By: divyahimachal
राजनीति में ब्रांड और प्रतिभा अलग-अलग सतह पर दिखाई दे रही हैं और इसका जीता जागता उदाहरण हिमाचल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बार-बार आगमन बता रहा है। किसी भी पैमाने में प्रधानमंत्री के ये दौरे भारी तथा विश्वास से भरे साबित हो रहे हैं, लेकिन सियासी प्रतिभा का स्थानीय स्तर पर टिकटों का आबंटन तथा वर्तमान जनप्रतिनिधियों का प्रदर्शन भी असरदार पहलू होने जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी ब्रांड मोदी और ब्रांड जयराम के अलावा डबल इंजन का प्रदर्शन कर रही है और इसी के अगले आयाम में प्रधानमंत्री का चंबा दौरा भी देखा जाएगा। कम से कम हिमाचल की सुर्खियों में भाजपा की गतिविधियां व्यवस्थित, रणनीतिक तथा ऊर्जावान हैं, जबकि कांग्रेस का दिल्ली डेरा, एक तरह से हिमाचल में अपनी ही सुर्खियों से किनारा कर रहा है। ऐसे में सरकार विरोधी लहरें या तो मोदी के दौरों से निरस्त हो रही हैं या मंच से मंत्रिमंडल तक घोषित हिमाचल सरकार के फैसलों से नरम पड़ रही हैं।
आश्चर्य यह कि कांग्रेस की घोषित चार्जशीट का ढक्कन बंद किसने किया या दिल्ली दरबार में जमघट लगाकर पार्टी ने प्रदेश की गतिविधियों में विराम लगा दिया है। अब तक यह साबित हो चुका है कि कांग्रेस के कई शिविर और कई गर्दनें तनी हुई हैं। हिमाचल में सरकारों की अदला-बदली का एक स्वाभाविक लक्षण अगर इस बार था, तो कांग्रेस ने इसे कई स्तरों पर कमजोर किया है। पहले संगठन में बदलाव और पदाधिकारियों का असंतुलन इस हद तक फैला कि सारी जवाबदेही ही कूड़ेदान में चली गई। जिन्हें ऊंचे पदों पर नवाजा गया, वे नेता भाजपा में कैसे चले गए, इसके ऊपर कोई सवाल आज तक नहीं पूछा गया। हैरानी यह कि भाजपा के लिए हिमाचल में आकर जितने चक्कर प्रधानमंत्री लगा गए, उतने तो कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला ने नहीं लगाए। यहां एक भारी अंतर दिखाई देता है। कांग्रेस का अपना ब्रांड जो चंद महीने पहले तक हिमाचल में सशक्त हो रहा था, आज आपसी द्वंद्व में फंसा है। आश्चर्य यह कि संगठन में राष्ट्रीय पद तक पहुंचे नेताओं के टिकट लटका कर कांग्रेस ने पिछले लगभग एक महीने से चुनावी फील्ड खाली छोड़ी हुई है। भले ही दिल्ली से खबरें चल रहीं या चलाई जा रही हैं, लेकिन इस जोर आजमाइश के जख्म और खरौंचे रिसने लगी हैं। कांग्रेस अब 'सरप्राइज' देने वाली पार्टी है क्योंकि अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के सामने इसकी निर्णायक क्षमता अब दिखाई नहीं देती। मंडी में अनिल शर्मा के साथ गलबहियां डालने वाले कांग्रेसी नेता अगर अनुशासनहीनता के लिए उनके बेटे आश्रय शर्मा को दरकिनार नहीं कर पाए, तो दीमक कहीं तो सोच में है या पार्टी के भीतर कई सूबेदारों के बीच युद्ध चल रहा है। देखना यह है कि आपसी संधियों में ये नेतागण पार्टी के ब्रांड को कैसे बचा पाते हैं।
भाजपा की पांच साला सरकार के सामने जो कांग्रेसी नेता दिलेर साबित हुए, क्या उनके ब्रांड को पार्टी ने जीवित रखा या टिकट युद्ध की आहुतियों में एक दूसरे की शक्तियों का होम हो रहा है। हिमाचल की विडंबना यह है कि यहां सियासी प्रतिभाओं को पिछलग्गू बनाया जाता रहा है। यह सिरदर्द केवल कांग्रेस का नहीं, भाजपा का अनुशासन और सारे अनुमान टिकट आबंटन की बेला में कितना विलाप करेंगे, यह आने वाला समय जरूर बताएगा। भाजपा को अगर आज परिवारवाद की जिरह के बावजूद मंडी में पूरे सुखराम परिवार को गोद लेना पड़ रहा है, तो यह असहज स्वीकृति के अलावा अपने पारंपरिक कुनबे के लिए भी सही नहीं होगा। भाजपा ने कांग्रेस के कई गिरगिट पाल लिए हैं, लेकिन देखना यह है कि आने वाले समय में इनका कौन सा रंग सामने आता है। भाजपा को अगर सरकार विरोधी माहौल के सारे लक्षण खत्म करने हैं, तो अपने भीतर की सियासी प्रतिभा को अधिकतम मौका देना होगा जबकि कांग्रेस को अपने कई नेताओं की लघु ब्रांडिंग में जीत का मंतव्य पूरा करना पड़ेगा। दोनों पार्टियों के अपने-अपने जोखिम हैं, लेकिन कांग्रेस अपने समर्थन में खड़ी हवाओं और समर्थकों की पहचान में खुद से न्याय नहीं कर पा रही है।