सोर्स- Jagran
एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार की विभिन्न एजेंसियां भ्रष्ट तत्वों के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए हैं, तब केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी की यह शिकायत चिंतित करने वाली है कि उसकी ओर से विभिन्न विभागों के 55 भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करने की जो सलाह दी गई थी, उस पर अमल करने में विलंब हो रहा है। इस मामले में कठघरे में खड़े किए गए संबंधित विभागों अथवा केंद्र और राज्य सरकारों को बिना किसी देरी के यह स्पष्ट करना चाहिए कि इन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में क्यों विलंब किया जा रहा है?
इस विषय पर सरकारों को चेतना ही होगा, क्योंकि सीवीसी की शिकायत उनकी उस प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करने वाली है, जिसके तहत बार-बार यह कहा जाता है कि भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया जाएगा। सरकारों को यह देखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन अफसरों को भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करनी है, वही उन्हें बचा रहे हों? इस अंदेशे का कारण यह है कि अतीत में यह खूब देखने को मिलता रहा है कि अधिकारी आम तौर पर अपने भ्रष्ट सहयोगी-साथियों को बचाने का काम करते हैं। यदि यह स्थिति अभी भी है तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता।
जब कभी भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई में विलंब होता है तो ऐसे अफसरों और कर्मचारियों का दुस्साहस तो और अधिक बढ़ता ही है, इसके साथ ही यह आभास भी होता है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में समर्थ नहीं। सीवीसी की ओर से जारी वार्षिक रपट में कुछ ऐसे मामलों का भी जिक्र किया गया है, जिनमें आय से अधिक संपत्ति जुटाने के मामले में फंसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के स्थान पर उनके विरुद्ध चल रहे मामले को ही बंद कर दिया गया।
यदि इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता कि ऐसा किस आधार पर और क्यों किया गया तो इससे जनता को यही संदेश जाएगा कि भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने का काम किया जा रहा है। नीति और नैतिकता का यही तकाजा है कि जिन मामलों में सीवीसी की सिफारिश को नहीं माना गया, उनमें यह स्पष्ट किया जाए कि ऐसा क्यों नहीं किया गया? सीवीसी की रिपोर्ट यह भी कहती है कि भ्रष्टाचार के आरोपित छह सौ से अधिक अधिकारियों के विरुद्ध अभियोजन के कई मामले विभिन्न सरकारी विभागों की मंजूरी के लिए लंबित हैं। कुल लंबित मामलों में से कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कई अधिकारियों के मामले तीन महीने से ज्यादा समय से अनिर्णीत हैं। यह इसलिए अस्वीकार्य और आश्चर्यजनक है, क्योंकि ऐसे मामलों पर निर्णय लेने की समय सीमा तीन माह ही होती है।