डिजिटल विश्वविद्यालय से संभव होगा उच्च शिक्षा को सभी तक पहुंचाना
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों शिक्षा क्षेत्र से संबंधित आयोजित एक वेबिनार में कहा कि नेशनल डिजिटल यूनिवर्सिटी भारत की शिक्षा व्यवस्था में अपनी तरह का एक अनोखा एवं अभूतपूर्व कदम है
कैलाश बिश्नोई।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों शिक्षा क्षेत्र से संबंधित आयोजित एक वेबिनार में कहा कि नेशनल डिजिटल यूनिवर्सिटी भारत की शिक्षा व्यवस्था में अपनी तरह का एक अनोखा एवं अभूतपूर्व कदम है। कोविड महामारी के दौरान डिजिटल या वर्चुअल शिक्षा दुनिया भर में सीखने-सिखाने के सबसे शक्तिशाली माध्यम के रूप में उभर रही है। ऐसे में यह आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि देश में डिजिटल एजुकेशन के लिए एक बेहतर ढांचा तैयार किया जाए।
इस दिशा में डिजिटल विश्वविद्यालय मील का पत्थर साबित होने वाला एक जरूरी और स्वाभाविक कदम है। यह कदम भारतीय शिक्षा पद्धति पर अमिट प्रभाव डालेगा। इससे एक ओर कक्षा में आने की बाध्यता खत्म होगी, वहीं दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं पर इंफ्रास्ट्रक्चर लोड बढ़ाने के दबाव से भी निजात मिलेगी। यह एक ऐसा विश्वविद्यालय होगा जो छात्रों को कई तरह के कोर्स और डिग्रियों की शिक्षा पूरी तरह आनलाइन उपलब्ध कराएगा। जरूरी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और ट्रेनिंग उपलब्ध कराने के लिए यह देश के अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर काम करेगा। यह विश्वविद्यालय एसईडीजी में नामांकन, संकाय विकास, रोजगार क्षमता बढ़ाने वाले कौशल, क्षेत्रीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सामग्री, औपचारिक और गैर-औपचारिक (पूर्व शिक्षा को मान्यता देना) शिक्षण आदि में मौजूद अंतर को समाप्त कर सकता है।
डिजिटल विश्वविद्यालय शिक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए लाभप्रद साबित होगा। इससे देश के नामी गिरामी विश्वविद्यालय और कालेजों को आनलाइन पढ़ाई करवाने की अनुमति से उन छात्रों को अध्ययन का मौका मिलेगा, जिन्हें कालेजों की उच्च कटआफ के कारण एडमिशन नहीं मिलता था। मालूम हो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों में नामांकन पैमाना 99 प्रतिशत से भी ऊपर चला जाता है। देश के अन्य प्रतिष्ठित महाविद्यालयों की भी कमोबेश यही स्थिति है। ऐसे में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समाज के बच्चों के लिए 90 प्रतिशत का स्तर पाना ही मुश्किल होता है।
पर्यावरण और यातायात की समस्या का समाधान : डिजिटल विश्वविद्यालय से पढ़ाई का सारा काम पेपरलेस होने से पर्यावरण प्रदूषण कम होगा। सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि गुणवत्तायुक्त शिक्षा को कहीं भी और कभी भी पहुंचाया जा सकेगा। इससे रोजगार के मौके भी बढ़ेंगे। डिजिटल विश्वविद्यालय से छात्र उन तमाम जानकारी और ज्ञान को घर बैठे हासिल कर सकेंगे जिसे जानने-समझने के लिए उन्हें बड़े शहरों में जाना पड़ता है। यह विश्वविद्यालय छात्रों को डिजिटल तरीकों से सीखने में सक्षम बनाएगा। इसमें फिजिकल क्लासेज की जगह वर्चुअल या आनलाइन क्लासेज होंगी। सभी प्रमुख भाषाओं में ई-कंटेंट तैयार करने, पढ़ाई व परीक्षा तथा परिणाम आनलाइन जारी होने से शिक्षा सस्ती और सुलभ हो जाएगी। इस पहल के जरिये देश भर में छात्रों की पढ़ाई के दौरान रहने व खाने पर आने वाले खर्चे में भारी कमी आएगी।
सबसे बड़ी बात कि भविष्य में कोरोना जैसी महामारी या किसी भी संकट के चलते पढ़ाई को जारी रखा जा सकेगा और पढ़ाई में व्यवधान नहीं आएगा। शिक्षा कैलेंडर में छेड़छाड़ करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। डिजिटल यूनिवर्सिटी स्पोक एंड हब फार्मेट पर काम करेगी। हब के तौर पर इसका डिजिटल प्लेटफार्म होगा, जबकि इससे जुड़े विश्वविद्यालय स्पोक कहलाएंगे। इसमें आइआइटी, आइआइएम, केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर दुनिया के टाप रैंकिंग वाले विदेशी विश्वविद्यालय भी आकर डिजिटल पढ़ाई करवाएंगे। अब अहम प्रश्न ये है कि देश में पहले से दूरस्थ शिक्षा उपलब्ध कराने वाले संस्थान इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) जैसे संस्थानों और डिजिटल विश्वविद्यालय में क्या अंतर होगा?
