जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति अनेक देशी-विदेशी ताकतों को रास नहीं आई थी। लेकिन यह समाप्ति राज्य की आम जनता को बहुत रास आई थी क्योंकि उसे वे सभी अधिकार प्राप्त हो गए थे जो देश के बाकी नागरिकों को प्राप्त थे। सबसे बड़ा लाभ यह हुआ था कि घाटी में से आतंकवादियों का नेटवर्क कमजोर पड़ने लगा था। प्रदेश की आम जनता ही उनके बारे में सुरक्षा बलों को सूचना देने लगी थी क्योंकि उसका प्रशासन पर पुनः विश्वास जमने लगा था। राजनीतिज्ञ, सरकारी नौकरशाही और आतंकवादियों के बीच का तालमेल टूटने लगा था। प्रशासन में से उन सरकारी कर्मचारियों की शिनाख्त होने लगी थी जिन्होंने आतंकवादियों से तालमेल बिठा रखा था। गुपकार मोर्चे के बहिष्कार के बावजूद आम लोगों ने जिला विकास परिषदों के चुनावों में बड़ी संख्या में भाग लेकर उन राजनीतिज्ञों को गहरा निराश किया था जो सोचते थे कि उनके बिना प्रदेश की जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया का बहिष्कार करेगी। सबसे बड़ी बात यह कि प्रदेश सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं की उस संपत्ति को मुक्त करवाना शुरू कर दिया था जिस पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था। लगभग एक हज़ार ऐसी संपत्तियां मुक्त करवा ली गई थीं। स्वाभाविक है इससे पाकिस्तान समेत प्रदेश के उन राजनीतिज्ञों को गहरी निराशा होती जिनकी राजनीति ही आतंकवादियों के समर्थन से चल रही थी। आतंकवादी बहुत बड़ी संख्या में मारे भी जा चुके थे। पाकिस्तान को आशा थी कि अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद घाटी में अराजकता की हालत पैदा हो जाएगी और गुपकार मोर्चा वालों को लगता था कि उनके बिना घाटी में लोकतांत्रिक प्रक्रिया संभव ही नहीं हो सकेगी। लेकिन हुआ इसके उलट। घाटी में शांति व्याप्त होने लगी।
आतंकियों के मारे जाने पर पहले जो भीड़ जुटती थी, अब वह आतंकियों के हाथों मारे गए निर्दोषों के जनाज़े पर जुटने लगी। इतना ही नहीं, पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए जम्मू-कश्मीर के इलाके में कहीं-कहीं पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे। कश्मीर घाटी में पर्यटकों का बड़ी संख्या में आना-जाना शुरू हो गया । हुर्रियत कान्फ्रेंस एक ही झटके में हवा में उड़ गई। घाटी के गांवों तक में उनके भ्रष्टाचार के चर्चे होने लगे। विधानसभा की सीटों के पुनर्सीमांकन की प्रक्रिया लगभग समाप्ति पर है और जल्दी ही निकट भविष्य में वहां विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं। ऐसी चर्चा भी शुरू हो गई। इस नई परिस्थिति में पाकिस्तान ने भी अपनी रणनीति बदली। एक बार पुनः घाटी में मजहब के आधार पर लोगों को निशाना बनाने की रणनीति। हिंदू-सिख की शिनाख्त कर उनकी हत्या करने की रणनीति। इसी नई रणनीति के अंतर्गत एक सरकारी स्कूल में दो हिंदू-सिख शिक्षकों की हत्या कर दी गई। श्रीनगर में एक फार्मेसी के हिंदू मालिक को गोली मार दी गई। गोलगप्पे बेच रहे एक बिहारी हिंदू को मार दिया गया। पुलिस का कहना है कि ये हत्याएं करने के लिए आतंकवादियों के सीमा पार नियंत्रकों ने तरीक़ा भी बदल लिया है।
