प्रतिबद्ध मतदाता और अन्य
एक समय की बात है, जब लोगों पर शासन करना दैवीय अधिकार हुआ करता था। दुनिया के ज्यादातर देश अब इस विचार को खारिज कर चुके हैं। शासन की दूसरी प्रणालियां राजशाही को खत्म कर चुकी हैं।
पी. चिदंबरम: एक समय की बात है, जब लोगों पर शासन करना दैवीय अधिकार हुआ करता था। दुनिया के ज्यादातर देश अब इस विचार को खारिज कर चुके हैं। शासन की दूसरी प्रणालियां राजशाही को खत्म कर चुकी हैं। लोकतंत्र ऐसी ही प्रणालियों में से एक है। यह व्यवस्था इंसान की बनाई हुई है, जिसमें एक राज्य के नागरिकों को मतदान के जरिए अपने शासकों को बदलने का अधिकार दिया गया है। विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र सरकार का सबसे खराब रूप है। लोकतंत्र की तमाम खामियों के बावजूद भारत ने इसे अपनाया। दूसरी लोकतांत्रिक प्रणालियों के बीच हमने 'सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले की जीत' वाली लोकतंत्र व्यवस्था चुनी, बावजूद इसके कि कई बार इसके विचित्र नतीजे देखने को मिलते हैं।
हमने अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे देखे, जो वैसे ही अलग-अलग हैं जैसे एक हाथ की पांच अंगुलियां। मैंने पांच में से तीन राज्यों में चुनावों का काम देखा, इसलिए मैं अपने विचार उन राज्यों तक ही सीमित रखूंगा। ये चुनाव सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश, जहां चार सौ तीन विधानसभा सीटें हैं, मध्यम आकार के राज्य पंजाब (एक सौ सत्रह सीटें) जो एक अशांत सीमाई राज्य है और सबसे छोटा राज्य गोवा, जिसमें सिर्फ चालीस विधायक हैं, में हुए थे। इन तीनों राज्यों के चुनावी नैरेटिव में जो सबसे सामान्य मिलती-जुलती बात थी वह 'बदलाव बनाम निरंतरता' की थी। कुल मिला कर भाजपा निरंतरता की नायक थी, कांग्रेस (और पंजाब में आप) बदलाव की। नतीजा यह रहा कि पंजाब को छोड़ कर निरंतरता बदलाव पर जीत गई। भाजपा निर्विवाद रूप से विजयी रही।
गोवा में बदलाव की इच्छा थी। मतगणना के दो दिन पहले जब मैं विमान में अपनी सीट पर बैठा, तभी मेरे पास वाली सीट पर बैठी महिला ने साफ कहा 'सिर्फ जीत, सिर्फ जीत'। गोवा में बदलाव को लेकर लोगों के मन में साफ था। जब मतगणना हो रही थी, तब यह स्पष्ट हो गया था कि छियासठ फीसद लोगों ने वास्तव में बदलाव के लिए वोट डाला था। लेकिन नतीजा निरतंरता का आया!
