महाराष्ट्र की सत्ता में साझेदार होने के बाद भी कांग्रेस की नहीं है कोई अहमियत
कांग्रेस की इससे अधिक फजीहत और क्या हो सकती है
कांग्रेस की इससे अधिक फजीहत और क्या हो सकती है कि महाराष्ट्र में उसके ही समर्थन से सरकार चला रही शिवसेना संप्रग को एक एनजीओ सरीखा बताने के साथ ही अन्य सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की तारीफ के पुल बांधे? शिवसेना के मुखपत्र सामना में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग के बारे में जो कुछ लिखा गया, उसे पढ़कर कांग्रेसजनों को यह अहसास हो जाए तो बेहतर कि उनके सहयोगी किस तरह उनका अहसान मानने के बजाय उन्हें नीचा दिखाने में लगे हुए हैं।
सामना में यह लिखकर भी एक तरह से जले पर नमक ही छिड़का गया कि कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी के पास पिछले एक साल से पूर्णकालिक अध्यक्ष भी नहीं है और अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा जैसे पुराने नेताओं के न रहने के बाद इसका कुछ पता नहीं कि कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा?
एक तरह से राहुल गांधी के बारे में बगैर कुछ कहे यह इंगित कर दिया गया कि वह नेतृत्व के लायक नहीं हैं। हो सकता है कि कांग्रेस शिवसेना के अखबार में व्यक्त किए गए विचारों पर नाराजगी जताए, लेकिन इस पर ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाएगा कि इन विचारों को शिवसेना की राय मानना ठीक नहीं। जो भी हो, कांग्रेस को विपक्ष की कमजोर कड़ी मानने वालों की कमी नहीं।
जैसे महाराष्ट्र की सत्ता में साझेदार होने के बाद भी कांग्रेस की कोई अहमियत नहीं, वैसी ही स्थिति झारखंड में भी है। वास्तव में शायद ही कोई सहयोगी दल हो, जो कांग्रेस को महत्व देता हो। ध्यान रहे कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कांग्रेस को एक कमजोर दल के रूप में रेखांकित करती रही है। इस पार्टी के प्रमुख शरद पवार राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा कर चुके हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कांग्रेस के तमाम नेता भी यह मानते हैं कि राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता का अभाव है। करीब चार माह पहले कांग्रेस के 23 नेताओं की ओर से लिखी गई चिट्ठी ऐसा ही कुछ कहती थी।