दुनिया में आर्थिक भूलभुलैया

दुनिया कहां जा रही है, समझना बहुत मुश्किल है। खासकर अर्थव्यवस्था की नजर से

Update: 2021-10-03 18:31 GMT

आलोक जोशी दुनिया कहां जा रही है, समझना बहुत मुश्किल है। खासकर अर्थव्यवस्था की नजर से। पुराने समय में तो कहा जाता कि कोरोना संकट से उबरने की कोशिश में जुटी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दोराहे पर खड़ी है। एक तरफ वे लोग हैं, जिन्हें डेल्टा वेरिएंट का असर खत्म होता दिख रहा है और वे आर्थिक तरक्की, यानी जीडीपी बढ़ने की रफ्तार तेज होती देख रहे हैं। तो दूसरी ओर वे हैं, जिन्हें लगता है कि अव्वल तो बीमारी अभी गई नहीं है, और अगर मान भी लें कि महामारी कमजोर पड़ गई है, तब भी इसने जो घाव दिए हैं, उनका जल्द भरना मुश्किल है।

लेकिन आज का हाल तो यह है कि जिधर देखें, उधर से एक अलग तरह का संकेत नजर आता है। कुछ वैसा भाव है, मानो आप किसी भूलभुलैया में फंस गए हों, हर तरफ रास्ते ही रास्ते हैं, लेकिन पता नहीं है कि इनमें से कौन सा रास्ता मंजिल तक पहुंचाएगा और कौन सा और गहरी उलझन में फंसा देगा। अर्थव्यवस्था में तरक्की की बात करनी हो या मुसीबत की, बात शुरू तो चीन से ही होती है। कोरोना से मुकाबले में चीन की सच्ची या झूठी सफलता की कहानियों के बीच अचानक उसकी दिग्गज रियल एस्टेट कंपनी एवरग्रांड के कर्ज-संकट की खबर आ गई। लगभग तीन खरब डॉलर के कर्ज में दबी इस कंपनी का बाजार-भाव चीन की जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है, और जितना कर्ज इसने ले रखा है, वह देश के बॉण्ड बाजार में 16 प्रतिशत के बराबर है। चीन के 280 शहरों में इसके प्रोजेक्ट्स हैं और देश के बाहर 200 और देश के भीतर 2,000 छोटी-बड़ी कंपनियां उसके ग्रुप का हिस्सा हैं। इनमें दो लाख से ज्यादा लोग नौकरी करते हैं।
इससे समझिए कि एवरग्रांड के डूबने या आर्थिक संकट में फंसने की खबर कितने लोगों को मुसीबत में डाल सकती है। एकदम यही हुआ। न सिर्फ चीन के, बल्कि दुनिया भर के शेयर बाजार में जो तेज गिरावट आई, उससे एक ही दिन में एलन मस्क, जेफ बेजोस, वॉरेन बफे और ऐसे ही दूसरे निवेशकों को कुल मिलाकर 26 अरब डॉलर की चपत लगी। दुनिया भर के शेयर बाजारों में निवेशकों को 2.2 लाख करोड़ डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा। चीन की सरकार इस संकट से निकलने की कोशिश कर ही रही थी कि दूसरी मुसीबत आई। देश के तीन प्रांतों में दसियों लाख घर अंधेरे में डूब गए, जिसकी वजह पीक डिमांड के समय पर बिजली की राशनिंग, यानी कटौती बताया गया। इतने पर बस नहीं है, चीन के पूर्वी व दक्षिण-पूर्वी तटवर्ती इलाकों में हजारों फैक्टरियों की बिजली काट दी गई। कारखानों के लिए प्रदूषण के नए नियम लागू कर दिए गए हैं, जिसका नतीजा है कि एपल और टेस्ला जैसी कंपनियों के बड़े आपूर्तिकर्ताओं का काम भी रुक गया है और उनका उत्पादन ठप हो गया। गोल्डमैन सैक्स ने हिसाब लगाया है कि चीन के