पहाड़ों से छेड़छाड़ के घातक नतीजे: नष्ट किए गए पहाड़ों से पूरा पर्यावरणीय तंत्र होता ध्वस्त

बरसात के मौसम में पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन जनित घटनाएं बहुत आम होती जा रही हैं

Update: 2021-07-31 04:37 GMT

भूपेंद्र सिंह| बरसात के मौसम में पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन जनित घटनाएं बहुत आम होती जा रही हैं। पिछले दिनों महाराष्ट्र के कई गांवों में बरसात तबाही लेकर आई। पहाड़ों की गोद में बसे कई गांव देखते ही देखते नजरों से लुप्त हो गए। महाराष्ट्र के रायगढ़ के महाड़ में पहाड़ खिसका और बस्ती मलबे में बह गई। रत्नागिरी के पोसरे बोद्धवाड़ी में भी तबाही हुई। राज्य के करजात, दाभोल, लोनावला आदि में पहाड़ सरकने से खूब नुकसान हुआ। उत्तराखंड के चमोली में पहाड़ के मलबे ने कई गांवों को बर्बाद कर दिया। हिमाचल प्रदेश, कश्मीर और सिलीगुड़ी से भी ऐसी ही खबरे हैं कि पहाड़ों का सीना काटकर जो सड़कें बनाई गई थीं, अब वहां बरसात के बाद मलबा बिछ गया है। ऐसी घटनाएं अभी बारिश के तीन महीनों में खूब सुनाई देंगी। जब कहीं मौत होगी तो कुछ मुआवजा बांटा जाएगा, लेकिन तबाही के असल कारणों को कुछ लोग जानबूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। सुना है कि महाराष्ट्र सरकार अब पहाड़ के तले बसे गांवों को अन्यत्र बसाने की तैयारी कर रही है।

पहाड़ खिसकने के पीछे बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही
पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही ही होती है। पहाड़ खिसकने की त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी कुछ साल पहले उत्तराखंड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहिम चल रही हैं, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैर्सिगक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श हो रहा है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम बनकर रह गए हैं और पहाड़ अपने और समाज को सहेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियां बसने लगीं। किसी भी आंचलिक गांव को देखें, जहां नदी का तट नहीं है, वहां कुछ पहाड़ और पहाड़ के निचले हिस्से में झील तथा उसे घेरकर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचाकर रखने की तकनीक सीख ली थी। हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी-बूटियां, पक्षी और जानवर होते थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गर्मी में भी वहां की शाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब।
पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं, तालाबों की हुई दुर्गति
बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर जब पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है। अब तो पहाड़ों में पक्की सड़कें भी बनाई जा रही हैं। पहाड़ को एक बेकार-बेजान संरचना समझकर खोदा जा रहा है, लेकिन यह ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ध्वस्त होता है। अब गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें। अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाबी सब पर भारी है। कभी सदानीरा कहलाने वाले इस इलाके में पानी का संकट खड़ा हो गया है। सतपुड़ा, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
पहाड़ों पर तोड़फोड़ का भूस्खलन से लेना-देना?
रेल मार्ग या हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थव्यवस्था, आस्था और विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक न जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित होकर ऊपर की ओर उठकर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छेड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है। उसके निर्माण में वहां की पहाड़ियों पर बारूद का खूब इस्तेमाल हुआ। जुलाई 2014 को यह गांव पहाड़ लुढ़कने से पूरा तबाह हो गया। यह जांच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना था या नहीं?
पहाड़ी की तोड़फोड़ से भूजल स्तर पर पड़ा असर
किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यदि गंभीरता से देखें तो मनुष्य के लिए फिलहाल पहाड़ों का छिन्न-भिन्न होता पारिस्थितिकी तंत्र चिंता का विषय ही नहीं है। इसका विमर्श कभी पाठ्य पुस्तकों में होता ही नहीं है। आज हिमालय के ग्लेशियर और वहां के पर्यावरण को बचाने के लिए तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ और सुखाड़ वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं।
पहाड़ों पर हरियाली न होने से मिट्टी तेजी से कटती
पहाड़ों पर हरियाली न होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आकर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा होकर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्योता होती है। पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं। वे मवेशियों के चरागाह होते हैं। पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते हैं। बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब यह जरूरी है कि उनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए कुछ किया जाए।


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