारों की आमदनी 2015-16 की तुलना में 2020-21 के दौरान तिरपन फीसद घट गई। इसी अवधि में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की आमदनी बत्तीस फीसद घटी और मध्यवर्गीय परिवारों की नौ फीसद। जबकि उच्च मध्यवर्गीय परिवारों की आमदनी सात फीसद बढ़ गई और बीस फीसद सबसे अमीर परिवारों की आमदनी में उनतालीस फीसद का इजाफा हो गया।
जाहिर है, देश की मौजूदा आर्थिक नीतियां आमजन के अनुकूल नहीं हैं। एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी तरफ मध्य वर्ग का आकार घट रहा है और गरीबी का दायरा बढ़ता जा रहा है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे अंग्रेजी के 'के' आकार वाली वृद्धि कहते हैं। महामारी के दौरान एक साल में देश में और तेईस करोड़ लोग गरीबी में चले गए। इनमें से कितने गरीबी से बाहर निकले, इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन अस्सी करोड़ लोगों को अभी भी मुफ्त राशन गरीबी के आंकड़े का अंदाजा कराता है। देश की इतनी बड़ी आबादी मुफ्त राशन पर आश्रित हो, तो इसे तरक्की का कौन-सा तमगा कहेंगे!
प्रतिकूल नीतियों के कारण बाजार में मांग न होने के बाद भी महंगाई आसमान पर है, और बेरोजगारी चरम पर है। गलत नीतियों का खामियाजा शुरू में तो आम जनता भुगतती है, लेकिन बाद में अर्थव्यवस्था भी लपेटे में आती है। आज सरकार की भी कमाई घट रही है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6.4 फीसद निर्धारित था।
लेकिन अब नीति-नियंता इसे पिछले साल के स्तर यानी 6.7 फीसद पर रहने की बात कह रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल में तेजी, बाधित आपूर्ति शृंखला और रुपए के ऐतिहासिक अवमूल्यन के कारण देश का विदेशी मुद्रा भंडार छह सौ अरब डालर से नीचे आ गया है। विदेशी कर्ज पिछले साल के मुकाबले मार्च 22 तक 8.2 फीसद बढ़ कर 620.7 अरब डालर हो गया है। महंगाई का दबाव लगातार बना हुआ है। इससे निपटने के लिए राजकोषीय उपाय करने होंगे। परिणामस्वरूप राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।
इस साल मई में पेट्रोल, डीजल पर उत्पाद शुल्क क्रमश: आठ रुपए और छह रुपए कम किया गया। इससे एक लाख करोड़ रुपए राजस्व हानि होगी। उज्ज्वला योजना के तहत दो सौ रुपए प्रति सिलिंडर अनुदान देने से 6,100 करोड़ रुपए राजस्व घट जाएगा। लोहा, इस्पात और प्लास्टिक पर सीमा शुल्क संशोधन से राजस्व में दस से पंद्रह हजार करोड़ रुपए की कमी आएगी। उर्वरक पर अनुदान बढ़ने से वित्त वर्ष की पहली छिमाही में ही सरकारी खजाने पर 60,939.23 करोड़ रुपए का बोझ बढ़ गया है। आर्थिक तंगी को देखते हुए वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग ने अब प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएम-जीकेएवाइ) को सितंबर 2022 के बाद बंद करने की सिफारिश की है।
सरकार के पास राजस्व के दो रास्ते हैं- कर, और गैर कर स्रोत। कर के तहत प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर आते हैं। प्रत्यक्ष कर में निजी आयकर और कारपोरेट कर शामिल हैं। अप्रत्यक्ष करों में जीएसटी, सीमा शुल्क और टीडीएस। गैर कर स्रोत में लाभांश और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों (पीएसयू) की कमाई आती है। सरकार चूंकि निजीकरण और विनिवेश की नीति पर चल रही है, लिहाजा लाभांश और पीएसयू की कमाई उसके एजंडे में नहीं है।
अस्थिर आर्थिक वातावरण के कारण विनिवेश की स्थिति भी डावांडोल है। वित्त वर्ष 2021-22 में निर्धारित 1.75 लाख करोड़ रुपए के विनिवेश लक्ष्य का मात्र आठ फीसद यानी 13,561 करोड़ रुपए हासिल हो पाया। मौजूदा वित्त वर्ष का विनिवेश लक्ष्य 65,000 करोड़ रुपए है, लेकिन भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआइसी) के आइपीओ की विफलता के कारण यह लक्ष्य भी दूर की कौड़ी लगती है। ऐसे में सरकार का पूरा जोर कर वसूली पर आ टिका है, वह भी अप्रत्यक्ष कर (जीएसटी, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क) पर।
'के' आकार वाली अर्थव्यवस्था की जड़ यहीं से शुरू होती है, क्योंकि अप्रत्यक्ष कर का भुगतान आम जनता करती है। वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान 6.19 लाख करोड़ रुपए रेकार्ड जीएसटी संग्रह हुआ, जो संशोधित बजट लक्ष्य 5.70 लाख करोड़ से भी अधिक है। बाजार में मांग न होने के बावजूद रेकार्ड जीएसटी संग्रह के पीछे एक बड़ा कारण ऊंची महंगाई दर है। सरकार ने फिर भी जीएसटी दर बढ़ाने का निर्णय लिया है। कई वस्तुओं, सेवाओं को जीएसटी के दायरे में लाया गया, तो कई वस्तुओं, सेवाओं पर जीएसटी की दरें बढ़ा दी गई हैं। नई दरें 18 जुलाई से लागू होंगी। इससे महंगाई और बढ़ेगी, भुगतान आम जनता करेगी।
मुश्किल यह है कि कर का बोझ उस वर्ग पर डाला जा रहा है, जिसके हाथ में करने के लिए काम नहीं है और जिसकी जेब और पेट खाली हैं। उस वर्ग को कर छूट दी जा रही है, जिसकी तिजोरियां भरी हुई हैं और वह अपना धन दूसरे देशों में ठिकाने लगा रहा है। इसे कुनीति नहीं तो क्या कहेंगे? 2020 में कारपोरेट कर तीस से घटा कर बाईस फीसद कर दिया गया, जिससे 1.45 लाख करोड़ रुपए सालाना राजस्व का नुकसान हो रहा है।
तर्क यह कि कारपोरेट कर कटौती के बाद भी तो प्रत्यक्ष कर संग्रह बढ़ रहा है। जाहिर-सी बात है अमीरों की आमदनी बढ़ेगी, अरबपतियों की संख्या बढ़ेगी तो प्रत्यक्ष कर संग्रह भी बढ़ेगा। लेकिन इस प्रत्यक्ष कर संग्रह का भी भुगतान अमीरों के जरिए आम जनता ही तो कर रही है। सवाल यह कि आम आदमी आखिर आमदनी का स्रोत कब तक बना रहेगा? जब तक वह इस लायक रहेगा, तभी तक तो! लोक कल्याणकारी राज्य में गरीब आम जनता से अधिक कर वसूली अच्छा शकुन नहीं है।