औद्योगिक उत्पादन में सिर्फ इस वजह से 44 फीसदी की गिरावट आ सकती है। चीन में अगर इस वक्त उत्पादन गिरेगा, तो यूरोप और अमेरिका समेत दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की आपूर्ति कम हो जाएगी। त्योहारों का मौसम आ रहा है। ऐसे में, अगर माल नहीं पहुंचा, तो सेल लगने के बजाय माल की किल्लत और मुनाफाखोरी का खतरा खड़ा हो जाएगा। महंगाई का आलम पहले ही यह है कि जर्मनी में इसका आंकड़ा 29 साल की नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। बात चीन की ही नहीं है। इंग्लैंड में भी कई जगह पेट्रोल पंपों पर बोर्ड लग गए हैं कि ईंधन नहीं हैं। और नैचुरल गैस के दामों में तेजी की वजह से कई कंपनियां मुसीबत में आ गई दिखती हैं। पेट्रोल-डीजल के दाम आठ साल की नई ऊंचाई पर हैं, और किल्लत का आलम यह है कि सरकार ने फौज को तेल की आपूर्ति के लिए तैयार रहने का आदेश दिया है। किल्लत की दो वजहें हैं। एक तो यह कि कमी के डर से लोगों ने घबराकर ज्यादा तेल खरीदना शुरू कर दिया है। और दूसरी, टैंकरों को चलाने के लिए पर्याप्त ट्रक ड्राइवर भी नहीं हैं।
बाकी यूरोप का हाल भी ब्रिटेन से अलग नहीं है। जाड़े की शुरुआत हो चुकी है, यानी गैस, बिजली और तेल, तीनों की मांग बढ़ने वाली है। यूरोप और अमेरिका में जाड़ों में घरों और इमारतों को गर्म रखने के लिए हीटिंग ऑयल की मांग भी बढ़ती है। और यूरोप के बड़े हिस्से को बिजली देने वाले नॉर्वे के एक बड़े ग्रिड ऑपरेटर ने चेतावनी दी है कि इस बार आपूर्ति पर बहुत दबाव है। ब्रिटेन, जर्मनी और डेनमार्क, तीनों देश नॉर्वे की ग्रिड से जुड़े हुए हैं। अमेरिका में भी तेल और गैस का अलग संकट खड़ा होता दिख रहा है। कोरोना के दौर में कंपनियों ने हाथ खींच रखे थे और अब उन्हें काम के लोग नहीं मिल रहे हैं। डलास फेडरल बैंक ने एक सर्वे किया है, जिसमें तेल उद्योग से जुड़े 51 फीसदी अधिकारियों ने कहा कि उन्हें नए लोग मिलने में मुश्किल हो रही है। 70 प्रतिशत का कहना था कि समस्या यह है कि जो लोग मिल रहे हैं, उन्हें पूरा काम नहीं आता, तो 29 फीसदी का कहना है कि वर्कर अब जितने पैसे मांग रहे हैं, कंपनियां उतना देने की हालत में नहीं हैं। तो अब संकट यह है कि कोरोना से मुक्ति हो गई, तो एक नई मुसीबत सामने खड़ी है। यही वजह है कि दुनिया भर में अलग-अलग एजेंसियां विकास के अनुमान कभी बढ़ाती, तो कभी घटाती दिख रही हैं। यूरोप, अमेरिका और ब्रिटेन, सभी जगह जो अनुमान सामने आ रहे हैं और वहां के व्यापार संगठन जो हाल बता रहे हैं, उनमें दिखता है कि बिजनेस कॉन्फिडेंस, यानी व्यापारियों के हौसले में तेज गिरावट आ रही है। कुल मिलाकर देखें, तो दुनिया की अर्थव्यवस्था इस वक्त किसी दोराहे या चौराहे पर नहीं खड़ी है, बल्कि एक जबर्दस्त चक्रवात में चकरघिन्नी की तरह घूम रही है। यह घेरा तोड़कर किस तरफ भाग निकलेगी, कहा नहीं जा सकता।


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