संसद की गरिमा
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मंदिर हमारी संसद है। लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की शान हैं। लोकसभा में लम्बी-चौड़ी बहस के बाद कितने ही विधेयक राज्यसभा में पहुंचते हैं।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मंदिर हमारी संसद है। लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की शान हैं। लोकसभा में लम्बी-चौड़ी बहस के बाद कितने ही विधेयक राज्यसभा में पहुंचते हैं। वहां फिर बहस होती है। अगर ऐसा है तो यह परम्परा है। तर्क-वितर्क का चलना लोकतंत्र में सहमति के मामले में बहुत आवश्यक भी है। कभी लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा का स्तर बहुत गरिमापूर्ण होता था। जिन लोगों ने राममनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, आचार्य जे.वी. कृपलानी, उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वामपंथी नेता ईएमएस नम्बूद्रीपाद, डा. प्रणव मुखर्जी, अरुण जेतली, श्रीमती सुषमा स्वराज और अन्य नेताओं की बहस सुनी है तो उन्हें इस बात का अहसास हो रहा है कि आज संसद में बहस का स्तर क्या रह गया है। आजकल तो सांसद संसद के दोनों सदनों में जाना ही पसंद नहीं करते। हाजिरी लगाई और एक या दो घंटे मुंह दिखाई की और लौट आए। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में संसद में सांसदों की गैर हाजिरी पर गहरी चिंता व्यक्त की। प्रधानमंत्री ने सांसदों को फटकार लगाते हुए कहा कि अगर बच्चों को कोई बात बार-बार कही जाए तो वे भी ऐसा नहीं करते। कृपया परिवर्तन लाइये, वर्ना परिवर्तन खुद-ब-खुद हो जाएगा। प्रधानमंत्री की फटकार एक तरह से साफ चेतावनी है कि सांसद संसद की गरिमा को समझें और जनप्रतिनिधि के तौर पर आचरण करें वर्ना जनता ही उन्हें खुद बदल देगी।अंग्रेजी में कहावत है कि-"SPARE THE ROD AND SPOIL THE CHILDEN" हमारे हाथ में दंड अवश्य रहे चाहे इसका उपयोग हम नहीं करें परन्तु उदंड से उदंड विद्यार्थी को भी हमें श्रद्धावान शिष्य अवश्य बनाना है। यही काम हम कर नहीं सके। गलती यहां आकर हुई। बात सत्य है िक कोई भी िसस्टम बुरा नहीं होता, उसे अच्छा या बुरा हम स्वयं बनाते हैं। संसदीय मामलों के जानकार याद करते हैं कि कभी संसद में विद्वानों की भरमार थी। 70 फीसदी से ज्यादा लोग ऐसे थे जो न केवल कानून के जानकार थे बल्कि कानून की विभूतियों में हम उनका नाम रख सकते थे। इसके अलावा अन्य क्षेत्रों के शिक्षाविद होते थे। संसद में जो बहस होती थी, आज के सांसद अगर उनका अध्ययन करें तो शायद कुछ अपवादों को छोड़ कर लोग उसका अर्थ ही नहीं समझ सके। भारत का लोकतंत्र वैचारिक धरातल पर लड़ा जाता रहा है, इसमें व्यक्तिगत दुश्मनी की कोई जगह नहीं होती थी। अब केवल लड़ाई आरोपों-प्रत्यारोपों की रह गई है। संपादकीय :राज्यसभा का गतिरोध खत्म होअयोध्या से लौटे बुजुर्ग बोले - मोदी जी और केजरीवाल को आशीर्वादसू की को सजाभारत-रूस की अटूट दोस्तीनागालैंड में सैनिक गफलतऑन लाइन गेमिंग और गैम्बलिंगअनुशासनहीनता संसद में सांसदों को अपनी बौधिक क्षमता का परिचय देना चाहिए लेकिन हमारी बौधिक क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। विपक्ष का काम नीतियों पर प्रहार करना होता है और हंगामे को वह अपना अधिकार समझ बैठे हैं। मेरा मानना है कि हंगामा स्वस्थ रूप से किसी चीज के विरोध के रूप में होना चाहिए। लेकिन आजकल हंगामा महज हंगामे के लिए ही किया जाता है। जिस सदन में बैठकर राष्ट्र निर्माण की बातें की जाती हों उस सदन में बैठकर हंगामा करना और तोड़फोड़ करना सांसदों के आचरण के बिल्कुल विपरीत है। हमने जब संसदीय प्रणाली अपनाई तो यह तय था कि भारत आम जनता की इच्छा के अनुरूप ऐसा शासन चलाएगा जिसे लोक कल्याणकारी कहा जाएगा। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही पर एक-एक मिनट पर लाखों रुपया खर्च होता है। एक तो सांसद संसद में गैर हािजर रहते हैं, जो मौजूद होते हैं वह हंगाम करते हैं। विपक्षी सांसदों ने संसद की गरिमा को तार-तार करके रख दिया है। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है। संसद की सर्वोच्चता बनाने केलिए पहले नियमों का पालन करना जरूरी है। नियमों का पालन होगा तो संसद की गरिमा बचेगी। अगर सांसद दुर्व्यवहार करते हैं तो उन्हें अपने भीतर खुद झांकना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी केे सांसद को तो फटकार लगाई ही है लेकिन इसका संदेश दूसरी पार्टियों के लिए भी है। सभी राजनीितक दलों को अपने सांसदों को संसद की गरिमा के अनुरूप आचरण करने, संसद में उपस्थिति देकर संसद की बहस में भाग लेने और मुद्दों को गम्भीरता से समझने के लिए सीख देनी होगी। हम सब को यह विचार करने की जरूरत है कि संसद की गरिमा और सम्मान को कैसे बचाया जाए।