गोवा में सभी चालीस सीटों के नतीजे घोषित होने के घंटे भर के भीतर वहां के आम वाशिंदे और छुट्टी मनाने आने वाले पर्यटक मीरामार में टहल रहे थे और ढेर सारे लोग चर्च आफ मेरी की सीढ़ियों पर अपनी तस्वीरें लेते नजर आ रहे थे। बदलाव को लेकर मन में जो बात थी, वह पूरी तरह हवा हो चुकी थी, सिवाय इस हैरानी के कि चुनाव का शोगगुल आखिर किस बात के लिए था? बेचैन लोगों में सिर्फ उम्मीदवार थे (जिनमें आठ लोग कांग्रेस के थे और जिन्हें जीत की उम्मीद थी), जिन्होंने बदलाव के लिए मुहिम चलाई थी और जो बहुत ही कम फासले यानी एक सौ उनहत्तर से एक हजार छह सौ सैंतालीस वोट से हारे थे। इन आठ में से छह भाजपा उम्मीदवारों से हारे थे।
तीनों राज्यों में कांग्रेस ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। पंजाब में इसने मुख्यमंत्री बदल दिया था और साहसिक कदम उठाते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दलित को बिठा कर सत्ता के ढांचे को चुनौती दी थी और बदलाव के साथ निरंतरता की अपेक्षा की थी। पूर्ण बदलाव के लिए आप (आम आदमी पार्टी) चुनौती देने वाली सबसे बड़ी पार्टी थी। आप ने भाजपा सहित सभी दूसरी पार्टियों को बुरी तरह हराया और एक सौ सत्रह में से बानबे सीटें जीतीं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सभी चार सौ विधानसभा सीटों पर (कई सालों में पहली बार) अपने उम्मीदवार उतारे, चालीस फीसद सीटों पर महिलाओं को टिकट (किसी भी चुनाव में किसी भी पार्टी में पहली बार) दिए और ऐसा नारा दिया कि जिसने हजारों महिलाओं, जिनमें ज्यादातर युवतियां थीं, को अपनी तरफ खींचा- 'लड़की हूं लड़ सकती हूं'। इसे दो सीटें मिलीं और 2.68 फीसद वोट।
गोवा में कांग्रेस ने दलबदलुओं को वापस लेने या टिकट देने से इंकार कर दिया था और इनके बजाय नौजवान, शिक्षित, साफ-सुथरे और बेदाग उम्मीदवार उतारे और सभी मुद्दों का समाधान करने वाला व्यापक घोषणापत्र जारी किया था। पूरी ऊर्जा के साथ प्रचार किया और सोशल मीडिया पर सबसे आगे रहे। सिर्फ एक काम जो इसने नहीं किया वह था- वोट के लिए लोगों को पैसे नहीं बांटे। दो को छोड़ कर सभी नौजवान, शिक्षित, साफ-सुथरे और बेदाग उम्मीदवार हार गए। निवर्तमान सरकार के सबसे भ्रष्ट मंत्री और कम से कम आठ दलबदलू फिर से चुनाव जीत गए। पहली बार यहां खाता खोलने वाली आप को 6.77 फीसद वोट मिले और दो सीटें मिलीं। टीएमसी को 5.21 फीसद वोट मिले पर सीट एक भी नहीं और नुकसान सिर्फ कांग्रेस को हुआ।
नतीजों को देखने के बाद मुझे लगता है कि बदलाव नहीं चाहने वालों ने इसे हल्के में लिया। उन्हें एक बटन दबाना था और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में उन्होंने एक निश्चित सोच के साथ यही कर दिया। बदलाव समर्थकों ने पसंद पर ध्यान दिया और अलग-अलग बटन दबाए! मुझे यह भी लगता है कि लोग नशीली दवाओं की तस्करी, ईशनिंदा और रोजगार जैसे वादे पूरे नहीं होने (जैसा कि पंजाब में) के खिलाफ थे, लोग गरीब होते जा रहे हैं और जो देख रहे हैं कि रोजगार की तलाश में उनके बच्चों को राज्य से बाहर जाने को मजबूर होना पड़ रहा है (राज्य से बाहर पलायन करने वाली आबादी में सोलह में से एक), और शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर लोगों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है (जैसा कि उत्तर प्रदेश में), और जो लोग वाकई शिक्षा, रोजगार, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण से सरोकार रखने वाले थे, ने बदलाव के लिए वोट दिया था, लेकिन वे अब यह देख कर खौफ में हैं कि उन्हें तो वही सरकार मिली और कहीं कोई बदलाव नहीं आया (जैसा कि गोवा में)।
मेरा मानना है कि सभी पांचों राज्यों में, जहां कट्टर हिंदू वोटों का आधार बढ़ रहा है, बहुसंख्य मतदाता सरकार बदलने की इच्छा रखते थे। बहुसंख्य मतदाताओं ने बदलाव के लिए वोट भी दिया होगा, लेकिन उन्होंने सिर्फ पंजाब को छोड़ कर, एक निश्चित सोच से या एक पार्टी के लिए वोट नहीं दिया। गोवा में निश्चित रूप से बदलाव समर्थकों के वोट तीन-चार दलों में बंट गए होंगे और योजना पर पानी फिर गया। मुझे उम्मीद है कि आप इस लेख को लोकतंत्र के खिलाफ विलाप के तौर पर नहीं पढ़ेंगे।