ये हत्याएं उन लोगों से करवाई जा रही हैं जिनका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है। ये आतंकवादियों के ओवरग्राऊंड वर्कर हैं। वे हत्या करके फिर अपने सामान्य कामकाज में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन हिंदू-सिखों की इन सिलैक्टड हत्याओं से ज़ाहिर है घाटी में अल्पसंख्यकों में भय व्याप्त होता और वे घाटी छोड़ने लगते। लेकिन इन सिलैक्टड हत्याओं के बाद सुरक्षा बलों ने भी अपनी रणनीति बदली और एक साथ ही प्रदेश के अनेक स्थानों पर छापामारी कर लगभग पांच सौ से भी ज्यादा आतंकवादियों के ओवरग्राऊंड वर्करों को पांडाल पर लाया गया। पुलिस की सक्रियता का आलम यह था कि कुछ महीने पहले तक राज्य के राज्यपाल मनोज सिन्हा के सलाहकार रहे एक सज्जन भी पुलिस की जद में आ गए। जितनी तेज़ी और व्यापकता से सरकार ने प्रहार किया, उसकी आशंका शायद न आतंकवादियों को थी और न ही पाकिस्तान को। बल्कि पाकिस्तान को यह लगता था कि अब वह तालिबान का हौवा खड़ा कर भारत सरकार को डरा सकेगा और कश्मीर घाटी के लोगों को एक बार फिर देश के खिलाफ उकसा सकेगा। लेकिन इस बार न तो कश्मीरी पाकिस्तान के झांसे में आए और न ही प्रशासन के हाथ-पैर फूले। अब पाकिस्तान के पास अपना अंतिम दुरुपयोग का पत्ता बचा था, जिसे मैदान में उतारे बिना काम नहीं चलने वाला था। यह तुरुप का पत्ता है घाटी का एटीएम। बैंक वाला एटीएम नहीं, बल्कि कश्मीर घाटी की राजनीति का एटीएम। एटीएम यानी अरब सैयद, तुर्क और मुगल मंगोल मूल के लोग जो अरसे पहले अपने-अपने देशों से कश्मीर में आकर बस गए थे। इसी ब्रिगेड की एक स्तम्भ सैयदा बीबी महबूबा मुफ़्ती को एक बार फिर मैदान में उतरना पड़ा। वह पहले की तरह ही सेना पर आरोप लगाने लगीं कि सेना ने फिर कश्मीरियों को तंग करना शुरू कर दिया है।
भारत सरकार को कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। महबूबा इक्कीसवीं शताब्दी के अंत में भी वहीं खड़ी हैं, जहां उसकी बहन का तथाकथित अपहरण हुआ था और उसके बदले सरकार ने कुछ आतंकवादियों को छोड़ दिया था। घाटी में आज भी यह चर्चा होती रहती है कि वह सारा कुछ आतंकवादियों को जेल से छुड़वाने के लिए मिलजुल कर किया गया आप्रेशन था। उस वक्त महबूबा के अब्बूजान सैयद मुफ़्ती मोहम्मद थे। महबूबा उतने साल बाद भी उसी काल में ठहर गई लगती हैं। वह आज भी वही जुमले दोहरा रही हैं जो एटीएम के नेता उस कालखंड में दोहराया करते थे। लेकिन अब तक जेहलम में बहुत पानी बह चुका है। घाटी के लोग भी अनुच्छेद 370 के मकड़जाल से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस लेने लगे हैं। आज कश्मीर के लोग ही आतंकवादियों की सूचना पुलिस को देने लगे हैं। महबूबा मुफ़्ती और उसके ब्रांड के लोग धीरे-धीरे घाटी की राजनीति में हाशिए पर आने लगे हैं। इसलिए महबूबा मुफ़्ती की धमकियां हाशिए का रुदाली रुदन ही कहा जा सकता है, जिसे कश्मीर में सुनने वाला तो कोई नहीं है, अलबत्ता एजी नूरानी की तरह उसे इस्लामाबाद में जरूर तालियां मिल सकती हैं। हो सकता है घाटी की एटीएम ब्रिगेड भी कुछ देर तक महबूबा के साथ क़दमताल करता रहे। लेकिन क़दमताल से यात्रा नहीं होती, जड़ता आती है। यही कारण है कि महबूबा अभी तक उसी पुराने मोड़ पर खड़ी है और कश्मीर के लोग उस पुराने मोड़ से बहुत आगे निकल आए हैं।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
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