देश की आजादी और गदर पार्टी: नहीं भूल पाएंगे शहीदों का बलिदान
15 जुलाई 1915 में अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को नगर में गदर पार्टी की स्थापना हुई
भारत की आजादी में गदर पार्टी की भूमिका: यही पाओगे महशर में जबां मेरी बयां मेरा, मैं बंदा हिन्द वालों का हूं, है हिन्दुसतां मेरा। मैं हिंदी, ठेठ हिंदी, खून हिंदी, जात हिंदी हूं,
यही मजहब, यही फिरका, यही है खानदां मेरा।
तेरी खिदमत में ऐ भारत, यह सिर जाए, जां जाए,
तो समझूंगा, यह मरना हयाते जादवा मेरा।
कविता की ये पंक्तियां कर्तार सिंह सराभा की रचना है। एक तरह से गदर पार्टी के उद्देश्यों को इन पंक्तियों में व्यक्त कर दिया है। कर्तार सिंह सराभा को19 साल की उम्र में लाहौर षडयंत्र मामले में 16 नवम्बर 1915 को फांसी की सजा दी गई। उनके साथ जिन अन्य शहीदों को फांसी की सजा दी गई उनके नाम हैं-
बख्शीश सिंह (अमृतसर), हरनाम सिंह (स्यालकोट), जगत सिंह(लाहौर), सुरैण सिंह-1, सुरैण-2 (अमृतसर) और विष्णु गणेश पिंगले पूना (महाराष्ट्र) हैं।
गदर पार्टी का इतिहास शहीद क्रांतिकारी
15 जुलाई 1915 में अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को नगर में गदर पार्टी की स्थापना हुई। सन् 1857 की क्रांति से प्रेरित 'गदर' से जुड़े क्रांतिकारियों का उदेश्य था भारत को ब्रिटिश हुकूमत से सशत्र विद्रोह के जरिए मुक्त करना। इस योजना के तहत 21 फरवरी 1915 को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की तारीख तय किया गया। पर कहा जाता है न कि घर का भेदी लंका ढ़ावे, यहीं अंजाम विद्रोह की इस योजना का हुआ। कृपाल सिंह नाम के पुलिस के भेदिए ने इस तारीख की सूचना पहले ही पुलिस को दे दी। इसकी भनक गदरी क्रांतिकारियों हो गई। इस वजह से विद्रोह की तारीख दो दिन पूर्व करना पड़ा।
इस तारीख की खबर भी कृपाल सिंह ने पुलिस को दी। पूर्व योजना के मुताबिक 15 फरवरी को गदर को अंजाम देने के लिए क्रांतिकारियों को अपने -अपने कार्य क्षेत्रों में रवाना होना था। बंगाल के अनुशीलन समिति से जुड़े क्रांतिकारी-रासबिहारी बोस और सचिन सान्याल भी गदर की योजना से न सिर्फ जुड़ चुके थे, बल्कि 'गदर' योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए हर तरह से मदद के साथ-साथ स्वयं भी प्राणपण से जुटे थे। रासबिहारी बोस ने यूपी और अंबाला का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। इस मोर्चे पर उन्होंने विष्णु गणेश पिंगले और सुच्चा सिंह को लगाया।
निधान सिंह और डॉक्टर मथुरा सिंह झेलम रावलपिंडी सरहद की ओर गए। गुरमुख सिंह ललितो और हरनाम सिंह होती मरदान और झेलम की ओर और मुला सिंह को लाहौर पर हमला करने की जिम्मेदारी तय हुई। फिरोजपुर केंद्र की जिम्मेदारी खुद कर्तार सिंह सराभा संभाल रहे थे। कृपाल सिंह (जिसे निधान की सिफारिश पर पार्टी में शामिल किया गया।) हालांकि शक के दायरे में पहले ही आ चुका था। फिर भी पता नहीं कैसे मियांमीर छावनी (लाहौर) की जिम्मेदारी उसे सौपीं गयी। निधान सिंह ने उसे लाहौर रेलवे स्टेशन पर घूमते देखा। लाहौर की मियांमीर छावनी इस गदर योजना के केंद्र में था। इस छावनी में सैनिकों से संपर्क आसान था। इस मकसद से ही रास बिहारी बोस ने गदर पार्टी का मुख्यालय अमृतसर से लाहौर किया।
शहादत के लिहाज से देखा जाए तो गदर आंदोलन में 150 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई अथवा वे पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए। - फोटो : अमर उजाला
