महामारी का अंत: दुनिया के सभी देशों का वैक्सीन पर हक
मानवता के लिये यह सुखद संकेत है कि कोरोना महामारी के ताबूत पर कील ठोकने की तैयारी इनसान ने कर ली है
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मानवता के लिये यह सुखद संकेत है कि कोरोना महामारी के ताबूत पर कील ठोकने की तैयारी इनसान ने कर ली है। एक वर्ष से कम समय में कारगर वैक्सीन की तलाश इनसान की सफलता ही कही जायेगी। दुनिया में अब तक कोई वैक्सीन इतनी जल्दी तैयार नहीं की जा सकी।
मलेरिया की वैक्सीन बनाने में बीस साल लगे थे। अमेरिकी कंपनी फाइजर व जर्मन कंपनी बायो-एन-टेक द्वारा विकसित किये गये टीके की पहली डोज मंगलवार को उत्तरी आयरलैंड की नब्बे वर्षीय महिला मारग्रेट कीनान को दी गई। उम्मीद की जानी चाहिए कि वैक्सीन के मानवीय परीक्षण के बाद लगने वाला ये टीका जीवन को सामान्य बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। इस नब्बे वर्षीय महिला ने टीका लगवाकर दुनिया के लोगों को टीका लगवाने के लिये प्रेरित किया है।
दरअसल, ब्रिटेन और बहरीन टीके को आपातकालीन अनुमति देने वाले पहले देशों में शामिल हैं। ब्रिटेन में अस्सी साल से अधिक उम्र के लोगों और हेल्थ केयर में लगे कर्मचारियों को पहले वैक्सीन देने का निर्णय लिया गया।
यानी जो लोग संक्रमण की दृष्टि से अधिक संवेदनशील हैं। वैसे ब्रिटेन में वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं है। इससे पहले फाइजर इंडिया ने ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से भारत में वैक्सीन की बिक्री और वितरण के आपातकालीन उपयोग हेतु अनुमति मांगी थी। हालांकि, भारत की अपनी कई वैक्सीनें भी अंतिम चरण में हैं।
जानकार मानते हैं कि भारत में फाइजर की वैक्सीन का उपयोग आसान नहीं होगा। इस टीके को माइनस सत्तर डिग्री पर संग्रहीत करना होता है। भारत जैसे विशाल व बड़ी आबादी के देश में इसे आम लोगों तक, खासकर विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में पहुंचाना बड़ी चुनौती होगी। दो डोज में दिया जाने वाला यह टीका अन्य टीकों के मुकाबले महंगा भी है। लेकिन ऐसे वक्त में जब दुनिया में चौदह लाख से अधिक लोग कोरोना संक्रमण से जान गंवा चुके हैं, वैक्सीन की अपरिहार्यता स्वयंसिद्ध है। अच्छी बात यह है कि फाइजर और जर्मन कंपनी बायो-एन-टेक द्वारा मिलकर तैयार की गई वैक्सीन नब्बे फीसद से अधिक कारगर सिद्ध हुई है।
इसके अलावा अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना, ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका व रूस की वैक्सीन भी उम्मीद की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इन वैक्सीनों की तकनीक की सफलता इस मायने में महत्वपूर्ण है कि भविष्य की किसी महामारी की वैक्सीन समय रहते तैयार कर ली जायेगी क्योंकि वैक्सीन की निर्माण प्रक्रिया में जेनेटिक कोडिंग का भी इस्तेमाल हुआ है। उम्मीद है कि वैक्सीन के बाद मानव के इम्यून सिस्टम में वे एंटीबॉडी विकसित होंगी जो कोरोना वायरस को रोकने में सक्षम हो सकें। वैसे इससे जुड़े कई यक्ष प्रश्न अभी बाकी हैं कि वैक्सीन से हासिल इम्यूनिटी कब तक कायम रहेगी।
हम संक्रमण को किस हद तक रोक पायेंगे। वैसे अभी सबसे बड़ी चुनौती दुनिया के हर मुल्क के लोगों तक वैक्सीन पहुंचाना होगी। मौजूदा कंपनियों की क्षमता इतनी नहीं है कि हर देश तक वैक्सीन पहुंचायी जा सके। जिस तरह अमीर देशों ने वैक्सीन की बुकिंग करायी है, उससे यह संभव है कि अमीर देशों से महामारी मिट जाये और गरीब मुल्कों में कहर बरपाती रहे। हर देश को वैक्सीन उपलब्ध हो सके, इसके लिए डब्ल्यूएचओ ने कोवैक्स परियोजना तैयार की है, जिसका मकसद पारदर्शी तरीके से सभी मुल्कों को वैक्सीन उपलब्ध कराना है। दुनिया के 185 देश इस परियोजना से जुड़ चुके हैं।
अगले साल के अंत तक इसके अंतर्गत दो अरब वैक्सीन की डोज उपलब्ध होने की उम्मीद है ताकि इन देशों के फ्रंटलाइन हेल्थवर्करों को वैक्सीन उपलब्ध करायी जा सके, जिससे इन देशों के चिकित्सा तंत्र को मजबूत बनाकर मौतों को रोका जा सके। दुनिया के कुछ देश तो खुद वित्तीय साधन जुटा सकते हैं लेकिन कुछ देश ऐसे हैं जो बाहरी मदद पर निर्भर रहेंगे।
उन्हें मुफ्त या कम कीमत पर वैक्सीन उपलब्ध कराने की योजना है। इस योजना के लिये 28 खरब रुपये जुटाने होंगे। इसके बावजूद यह रकम इस वर्ष हुए आर्थिक नुकसान का दस फीसदी ही होगी जो दुनिया के कारोबार, आर्थिकी व पर्यटन को पटरी पर लाने के लिये जरूरी है।