दरअसल डिस्टेंस लर्निंग/ दूरस्थ शिक्षा उपलब्ध कराने वाले संस्थान आनलाइन कक्षाएं संचालित नहीं करते, बल्कि वे संबंधित पाठ्यक्रम का स्टडी मैटेरियल छात्र को डाक के माध्यम से उनके घर पर भेज देते हैं। वहीं डिजिटल लर्निंग या डिजिटल विश्वविद्यालय से छात्र घर बैठे ही आनलाइन पढ़ाई कर पाएंगे। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि देश में पहली डिजिटल यूनिवर्सिटी की शुरुआत केरल में हो चुकी है। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ इंफार्मेशन टेक्नोलाजी एंड मैनेजमेंट केरल को अपग्रेड करके ही डिजिटल यूनिवर्सिटी में तब्दील किया गया था। यहां पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम से लेकर अलग-अलग तरह के कई कोर्सेज संचालित किए जा रहे हैं।
पारंपरिक शिक्षा के मुकाबले आनलाइन शिक्षा व्यवस्था के कुछ स्पष्ट फायदे और समस्याएं भी हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। आनलाइन पढ़ाई स्कूल-कालेज की कक्षाओं में जाकर किए जाने वाले अध्ययन का जगह नहीं ले सकती। स्कूल-कालेज जाने वाले छात्र केवल पठन-पाठन के उपयुक्त माहौल से ही दो-चार नहीं होते, बल्कि वे व्यक्तित्व विकास के उन तौर-तरीकों से भी रूबरू होते हैं, जो घर-परिवार में रहकर हासिल नहीं किए जा सकते। अब यह जाहिर हो चुका है कि आनलाइन अध्ययन परंपरागत पठन-पाठन का विकल्प नहीं बन सकता और अधिक से अधिक उसमें सहायक ही बन सकता है। एक बात और, डिजिटल विश्वविद्यालय का सपना तभी साकार होगा, जब संसाधनों के अभाव को दूर किया जाएगा। देश में कितने बच्चों और युवाओं के पास आनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल या टीवी की सुविधा उपलब्ध है, इसका उत्तर केंद्र सरकार के पास भी नहीं है। हालांकि साल 2017-18 के नेशनल सेंपल सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, देश के केवल 15 प्रतिशत ग्रामीण घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी, जबकि शहरी घरों के मामले में यह दर 42 प्रतिशत थी। पिछले कुछ वर्षों में ई-लर्निंग प्रणाली की ओर हुए बदलाव ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या इस बदलाव से छात्रों को सीखने में मदद मिली है या इससे उनके विकास, सामाजिक और भावनात्मक कल्याण में बाधा उत्पन्न हुई है तथा इससे भी अहम सवाल यह है कि क्या यह नया माध्यम सचमुच में शिक्षा के सभी आयामों की पूर्ति करता है या नहीं।
समावेशी शिक्षा : सवाल यह भी कि क्या डिजिटल प्रारूप ने शिक्षा को अधिक समावेशी बनाया है या फिर डिजिटल डिवाइड को और गहरा किया है? शहरी क्षेत्रों और उच्च एवं उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों में छात्र एवं शिक्षक डिजिटल शिक्षा से भलीभांति परिचित हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक आय की वजह से परिवार शिक्षा के लिए ई-लर्निंग उपकरणों को आसानी से खरीद सकते हैं तथा विभिन्न आनलाइन प्लेटफार्म का खर्च भी वहन कर सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर ग्रामीण इलाकों और गरीब परिवारों में यह स्थिति लगभग विपरीत है। ज्यादातर मामलों में परिवार में केवल एक ही सदस्य के पास स्मार्टफोन होता है, इस प्रकार छात्रों को आनलाइन कक्षा में भाग लेने में बहुत कठिनाई आ रही है। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार ने इस चिंता को दूर करने के लिए वर्ष 2026 तक देश भर के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढऩे वाले लगभग 4.06 करोड़ छात्रों (देश की कुल छात्र संख्या का लगभग 40 प्रतिशत) को लैपटाप और टैबलेट प्रदान करने की भी योजना बनाई है तथा इस कार्य के लिए कुल 60,900 करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया गया है। इसी तरह राज्य सरकारों को भी ये प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए कि वे आगे चलकर सभी शिक्षण संस्थानों को ब्राडबैंड सेवा और आनलाइन शिक्षा के लिए उचित यंत्र मुहैया कराएं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि डिजिटल शिक्षा का भविष्य बहुत आशाजनक लग रहा है और आबादी के बड़े हिस्से तक इसकी पहुंच भी है। गूगल और केपीएमजी की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में आनलाइन शिक्षा बाजार 52 प्रतिशत सालाना की दर से तेजी से विस्तार कर रहा है। अंत में कोरोना महामारी के दौर में वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए डिजिटल विश्वविद्यालय के विचार को एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है। अब वक्त आ गया है कि सरकार आनलाइन शिक्षा के माध्यम से वर्तमान आवश्यकता को पूरा करने और महामारी से उत्पन्न शिक्षा अंतर को पाटने के लिए सार्वजनिक संस्थानों को मजबूत करने के लिए और बड़े कदम उठाए।
डिजिटल शिक्षा की राह में आने वाली चुनौतियां : डिजिटल शिक्षा के कई लाभ को देखते हुए इसे बेहतर बनाने के लिए सरकार ने कई प्रयास किए गए हैं, इसके बावजूद इसकी राह में अभी भी कई चुनौतियां विद्यमान हैं। पहली चुनौती तो इंटरनेट तक पहुंच की है। यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफार्मेशन सिस्टम फार एजुकेशन 2019-20 की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के 15 लाख स्कूलों में से केवल 38.54 प्रतिशत स्कूलों में ही कंप्यूटर उपलब्ध हैं। रिपोर्ट के मुताबिक देश के केवल डेढ़ लाख सरकारी स्कूलों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। वहीं कंप्यूटर केलव तीन लाख स्कूलों के पास है। इससे भी बड़ी बात यह है कि देश के करीब ढाई लाख सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां अब तक बिजली नहीं है।
आनलाइन शिक्षा के सामने एक बड़ी चुनौती इंटरनेट स्पीड की भी है। ब्राडबैंड स्पीड विश्लेषण करने वाली कंपनी ऊकला की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंटरनेट स्पीड वाली लिस्ट में 138 देशों में से भारत 115वें स्थान पर रहा है। इस दौरान भारत की औसत मोबाइल इंटरनेट स्पीड 14.17 एमबीपीएस रही। ऐसे में वीडियो क्लासेज लेते समय इंटरनेट स्पीड का कम ज्यादा होना समस्या पैदा करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट स्पीड की हालत और बुरी है, बिजली चले जाने पर इंटरनेट का संचालन सुचारु तरीके से नहीं हो पाता है।
आनलाइन शिक्षण के विपरीत प्रभाव भी हो रहे हैं। बच्चों का शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है। स्कूलों में होने वाली विभिन्न गतिविधियों से बच्चों का जो शारीरिक विकास होता है, वह घर की चारदीवारी के बीच नहीं हो सकता। मोबाइल के अधिक उपयोग से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी जन्म ले रही हैं। बिना आत्म अनुशासन या अच्छे संगठनात्मक कौशल के अभाव में विद्यार्थी ई-शिक्षा मोड में की जाने वाली पढ़ाई में पिछड़ सकते हैं। छात्र बिना किसी शिक्षक और सहपाठियों के अकेला महसूस करते हैं। परिणामस्वरूप वे अवसाद से पीडि़त हो सकते हैं। इसके अलावा आनलाइन शिक्षण से केवल विभिन्न विषयों का ज्ञान मिलता है, किंतु विद्यालयों में मिलने वाली नैतिक शिक्षा का इस व्यवस्था में अभाव होता है। कोरोना महामारी के इस समय में पठन-पाठन के अनुभवों से सीखते हुए डिजिटल शिक्षा से भविष्य में शिक्षा को किफायती, समावेशी और कम लागत वाली बनाया जा सकता है। इसलिए केंद्र, राज्य सरकारों सहित विभिन्न हितधारकों को इस ओर मिलकर प्रयास करना चाहिए, ताकि भविष्य में छात्रों के लिए ई-लर्निंग से शिक्षा को और अधिक सुलभ बनया जा सके और सब तक शिक्षा के विजन को साकार किया जा सके।