18 फरवरी को ही लाहौर के मोची दरवाजे पर इकट्ठे क्रांतिकारियों को पुलिस ने छापा मारकर गिरफ्तार कर लिया। 19 फरवरी को सरकार ने उन सभी छावनियों में बड़े पैमाने पर पुलिस की तैनाती और चौकसी बढ़ा दिया,जहां गदर होने की संभावना थी। फिरोजपुर छावनी में जिन सैनिकों ने मैगजीन की चाबियां क्रांतिकारियों के सौंपने की बात कही थी, उन्हें सुबह ही नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। फिर भी कर्तार सिंह सराभा ने दुस्साहस कर बैरक में जाकर देशी पलटन के हवलदारों से मुलाकात किया। उन्हें विद्रोह के लिए उकसाते रहे, पर पलटन के हवलदरों ने कुछ भी न कर पाने की अपनी विवशता बतायी। सराभा को भी आभास हो गया कि अब कहीं से कोई आशा नहीं बची है।
पंजाब में चारों तरफ से गिरफ्तारियां होने लगी। कर्तार सिंह सराभा, अर्जुन सिंह और हरनाम सिंह फिरोजपुर से लाहौर आ गये। रासबिहारी बोस को लाहौर से सुरक्षित बनारस की गाड़ी पर चढ़ा दिया गया। विष्णु गणेश पिंगले 23 मार्च को मेरठ छावनी में गिरफ्तार हो गए। उस समय पिंगले के पास से काफी मात्रा में हथियार और गदरी साहित्य बरामद हुआ।
शहादत के लिहाज से देखा जाए तो गदर आंदोलन में 150 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई अथवा वे पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए। लगभग 300 क्रांतिकारियों को उम्र कैद की सजा दी गई। पंजाब में तीन हजार से अधिक गदर क्रांतिकारियों को पंजाब की चौहदी में नज़रबंद किया गया। कार्ययोजना के लिहाज से गदर आंदोलन 1857 की विद्रोह से प्रेरित था।
मार्च 1913 में लाला हरदयाल ने घोषित किया कि देश मे 1857 के गदर की तर्ज पर एक और गदर की जरूरत है। - फोटो : istock
मार्च 1913 में लाला हरदयाल ने घोषित किया कि देश मे 1857 के गदर की तर्ज पर एक और गदर की जरूरत है। उनके सुझाव पर ही पार्टी के मुख्यपत्र का नाम 'गदर' और सैनफ्रांसिस्को में पार्टी के मुख्य कार्यालय का नाम बंगाल के क्रांतिकारी अखबार और संगठन 'युगांतर' के नाम पर 'युगांतर आश्रम' रखा गया। इस युगांतर आश्रम से ही जुलाई 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद ग़दर पार्टी के क्रांतिकरियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध अपने देश में सशस्त्र विद्रोह का एलान किया। कोई गुपचुप तरीके से नहीं, अपने विद्रोह की योजना को बाकायदा 5अगस्त 1914 को 'गदर' अखबार में छापा भी गया।
इस आंदोलन को भले ही आंशिक सफलता मिली। पर कुल मिलाकर गदर आंदोलन अपने चरित्र में राष्ट्रीय विस्तार में अंतरराष्ट्रीय ( दुनिया के कई देशों में इसके केंद्र थे) और अपने अंतर्वस्तु में 1857 की प्रेरणा से प्रेरित था। गदर पार्टी के पहले अध्यक्ष सोहन सिंह भकना का संस्मरण मिलता है। कर्तार सिंह सराभा ने जेल की दीवारों पर लिखा था कि- शहीदों का खून व्यर्थ नहीं जाता।
सोहन सिंह ने पूछा कि - यहां तो हड्डियां जेल में गल जाती है। खबर बाहर कैसे जाएगी? सराभा का उत्तर था-' अध्यक्ष जी,आज नहीं तो कल या परसों बाहर जाकर खून रंग लाएगा ही'।
पंजाब के इस वीर सपूत की भविष्यवाणी सच साबित हुई। पंजाब की जमीन से ही सरदार भगतसिंह पैदा हुए। वे कर्तार सिंह सराभा का चित्र बराबर अपनी जेब में रखते थे। 23 साल की उम्र में उन्हें भी फांसी पर लटका दिया गया। लुधियाना के पास कर्तार सिंह सराभा के घर पर आज भी गदर पार्टी का झंडा फहर रहा है।
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