संपादकीयः न्याय की आस में देश में 3 लाख से ज्यादा कैदी
देश की राजधानी नई दिल्ली में पहली बार आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विचाराधीन कैदियों को लेकर चिंता जायज है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
देश की राजधानी नई दिल्ली में पहली बार आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विचाराधीन कैदियों को लेकर चिंता जायज है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से वर्ष 2020 में प्रकाशित 'जेल सांख्यिकी भारत' रिपोर्ट के अनुसार देश की जेलों में 4,88,511 कैदी हैं, जिनमें से 76 प्रतिशत या 3,71,848 कैदी विचाराधीन हैं। स्पष्ट है कि न्याय की आशा में इंतजार करते आरोपियों की संख्या अत्यधिक है, जो कहीं न कहीं न्याय व्यवस्था की सीमाओं और सुधार की जरूरत की ओर इशारा करती है। हाल के दिनों में न्यायिक अवसंरचना को मजबूत बनाने के लिए अनेक स्तर पर प्रयास हुए हैं। सरकार की तरफ से न्यायिक संसाधनों को आधुनिक बनाने के लिए 9000 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं
ई-कोर्ट मिशन के तहत देश में 'वर्चुअल कोर्ट' शुरू हो रहे हैं। यातायात उल्लंघन जैसे अपराधों के लिए 24 घंटे चलने वाली अदालत काम कर रही है। लोगों की सुविधा के लिए अदालत में 'वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर' का विस्तार भी किया जा रहा है। मुकदमों की स्थिति की ऑनलाइन जानकारी काफी दिनों से उपलब्ध है। यह सब होने के बावजूद न्याय की आस में समय बीतना आम आदमी की परेशानियों को बढ़ाना है। जन-जन तक न्याय की पहुंच सरकार के लिए आज भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री भी मानते हैं कि न्याय व्यवस्था की जटिलता और विलंब के कारण अनेक लोग अदालत के दरवाजे पर नहीं पहुंचते हैं। वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो जिन्हें किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाता है, उनका फैसला नहीं होने से कैदियों का दबाव इतना अधिक बढ़ चुका है कि अनेक जेलों में क्षमता से कई गुना अधिक कैदी रह रहे हैं। उनमें से अनेक ऐसे भी हैं, जो अपने मुकदमे का खर्च नहीं उठा सकते हैं। ऐसे में न्यायिक व्यवस्था का आम आदमी के लिए उपयोग बहुत सीमित हो जाता है।
अदालतें एक तरफ जहां बड़े मामलों, वकीलों की फौज में उलझी रह जाती हैं, दूसरी तरफ अस्पष्ट आधे-अधूरे मामलों में केवल तारीख ही दे पाती हैं। यह स्वीकार योग्य है कि मोदी सरकार ने न्याय में तेजी लाने के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को तेजी से बढ़ाया है। अनेक उच्च न्यायालयों में बड़ी संख्या में न्यायाधीश बढ़े हैं। फिर भी निचली अदालतों के मामले और उनके अवरोधों को दूर करने की आवश्यकता है। हालांकि इस मामले में सरकार भी उत्सुक है और आम आदमी की जरूरत है। इसलिए न्याय व्यवस्था को सरल, सहज और सुलभ बनाने में किसी भी स्तर पर दिक्कत नहीं होनी चाहिए। दरअसल अन्याय को मन में रखकर जीवन व्यतीत करने से स्वस्थ लोकतंत्र के सही अर्थों को नागरिकों को समझाया नहीं जा सकता है। अवश्य ही कुछ सुधार हुए हैं और कुछ सुधारों की जरूरत है। एक आम नागरिक को संविधान में उसके अधिकारों, कर्तव्यों से परिचित कराना जरूरी है, जिससे वह अन्याय की स्थिति में अपनी आवश्यकतानुसार न्याय की अभिलाषा रख सके।