जिन देशों में छह महीने का बच्‍चा भी अलग कमरे, अलग बिस्‍तर पर सोता है

देशों में छह महीने का बच्‍चा भी अलग कमरे

Update: 2021-11-27 05:51 GMT
मनीषा पांडेय। नेचर प्रोजेक्‍ट में बहुत साल पहले वियतनाम की एक महिला ने अपनी कहानी लिखी. वियतनामी मूल की उस महिला ने जब अमेरिका में एक बच्‍चे को जन्‍म दिया तो चाइल्‍ड वेलफेयर डिपार्टमेंट के लोग उसके घर यह चेक करने आए कि उसके पास बच्‍चे के लिए अलग से एक कमरा और बिस्‍तर है या नहीं. अमेरिकी चाइल्‍ड वेलफेयर डिपार्टमेंट की महिला ये देखकर हैरान थी कि बच्‍चा अपने माता-पिता के साथ उसी बेडरूम में बिस्‍तर से सटकर लगे हुए एक पालने में सोता था, जबकि उनके पास अलग से खाली कमरा भी था, जिसमें वो बच्‍चे का एक अलग रूम बना सकते थे. बच्‍चे की उम्र तब सिर्फ छह महीने थी.
उस महिला ने लिखा कि अपने अमेरिकी दोस्‍तों की बातचीत से मुझे कुछ अंदाजा तो था कि यहां इस देश में बच्‍चे के पालने के तौर-तरीके क्‍या हैं. इसलिए मैंने उस महिला को ये नहीं बताया कि बिस्‍तर के बगल में बिछा ये पालना तो सिर्फ कभी-कभार सुलाने के लिए है. जब मैं घर के काम कर रही होती हूं या कमरे में मौजूद नहीं होती. ज्‍यादातर समय तो बेबी मेरे साथ मेरे ही बिस्‍तर पर सोता है.
वाइल्‍ड वेलफेयर डिपार्टमेंट के मुताबिक ये बच्‍चे के पालन में मां की तरफ से बरती गई लापरवाही थी. उस महिला पर मोटा जुर्माना लगाया गया और दो हफ्ते के भीतर बच्‍चे के पालने और बच्‍चे को अपने अलग कमरे में शिफ्ट करने की ताकीद की गई. बाद में महिला ने डिपार्टमेंट को दिखाने के लिए बच्‍चे का कमरा तो सजा दिया, लेकिन घर के अंदर सोता वो अब भी अपनी मां के बिस्‍तर पर उसके सीने से लगकर ही था. वियतनाम की उस महिला के लिए बच्‍चों की बेहतर परवरिश और उनके वेलबीइंग के लिए बनाया गया ये नियम बड़ा ही विचित्र था क्‍योंकि वो जिस देश से आती थी, वहां तो चार-पांच साल की उम्र तक बच्‍चे का कोई अलग बिस्‍तर, अलग कमरा नहीं होता. मां, दादियां-नानियां, घर के बड़े और बुजुर्ग हमेशा बच्‍चे को गोदी में उठाए और सीने से सटाए रखते थे. वो खुद होश संभालने तक मां के साथ एक ही बिस्‍तर पर सोती रही थी.
एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों की तरह वियतनाम भी ऐसा देश है, जहां की संस्‍कृति में बच्‍चों को अपने साथ सुलाने, पांच साल की उम्र तक हर वक्‍त शारीरिक रूप से अपने करीब रखने की परंपरा है. हमारे देश में भी यही कल्‍चर है.
लेकिन सवाल ये है कि ज्‍यादा समझदार और वैज्ञानिक होने का दावा करने वाले देशों में बच्‍चे को पैदा होने के तुरंत बाद से ही शारीरिक रूप से मां से अलग रखने, अलग कमरे और पालने में सुलाने की कल्‍चर के पीछे कौन सी वैज्ञानिक वजह हो सकती है. लंबे समय तक डॉक्‍टर्स और मेडिकल प्रैक्टिशनर्स इसे बच्‍चे को स्‍वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश बताते रहे. लेकिन वही मेडिकल साइंस अब अपनी ही थियरी को गलत बता रहा है.
मेडिसिन का एक समूह ऐसा भी है, जो अब कह रहा है कि नवजात को मां से अलग रखने, अलग सुलाने का बच्‍चे के शारीरिक और भावनात्‍मक विकास पर नकारात्‍मक प्रभाव पड़ता है. मेडिकल साइंस की जानकारी और प्रैक्टिस दोनों गलत थी, जो वो बच्‍चे को अलग कमरे में सुलाने और उसे हर वक्‍त गोद में उठाने का विरोध करते रहे.
