दिलीप कुमार

ऐसा जीवन अर्जित कर पाना कम ही लोगों के लिए मुमकिन हो पाता है

Update: 2021-07-09 03:32 GMT

ऐसा जीवन अर्जित कर पाना कम ही लोगों के लिए मुमकिन हो पाता है, जिसके हिस्से में दर्ज सफर किसी के लिए रास्ता बनने में मददगार हो तो कोई उससे अपनी मंजिल के सामने छाए धुंधलके को साफ कर सके। दिलीप कुमार एक ऐसी ही शख्सियत थे, जिन्हें भारतीय फिल्मों के अभिनय के बादशाह के तौर पर जाना जाता रहा, मगर इसके समांतर वे इतने ही बेहतरीन और सलीके वाले शख्स थे। यों अपने लंबे सफर में उन्होंने जो मुकाम हासिल किए, वे यह बताने के लिए काफी हैं कि किसी कोने में छिपी काबिलियत जब अपने कदम बढ़ा देती है तो उसकी राहों में खड़ी होने वाली अड़चनें अपने आप साफ होती चली जाती हैं। दिलीप कुमार ने जब फिल्मी दुनिया में अपने कदम रखे थे, तब शायद उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि आने वाले वक्त में वे न सिर्फ एक बेहतरीन कलाकार के तौर पर जाने जाएंगे, बल्कि सिनेमा का सरताज मानी जाने वाली शख्सियतें भी उन्हें एक संस्था की शक्ल में याद करके इज्जत बख्शेंगी। गौरतलब है कि बुधवार को अट्ठानबे साल की उम्र में दिलीप कुमार ने आखिरी सांस ली। लेकिन फिल्मी दुनिया में प्रतिभा और कामयाबियों के समांतर अपनी जिंदगी में हासिल सम्मान के साथ अब वे हमेशा के लिए एक दर्ज हो चुके अध्याय के तौर पर जाने जाएंगे।

यह बेवजह नहीं है कि उनके निधन के बाद यह कहा जा रहा है कि उनका जाना दरअसल भारतीय सिनेमा के एक युग का अंत है। दरअसल, दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान के पिता मुंबई में फलों के कारोबारी थे और वे भी उसी में अपनी जमीन बना रहे थे। लेकिन महज संयोग से उनकी मुलाकात बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से हुई और वहीं से वे दिलीप कुमार भी बने और अपने फिल्मी सफर की कहानी की शुरुआत भी की। पहली ही फिल्म 'ज्वार भाटा' के जरिए उनकी काबिलियत की पहचान कई मशहूर फिल्म निर्माताओं को हो गई और उसके बाद उनके लिए रास्ता सिर्फ आगे बढ़ने का था। अपने छह दशक लंबे कॅरियर में उन्होंने तिरसठ फिल्मों में काम किया, लेकिन इस दौरान अभिनय और कला को उन्होंने जो मायने दिए और परिभाषा दी, वह अब सिनेमा की दुनिया में एक दस्तावेज के तौर पर हमेशा सुरक्षित रहेगा। उनके ज्यादातर समकालीन मशहूर कलाकार जहां अदाकारी की एक खास शैली की वजह चर्चित हुए, वहीं दिलीप कुमार ने अपने अभिनय में जितने आयाम पेश किए, उसने उनके काम के दायरे को नया विस्तार दिया।

हर किरदार में डूब जाने के उनके सलीके को इस तरह समझा जा सकता है कि 'कोहेनूर' में सिर्फ एक गाने में सितार बजाने की भूमिका के लिए उन्होंने सितार सीखने में लंबा वक्त दिया तो 'नया दौर' में तांगा चलाने के दृश्य को ठीक से करने के लिए उन्होंने तांगा चलाने वालों से बाकायदा उसका प्रशिक्षण लिया। उनकी इसी संपूर्णता की धुन की वजह से जाने-माने फिल्म निर्देशक सत्यजित राय ने उन्हें 'मेथड अभिनेता' कहा था। दूसरी ओर, प्रेम में दिल टूटने के दुख को पर्दे पर समूची संवेदना के साथ उतार देने के चलते उन्हें 'ट्रेजेडी किंग' का भी खिताब मिला। भारत में जहां उन्हें दादा साहब फाल्के, पद्मभूषण और पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया, वहीं पाकिस्तान सरकार ने उन्हें अपने सबसे बड़े सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' से नवाजा था। उनकी ख्याति, सम्मान और स्वीकार्यता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उनकी मौत की खबर ने जहां भारत में अमूमन हर सामाजिक सरोकार रखने वाले को मायूस कर दिया, वहीं दुनिया के कई हिस्सों के साथ-साथ पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी उन्हें उतनी ही इज्जत के साथ याद किया गया।


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