डॉ. गाबोर माते अपनी किताब होल्‍ड ऑन टू योर किड्स में लिखते हैं कि फिजिकल प्रॉक्सिमिटी या शारीरिक नजदीकी बच्‍चे के न्‍यूरॉन्‍स के विकास पर असर डालती है. मनुष्‍य की शरीर सिर्फ सही पोषण से ही विकसित नहीं होता. भावनात्‍मक पोषण भी उसका हिस्‍सा है. जो बच्‍चे अपने प्राइमरी केयर गिवर के साथ ज्‍यादा शारीरिक नजदीकी में रहते हैं, उनके शारीरिक और मानसिक विकास ज्‍यादा संतुलित होता है. डॉ. माते कहते हैं कि एक फिजिशियन के रूप में मैं सालों तक अपने मरीजों को ये सलाह देता रहा कि बच्‍चे को हर वक्‍त गोद में न लें. अगर बच्‍चा रो रहा है तो भी उसे हर बार रोने पर गोद में न उठाएं.
सालों तक मैं अपने मरीजों को वही बता रहा था, जो एक बेहद कंजरवेटिव किस्‍म की मेडिकल स्‍कूलिंग और ट्रेनिंग में मैंने सीखा था. यह बात मुझे भी बहुत सालों बाद जाकर समझ में आई कि हर बार रोते हुए बच्‍चे को गोद में उठाना और प्‍यार करना जरूरी है. अगर हम रोते हुए बच्‍चे को रोने के लिए अकेला छोड़ देते हैं तो उसे ये मैसेज दे रहे होते हैं कि उसकी तकलीफ की किसी को परवाह नहीं है. ये मैसेज आगे चलकर एडल्‍ट लाइफ में एक पैथालॉजिकल वायरिंग में तब्‍दील हो जाता है, जो दुनिया के साथ हमारे कनेक्‍ट और रिश्‍ते को नकारात्‍मक रूप से प्रभावित करता है.
डॉ. माते कहते हैं कि अपनी कंजरवेटिव मेडिकल स्‍कूलिंग से बाहर निकलकर व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में मनुष्‍य के विकासक्रम को, उसके शारीरिक और मानसिक विकास को वैज्ञानिक ढंग से समझने के बाद मेरी आंखें खुलीं. एक छह महीने का, एक साल का या दो साल का बच्‍चा अगर रो रहा है तो वो नाटक नहीं कर रहा. या गोद में लिए जाने के लिए कोई बहाना नहीं कर रहा है. वो रो रहा है क्‍योंकि वो तकलीफ में है. जरूरी नहीं कि तकलीफ हर बार कोई शारीरिक ही हो. उसे बुखार हो या पेट में दर्द हो या कोई चोट लगी हो. बच्‍चा इतना कमजोर और वलनरेबल होता है कि वो सिर्फ आसपास की किसी भी तेज आवाज से या किसी निगेटिव वाइब से भी थ्रेट महसूस कर सकता है. वजह चाहे विजिबल हो या अनविजिबल, अगर बच्‍चा रो रहा है तो इसका अर्थ है कि वो आपको आवाज लगा रहा है. वो आपको बुला रहा है, उसे आपकी जरूरत है. जब हम बच्‍चों की इस भाषा को समझने में नाकाम होते हैं तो हम बच्‍चों के कम्‍युनिकेशन की भाषा को भी खत्‍म कर रहे होते हैं. अगर उसे न सुना जाए तो अगली बार वो रोने के बजाय अपनी तकलीफ को अकेले जज्‍ब करने की कोशिश करेगा और ये कतई स्‍वस्‍थ बात नहीं है.
वर्ल्‍डवाइड चाइल्‍ड हेल्‍थ केयर को समझने की कोशिश करती नेचर प्रोजेक्‍ट की एक रिपोर्ट कहती है कि जिन देशों में बच्‍चे मां-पिता के साथ एक ही बिस्‍तर पर या एक ही कमरे में सोते हैं, उनका भावनात्‍मक विकास ज्‍यादा संतुलित होता है. पश्चिम का समाज भले लंबे समय तक इस प्रैक्टिस के खिलाफ रहा हो, लेकिन अब वहां भी चीजें तेजी के साथ बदल रही हैं. अब अमेरिका में बच्‍चे को अलग से कमरे में न सुलाने पर चाइल्‍ड वेलफेयर डिपार्टमेंट वाले माता-पिता पर फाइन नहीं लगा सकते. डॉक्‍टर अब इस बात के लिए पैरेंट्स को प्रेरित करते हैं कि बच्‍चे को ज्‍यादातर वक्‍त फिलिकज प्रॉक्सिमिटी में ही रखें.
जरूरी नहीं कि विकसित देश हर मामले में विकसित ही हों. कई इंसानी व्‍यवहार को समझने के मामले में हमारे पूर्वज ज्‍यादा समझदार और ज्‍यादा वैज्ञानिक थे. कई ह्यूमन प्रैक्टिसेज उन समाजों में ज्‍यादा उन्‍नत और मानवीय हैं, जो सो कॉल्‍ड माडर्न समाज नहीं हैं. आधुनिकता और विकास का पैमाना पैसा और पावर नहीं, प्‍यार और आपसी कनेक्‍ट है.
आपके नवजात को अकेला कमरा और महंगा पालना नहीं, आपके सीने और स्‍पर्श की गरमाहट चाहिए. उसे अपने पास रखें, पास सुलाएं, सीने से लगाएं. मॉडर्न मेडिकल साइंस अब नए पैरेंट्स को यही सलाह दे रहा है.
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